मखाना से मायूस किसान अब क्या करेंगे, फरवरी से शुरू होगी बुवाई

औषधीय गुणों से भरपूर और सेहत के लिए फायदेमंद मखाने ने पिछले साल (2022) मखाना किसानों की आर्थिक सेहत खराब कर दी। बुवाई रकबा बढ़ा तो उत्पादन में बढ़ोतरी हुई जिसकी वजह से मखाना गुर्री या गुड़िया (कच्चा मखाना) के भाव आसमान से जमीन पर आ गए। 2021 में 14-18 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक बिकने वाला मखाना 4-7 हजार रुपये प्रति क्विंटल पर आ गया। इसके अलावा प्रतिकूल मौसम की वजह से गुणवत्ता प्रभावित हुई जिस वजह से भी मखाना किसानों को उनकी उपज का भाव लागत के मुकाबले कम मिला। खासकर उन किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा जिन्होंने पहली बार इसकी खेती की थी

औषधीय गुणों से भरपूर और सेहत के लिए फायदेमंद मखाने ने पिछले साल (2022) मखाना किसानों की आर्थिक सेहत खराब कर दी। बुवाई रकबा बढ़ा तो उत्पादन में बढ़ोतरी हुई जिसकी वजह से मखाना गुर्री या गुड़िया (कच्चा मखाना) के भाव आसमान से जमीन पर आ गए। 2021 में 14-18 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक बिकने वाला मखाना 4-7 हजार रुपये प्रति क्विंटल पर आ गया। इसके अलावा प्रतिकूल मौसम की वजह से गुणवत्ता प्रभावित हुई जिस वजह से भी मखाना किसानों को उनकी उपज का भाव लागत के मुकाबले कम मिला। खासकर उन किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा जिन्होंने पहली बार इसकी खेती की थी। पहली बार मखाना की खेती करने पर खेतों में गड्ढा खुदवाने, लेवलिंग करने और बांध बनवाने सहित सिंचाई की सुविधा में लागत ज्यादा आती है।  

उजला सोना के नाम से मशहूर मखाने के कुल उत्पादन का करीब 90 फीसदी उत्पादन बिहार के कोसी, सीमांचल और मिथिलांचल के जिलों में होता है। इन जिलों में कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज, अररिया, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी और पश्चिम चम्पारण शामिल हैं। इनमें में भी सबसे ज्यादा उत्पादन पूर्णिया जिले में होता है। बाकी 10 फीसदी उत्पादन बंगाल और ओडिशा में होता है। बिहार के ये जिले बाढ़ प्रभावित इलाके हैं। यहां के निचले इलाके वाले खेतों में बारिश और बाढ़ का पानी जमा रहता है। जल जमाव की वजह से किसान इन खेतों से अन्य फसलों के उत्पादन का लाभ नहीं उठा पाते हैं मगर मखाने की खेती के लिए ये सबसे ज्यादा मुफीद हैं। यही वजह है कि इन जिलों में मखाना की खेती और उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बिहार सरकार ने मखाना विकास योजना शुरू की है। केंद्र सरकार ने भी मखाना क्लस्टर विकसित कर उत्पादन बढ़ाने की योजना बनाई है। केंद्र और राज्य सरकार की इन कोशिशों का परिणाम यह हुआ कि ज्यादा से ज्यादा किसान इसकी खेती के लिए प्रेरित हुए और 2022 में बुवाई रकबे में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। मगर इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि सरकार ने उत्पादन बढ़ाने की योजना तो बनाई लेकिन इसके लिए बाजार विकसित करने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। मखाना के बाजार पर पूरी तरह से स्थानीय कारोबारियों का ही कंट्रोल है। शायद यही वजह है कि उत्पादन में बढ़ोतरी होने से भाव जमीन पर आ गए जिसका खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ा।

फरवरी के अंतिम हफ्ते से मखाना की नई फसल की बुवाई शुरू होगी जो मार्च के अंत तक चलेगी। पिछले साल के पीड़ित किसान इस साल क्या करेंगे? ये सवाल पूर्णिया जिले के मखाना किसान कन्हैया कुमार मेहता से पूछा तो उन्होंने कहा, “घाटा उठाने वाले उन छोटे किसानों ने इस बार मखाना लगाना ठीक नहीं समझा जिन्होंने या तो पहली बार खेती की थी या फिर जिनके खेतों में दूसरी फसल हो सकती है। उन्होंने उन खेतों में मक्के की बुवाई कर दी। मक्का अप्रैल-मई में निकलता है। ऐसे में अब वे इस साल तो मखाना नहीं ही लगा पाएंगे। पूर्णिया जिले में ऐसे किसानों की बहुत बड़ी संख्या है। मैं खुद पिछले पांच साल से 15-20 बीघे में मखाने की खेती कर रहा हूं। ज्यादातर खेत लीज पर हैं। पिछले साल तो लीज का पैसा तक निकालना मुश्किल हो गया। 15 बीघा लीज की अवधि पिछले साल फसल निकलते ही खत्म हो गई। घाटे की वजह से मैंने लीज आगे बढ़ाना ठीक नहीं समझा। इस साल देखते हैं भाव क्या रहता है, उसी से 2024 में फिर से लीज लेने के बारे में निर्णय लूंगा। इस साल तो 3-4 बीघे में ही मखाना लगाऊंगा। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि इस बार मखाने की कितनी बुवाई हो सकती है।”

पूर्णिया के मखाना कारोबारी और फार्म टू फैक्ट्री के संचालक मनीष कुमार कहते हैं, “2022 से पहले मखाना ने किसानों को निराश नहीं किया था। इसे ऐसे ही उजला सोना नहीं कहते हैं। जिले के हजारों किसान मखाने की खेती से समृद्ध हो चुके हैं। उनको देख कर ही दूसरे किसान इसकी खेती के लिए प्रेरित हुए। लंबे समय बाद ऐसा हुआ है कि मखाना ने घाटा कराया है। इसकी वजह ज्यादा उत्पादन और उसकी तुलना में बाजार का न मिलना है। साथ ही यह ऐसी फसल है जिसे किसान स्टॉक कर नहीं रख सकते क्योंकि इसके लिए उनके पास संसाधन नहीं होता है। ये भी एक वजह है कि मखाना व्यापारी इसका फायदा उठाते हैं और कम कीमत पर खरीद कर स्टॉक कर लेते हैं। बाद में सीजन खत्म होने पर ऊंची कीमत पर बेचकर ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। पिछले साल उत्पादन बढ़ने की वजह से व्यापारियों को ये मौका ज्यादा मिला। दूसरे की देखा-देखी कर खेती करने की बजाय अगर किसान को-ऑपरेटिव या किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाकर इसकी खेती करेंगे तो कारोबारी उनके साथ मनमानी नहीं कर पाएंगे। साथ ही उन्हें दूसरे फायदे भी मिलेंगे।”    

जिले के ही दूसरे किसान नवीन मुन्ना कहते हैं, “खेती का घाटा खेती से ही पूरा किया जाता है। भाव न मिलने की वजह से दूसरी फसलों में भी घाटा होता है तो क्या किसान खेती करना छोड़ देता है। पिछले साल मुश्किलों का सामना जरूर करना पड़ा है लेकिन इस बार उम्मीद है कि भाव में तेजी आएगी क्योंकि उन किसानों ने अपने खेतों में मक्का बो दिया है जिनके खेतों में जल जमाव की समस्या नहीं थी मगर उन्होंने गड्ढा खुदवा कर मखाना लगाया था ताकि अच्छी कीमत पाई जा सके। इससे बुवाई स्वाभाविक रूप से घट जाएगी। परंपरागत फसल अब फायदे का सौदा नहीं रहा है इसलिए वे मखाने से प्रेरित हुए थे मगर यहां भी उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ा। इससे वे निराश हैं। इनमें ज्यादातर छोटे किसान हैं। इस साल तो नहीं लेकिन अगले साल वे फिर इसकी ओर रुख कर सकते हैं। कुछ किसानों ने उन खेतों में आलू भी बोया है। आलू फरवरी में निकल जाएगा तो वे फिर से मखाने की खेती कर सकते हैं। आलू के भाव का भी हाल बुरा ही है। ऐसे में उनके पास मखाना लगाने के अलावा और कोई चारा नहीं रह जाएगा। जहां तक मेरी बात है तो मैंने भी पिछले दो साल से ही इसकी खेती उन खेतों में शुरू की है जिनमें जल जमाव होता था। उनमें धान को छोड़ कर और कोई फसल नहीं होती है। इससे बेहतर है कि मखाना ही लगाया जाए। ये निश्चित है कि पिछले साल के मुकाबले इस बार बुवाई में काफी कमी आएगी।”