यह बजट कोविड-19 से उत्पन्न अभूतपूर्व परिस्थितियों में पेश किया गया है। इस वायरस ने पूरे समाज और अर्थव्यवस्था को संकट में डाल दिया। वर्ल्ड इनइक्वलिटी लैब की रिपोर्ट बताती है कि कोराना काल में गैर-बराबरी बढ़ी है। इसी रिपोर्ट के अनुसार, 1980 से 2019 के बीच दुनिया के 10 सबसे धनी लोगों की कमाई 30 फीसदी से बढ़कर 56 फीसदी तक पहुंच गई है। भारत में कोविड-19 संकट के दौरान 11 सबसे धनी लोगों की आमदनी इतनी ज्यादा बढ़ी कि वे देश के सारे जरूरतमंद लोगों के टीकाकरण का खर्च उठा सकते हैं। दूसरी तरफ संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों की आमदनी कोराना काल में 12 फीसदी घटी है।
ऑक्सफैम के एक सर्वे से पता चला है कि इस संकट की मार महिलाओं पर ज्यादा पड़ी है, क्योंकि उनकी बेरोजगारी दर 15 फीसदी है। करोड़ों कामगार अपने परिवार समेत ग्रामीण इलाकों में पलायन करने को मजबूर हुए जहां उनके लिए नौकरियां और स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सुविधाएं नहीं थी। इनमें से ज्यादातर लोगों की ग्राम पंचायत की राजनीति में कोई भूमिका नहीं थी इसलिए उन्हें मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं का पूरा लाभ भी नहीं मिल पाया। गन्ना किसानों को चीनों मिलों से भुगतान नहीं मिल रहा है। प्रत्यक्ष बेरोजगारी, अल्प बेरोजगारी और छिपी बेरोजगारी बढ़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजीगत निवेश भी लड़खड़ा गया है। ऐसी परिस्थितियों में उम्मीद की जा रही थी कि वर्ष 2021-22 का बजट स्थानीय स्तर पर शासन में सुधार के लिए पर्याप्त धन और उपाय मुहैया कराकर इन चुनौतियों से निपटने का प्रयास करेगा।
अब इस बार पेश हुए बजट को ग्रामीण विकास के नजरिये से परखने का प्रयास करते हैं। इसके लिए पिछले बजट (2020-21) के अनुमानों और चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमानों की तुलना वित्त वर्ष 2021-22 के बजट अनुमानों से करने पर कई चीजें स्पष्ट होती है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2020-21 में मनरेगा का संशोधित अनुमान 1,11,500 करोड़ रुपये था, जबकि नये वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में मनरेगा के लिए सिर्फ 73,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है जो गत वर्ष के संशोधित अनुमान से 34 फीसदी कम है। मजदूरों की हालत को देखते हुए कृषि व संबंधित क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसलिए मनरेगा का बजट कम से कम 2020-21 के संशोधित अनुमान के बराबर तो होना ही चाहिए था।
इसी तरह, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम का संशोधित अनुमान वर्ष 20-21 में 42,617 करोड़ रुपये था जो 21-22 के बजट में घटकर 9,200 करोड़ रह गया है। यह भी पहले से अधिक होना चाहिए था। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन का बजट आवंटन 2020-21 के के संशोधित अनुमान से 45 फीसदी बढ़ाया गया है। यह स्वागतयोग्य कदम है। इससे न सिर्फ ग्रामीण स्तर पर महिलाओं और छोटे उद्यमियों को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि वे सामाजिक रूप से संगठित भी होंगे। अनुसूचित जाति-जनजाति के विकास के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों को बजट भी बढ़ा है। लेकिन दिक्कत यह है कि इन कार्यक्रमों के लिए 2020-21 में संशोधित अनुमान तब के बजट अनुमानों से भी कम थे। मलतब, इन कार्यक्रमों के लिए जिनता बजट दिया था, वह भी खर्च नहीं हो पाया।
ग्रामीण विकास से जुड़ी ज्यादातर योजनाएं और कार्यक्रम जमीनी स्तर पर पंचायतों के जरिये लागू किये जा रहे हैं। यहां सवाल ग्राम, विकास खंड और जिला स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं के गर्वनेंस का है। अगर विभिन्न योजनाओं का बजट बढ़ता है लेकिन स्थानीय स्तर पर गर्वनेंस नहीं सुधरता तो इन योजनाओं का लाभ नीचे तक नहीं पहुंचता। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में छह स्तंभों को जिक्र किया है, जिन पर यह बजट आधारित है। इनमें समावेशी विकास और न्यूनतम सरकार व अधिकतम शासन भी शामिल है। लेकिन जमीनी संदर्भ में देखें तो कुछ नहीं किया गया है। मिसाल के तौर पर, जब ग्राम सभा और ग्राम पंचायतों में विभिन्न समितियों जैसे सोशल ऑडिट, वित्त, नियोजन, स्वास्थ्य समितियों की बैठक ही नहीं होती है। ऐसे में कैसे तो सबकी भागीदारी से योजनाएं बनेंगी और कैसे सही तरीके से फंड खर्च किया जाएगा। नियमित बैठकें तो छोड़िये समितियों का गठन तक नहीं हो रहा है। अगर ये समितियां बनती हैं तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं की भागीदारी बढ़ सकती है।
देश में ढ़ाई लाख पंचायत और छह लाख गांव हैं। इनमें 32 लाख निर्वाचित प्रतिनिधि विभिन्न स्तरों पर काम कर रहे हैं। इनमें 14 लाख महिलाएं और 10-12 लाख एससी, एसटी वर्ग से हैं। ऐसी स्थिति में जहां नियम-कायदों का ही पालन नहीं हो रहा है, तो कहां समावेश है और कहां गर्वनेंस। इस बजट में ऐसी पंचायतों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए था जहां ग्राम सभा, ग्राम पंचायत और समितियों की बैठक नियमित रूप से होती है। यह भी कहा गया है कि ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान वार्ड स्तर पर तैयार किया जाएगा, जिसमें वार्ड मेंबर की भागीदारी होगी। लेकिन वार्ड प्लान कहां है? संविधान का अनुच्छेद 243जी कहता है कि पंचायतें आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय समेत संविधान की 11वीं अनुसूची में शामिल 29 विषयों पर प्लान बनाएंगी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि 73वें संविधान संशोधन के लगभग तीन दशक गुजरने के बाद भी यह प्लान कहां है? इसलिए गर्वनेंस के रूप में जमीनी सुधार बजट प्रस्तावों का अहम हिस्सा होना चाहिए था। अन्यथा, लोकल कैसे होगा वोकल?
छह राज्यों हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के एक लाख गांवों को कवर करने वाली स्वमित्व योजना को पूरे देश में लागू करना स्वागतयोग्य कदम है। यह योजना आवासीय संपत्तियों के दस्तावेजी प्रमाण देगी, लोगों के संपत्ति अधिकार में पारदर्शिता सुनिश्चित करेगी, नियोजन और राजस्व संग्रह में मददगार होगी, संपत्ति से जुड़े विवादों के समाधान में सहायक होगी। नक्शों की मदद से बेहतर ग्राम पंचायत डेवलपमेंट प्लान बन सकेंगे और ग्रामीण इलाकों में आबादी क्षेत्र का सीमांकन आधुनिक ड्रोन सर्वे तकनीक का इस्तेमाल होगा। ड्रोन और आधुनिक सर्वे तकनीक के जरिये ग्रामीण आवासीय भूमि की मैपिंग भी हो सकेगी। उम्मीद है कि यह काम पंचायती राज मंत्रालय, राज्यों के पंचायती राज और राजस्व विभाग और सर्वे ऑफ इंडिया के समन्वय में होगा।
हालांकि, जमीन पर इस योजना के क्रियान्वयन में कई चुनौतियां हैं क्योंकि जिन जमीनों पर किसानों ने अतिक्रमण किया है उसे बचाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। जहां कृषि भूमि पर किसी व्यक्ति या परिवार ने कब्जा कर रखा है वहां और भी ज्यादा चुनौतियां हैं। बस्तियों के पास तालाब या जमीन पर गांव वाले अतिक्रमण कर मकान बना लेते हैं, उसे प्रशासन कैसे मुक्त कराएगा? वास्तव में, पंचायतों की ढिलाई के चलते सार्वजनिक भूमि और जल संसाधनों पर कब्जे हो गये है। इसलिए जमीन पर योजनाओं का क्रियान्वयन बहुत मायने रखता है।
(डॉ. महीपाल भारतीय आर्थिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी और कृपा फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। ये लेखक के अपने विचार हैं )