नये बजट से उच्च वर्ग को फायदा, कमजोर और पिछड़ी जातियों की अनदेखी

वित्त वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमानों से तुलना करें तो मनरेगा के लिए 2022-में बजट आवंटन 25 फ़ीसदी घटा दिया गया है। इस कार्यक्रम का सबसे अधिक लाभ ग्रामीण इलाकों के कमजोर वर्ग को मिलता था

वित्त वर्ष 2022-23 के आम बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट पर फोकस किया है। आने वाले दिनों में इससे अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। पिछले साल की तुलना में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह बढ़ने की भी खुशी है। लेकिन इस लेख में जातियों के नजरिए से बजट प्रस्तावों पर विचार किया गया है। इस नजरिए से विश्लेषण के लिए हाल ही जारी तीन रिपोर्ट को आधार बनाया गया है। ये रिपोर्ट हैं- ऑक्सफैम इंटरनेशनल की असमानता रिपोर्ट जो बताती है कि भारत समेत पूरी दुनिया में आर्थिक विषमता बढ़ी है। दूसरी रिपोर्ट है ग्लोबल मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स (जीएमपीआई) यानी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक। तीसरी है ऑल इंडिया डेट एंड इन्वेस्टमेंट सर्वे (एआईडीआईएस) यानी अखिल भारतीय कर्ज एवं निवेश सर्वेक्षण।

गरीबी सूचकांक से पता चलता है कि भारत में हर 6 में से 5 लोग बहुआयामी गरीबी में जीवन बिता रहे हैं। गरीबी का स्तर अनुसूचित जनजाति (50.6%) में सबसे ज्यादा है। उसके बाद अनुसूचित जाति (33.3%) और अन्य पिछड़ा वर्ग (27.2%) है। अन्य वर्गों में गरीबी का स्तर इनसे कम (15.6%) देखा गया। एआईडीआईएस के सर्वेक्षण से पता चलता है कि अन्य वर्गों की तुलना में अनुसूचित जनजाति, जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के पास संपत्ति का अनुपात बहुत कम है। यह रिपोर्ट इस बात को भी रेखांकित करती है कि ये वंचित वर्ग लगातार वंचित बने हुए हैं।

ग्रामीण विकास और गवर्नेंस के लिए बजट में जो प्रस्ताव दिए गए हैं उनको इसी नजरिए से देखते हैं, क्योंकि ग्रामीण विकास के कार्यक्रम ऐसे ही वंचित वर्गों के लिए होते हैं। भारत सरकार का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना यानी मनरेगा। इसके तहत ग्रामीण इलाकों में काम करने के इच्छुक हर परिवार को साल में कम से कम एक सौ दिनों के रोजगार की गारंटी का प्रावधान है। देशभर में पंचायतों के माध्यम से इस कार्यक्रम को लागू किया जाता है। वित्त वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमानों से तुलना करें तो 2022-23 के लिए बजट आवंटन इस मद में 25 फ़ीसदी घटा दिया गया है। इस कार्यक्रम का सबसे अधिक लाभ ग्रामीण इलाकों के कमजोर वर्ग को मिलता था। पीपुल्स ऐक्शन फॉर एंप्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) का आकलन है कि इस समय मनरेगा के तहत जितने जॉब कार्ड एक्टिव हैं, सबको एक सौ दिनों का रोजगार देने के लिए 2.64 करोड़ रुपए की जरूरत होगी। जबकि बजट में 2022-23 के लिए सिर्फ 73000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। यह पीएईजी के आकलन का महज 28 फ़ीसदी है।

तमाम अध्ययन बताते हैं कि इस स्कीम से अनुसूचित जनजाति, जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अन्य वर्गों को न सिर्फ रोजगार सृजन में मदद मिलती है, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर संपत्ति सृजन में भी मदद मिलती है।  इस स्कीम में कम आवंटन का मतलब है कि इस वर्ग के लोगों को कम फायदा मिलेगा। जले पर नमक यह कि सरकार यह मानती है कि इस योजना से भूमिहीनों को संपत्ति सृजन में मदद नहीं मिलती है, जबकि भूमिहीनों में ज्यादातर अनुसूचित जनजाति, जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के ही हैं।

सामाजिक न्याय के लिए इन वर्गों को प्राथमिकता देने की जरूरत है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के पांचवें कॉमन रिव्यू मिशन 2019 में भी सुझाव दिया गया है कि भूमिहीन लोगों के संपत्ति सृजन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मिशन ने लोगों को मिलने वाले वेतन की समीक्षा का अध्ययन करने और इसका कारण पता लगाने का भी सुझाव दिया था कि हर परिवार को साल में 100 दिनों से कम रोजगार क्यों मिल रहा है। इन वर्गों में गरीबी के स्तर को देखते हुए बजट में मनरेगा के तहत काफी अधिक राशि आवंटित की जानी चाहिए थी।

मनरेगा एक वेतन-रोजगार कार्यक्रम है। एक और कार्यक्रम है राष्ट्रीय आजीविका मिशन। इसके तहत स्थानीय स्तर पर स्वयं सहायता समूह गठित किए जाते हैं और माइक्रो यानी छोटे स्तर के उद्यम स्थापित किए जाते हैं। इसके लिए 2022-23 के बजट में आवंटन चालू वित्त वर्ष की तुलना में 2.5% घटा दिया गया है। यही नहीं, 2021-22 का संशोधित आवंटन मूल बजट में किए गए आवंटन की तुलना में 14 फ़ीसदी घटा दिया गया है। यह बताता है कि जहां समाज के कमजोर वर्ग की महिलाएं स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं, वहां स्वरोजगार कार्यक्रम को लागू करने में आने वाली दिक्कतों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन (एसपीएमआरएम) एक यूनिक कार्यक्रम है जिसे ग्रामीण इलाकों में विकास को गति देने के लिए तैयार किया गया है। इसके तहत पूरे देश में 300 रुर्बन क्लस्टर विकसित किए जा रहे हैं। ये क्लस्टर समग्र विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन इस मिशन के लिए भी अगले साल के बजट में 8.33 प्रतिशत की कटौती की गई है। यह कटौती 2021-22 के बजट आवंटन की तुलना में है। मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमानों से तुलना करें तो कटौती 37.5% हो जाती है। इससे पता चलता है कि इस कार्यक्रम को जमीन पर उचित तरीके से लागू नहीं किया गया है। यह मिशन के तहत चुने गए क्लस्टर के समग्र विकास पर एक तरह से चोट है। बजट आवंटन का पूरा इस्तेमाल ना होने का एक कारण अपर्याप्त प्लानिंग है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अपेक्षित नतीजे हासिल करने के लिए इन कार्यक्रमों की प्रक्रिया को मजबूत करने की जरूरत है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय केंद्र सरकार की तरफ से प्रायोजित एक स्कीम चलाता है जिसका नाम है मैनेजमेंट सपोर्ट टू रूरल डेवलपमेंट प्रोग्राम एंड स्ट्रैंथनिंग ऑफ डिस्ट्रिक्ट प्लैनिंग प्रोसेस यानी ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को मैनेजमेंट समर्थन तथा जिला आयोजना प्रक्रिया को मजबूत बनाना। इसके तहत 2022-23 के बजट में आवंटन मौजूदा वित्त वर्ष की तुलना में 42 फ़ीसदी घटा दिया गया है। यही नहीं, चालू वित्त वर्ष के आवंटन में भी बजट अनुमानों की तुलना में संशोधित अनुमान में 52% की कटौती की गई है। होना तो यह चाहिए था कि 2022-23 के बजट आवंटन में इस पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया है।

अब पंचायती राज मंत्रालय के प्रस्तावों पर गौर करते हैं। यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि ग्रामीण विकास के लगभग सभी स्कीम/कार्यक्रमों के लिए फंड ग्रामीण विकास मंत्रालय उपलब्ध कराता है। पंचायत उन फंडों का इस्तेमाल करके विभिन्न कार्यक्रम चलाती हैं। इसलिए इस मामले में पंचायत स्तर पर गवर्नेंस का मुद्दा महत्वपूर्ण हो जाता है। देश में ढाई लाख के करीब पंचायतें हैं जिनमें 30 लाख से अधिक प्रतिनिधि सदस्य अथवा अध्यक्ष के तौर पर काम कर रहे हैं।

इनमें ज्यादातर अनुसूचित जनजाति, जाति और महिलाएं हैं। पंचायती राज मंत्रालय के लिए 2022-23 में बजट आवंटन 868.57 करोड़ रुपए किया गया है। यह 2021-22 के आवंटन की तुलना में 5 फ़ीसदी कम है। 2021-22 का संशोधित आवंटन भी बजट आवंटन की तुलना में 5 फ़ीसदी कम है। यह दिखाता है कि पंचायती राज मंत्रालय के लिए कामकाज बस सामान्य रूप से जारी रखा गया है। लोगों की भागीदारी के लिए पंचायतों का सशक्तीकरण फोकस में कहीं नहीं है।

वित्त मंत्री ने शहरी क्षेत्र की नीतियां बनाने की सिफारिश करने, क्षमता निर्माण, योजनाओं पर अमल और गवर्नेंस के लिए कई उपायों की घोषणा की है। इनमें अर्बन प्लानर, शहरी अर्थशास्त्री और संस्थानों के विशेषज्ञ को मिलाकर उच्च स्तरीय समिति बनाना भी शामिल है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के लिए प्लानिंग या गवर्नेंस का मुद्दा बजट में कहीं भी नहीं है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि देश के अधिकांश लोग अब भी ग्रामीण इलाकों में ही रहते हैं। ऐसा लगता है कि जाति के अलावा शहरी और ग्रामीण के बीच भी यहां भेद किया गया है।

पंचायती राज मंत्री ने 20 जनवरी 2022 को रूरल एरिया डेवलपमेंट प्लान फॉर्मूलेशन एंड इंप्लीमेंटेशन (आरएडीपीएफआई) के दिशानिर्देश जारी किए थे। इन दिशानिर्देशों पर प्रभावी तरीके से क्रियान्वयन हो, इसके लिए बजट में पर्याप्त फंड उपलब्ध कराने की आवश्यकता थी। मोटे तौर पर देखा जाए तो ये दिशानिर्देश ग्राम पंचायतों का मास्टर प्लान बनाने के लिए हैं। वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में सहकारी संघवाद (कोऑपरेटिव फेडरेलिज्म) शब्दों का इस्तेमाल तीन बार किया है, लेकिन उन्होंने पंचायती राज संस्थान शब्दों का इस्तेमाल एक बार भी नहीं किया। जबकि यह संवैधानिक निकाय होने के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में स्थानीय सरकार की तरह है। ऐसा लगता है कि सहकारी संघवाद राज्यों से आगे नहीं बढ़ पाया है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि बजट प्रस्ताव उच्च वर्ग को फायदा पहुंचाने के मकसद से तैयार किए गए हैं। इन प्रस्तावों से वंचित वर्ग तो और वंचित हो जाएगा।