किसान केंद्रित शोध को देंगे प्राथमिकताः डॉ. मांगी लाल जाट

आईसीएआर के नए डीजी और DARE सचिव डॉ. मांगीलाल जाट का कहना है कि शोध के तरीके में बदलाव कर किसानों की जरूरत को अपने शोध का आधार बनाया जाएगा। कृषि शोध के लिए काम करने वाले सभी संस्थान और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों के कामकाज की प्रणाली में भी बदलाव होने जा रहा है। कृषि विज्ञान केंद्रों की भूमिका को भी नये सिरे से परिभाषित किया जाएगा ताकि एग्रीकल्चर एक्सटेंशन में उनकी भूमिका अधिक प्रभावी बन सके।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) अपने शोध के तरीके में बदलाव कर किसानों की जरूरत को अपने शोध का आधार बनाने जा रही है। इसके साथ ही कृषि शोध के लिए काम करने वाले सभी संस्थान और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों की कामकाज की प्रणाली में भी बदलाव होने जा रहा है वहीं कृषि विज्ञान केंद्रों की भूमिका को भी नये सिरे से परिभाषित किया जाएगा ताकि एग्रीकल्चर एक्सटेंशन में उनकी भूमिका अधिक प्रभावी बन सके। एक तरह से वन आईसीएआर की धारणा को आगे बढ़ाया जाएगा। साथ ही शोध और कार्यप्रणाली के केंद्र में समग्र एग्री फूड सिस्टम एप्रोच पर जोर दिया जाएगा।  भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के नए महानिदेशक और सचिव डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर एजुकेशन (डेयर) के सचिव डॉ. मांगी लाल जाट ने देश के कृषि क्षेत्र, शोध और नीतिगत मसलों पर रूरल वर्ल्ड के एडिटर-इन-चीफ हरवीर सिंह के साथ एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में यह बातें कहीं। पेश है डॉ. जाट के साथ इस इंटरव्यू के मुख्य अंशः

कृषि देश की अर्थव्यवस्था के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है। ग्रामीण परिवेश से आने के साथ ही आप कृषि शोध क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संस्थानों में लंबा अनुभव रखते हैं। अब आपको दुनिया के सबसे बड़े कृषि रिसर्च सिस्टम में शुमार होने वाली संस्था आईसीएआर और भारत सरकार के सचिव डेयर की जिम्मेदारी मिली है। आईसीएआईर और कृषि शोध को लेकर आपका क्या विजन क्या है?
कृषि हमारे देश की रीढ़ है। 2047 तक विकसित भारत का सपना बिना विकसित कृषि के साकार नहीं हो सकता। कृषि में अनेक विविधताएं हैं- जमीन की, पानी की, जलवायु की, किसान की। हमें कृषि में शोध और इनोवेशन उसी हिसाब से करने पड़ेंगे। जरूरी नहीं कि एक शोध या इनोवेशन हर जगह काम कर जाए। इसलिए कहा जाता है कि कृषि में सही या गलत कुछ नहीं होता। इसका मंत्र है- मांग के मुताबिक और प्रासंगिक शोध।
एक समय हमारे पास खाना नहीं था। इसलिए हरित क्रांति में हमारा फोकस था उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाना। उस समय जो रिसर्च डिजाइन हुईं, उनमें उत्पादन पर फोकस था। लेकिन आज की स्थिति अलग है। आज प्रोडक्शन समस्या नहीं, बल्कि ओवर-प्रोडक्शन समस्या है। सरकार के सामने भी समस्या रहती है कि कैसे उसको डिस्पोज करें। किसान को भी औने-पौने दाम पर फसलें बेचनी पड़ती है। हमें इस पर ध्यान देना पड़ेगा। पिछले दिनों एक मीटिंग में इस बात पर चर्चा हुई कि धान ज्यादा पैदा करके उसे बेचने की समस्या है, दूसरी तरफ दलहन और तिलहन हमें आयात करना पड़ रहा है। हम उस दिशा में क्यों जाए?
हमें रिसर्च या टेक्नोलॉजी टार्गेटिंग की जरूरत है। टार्गेटिंग का मतलब है कि कौन सी चीज कहां जाए जिससे किसान के लिए इकोनॉमिक सेंस बने। वह आर्थिक रूप से कम खर्चीला हो और पर्यावरण के लिए सस्टेनेबल भी। ऐसा न हो कि धान पैदा करने के लिए 10 साल पानी निकाला और फिर पानी खत्म। हमें शोध की परिस्थिति के हिसाब से डिजाइनिंग करनी पड़ेगी।
परिस्थितियां काफी बदली हैं। इसे हम मेगा ट्रेंड्स बोलते हैं- जलवायु परिवर्तन, भूमि का क्षरण, जैव-विविधता का नुकसान। इन चुनौतियों के समाधान के लिए हमें रिसर्च डिजाइनिंग थोड़ी बदलनी पड़ेगी। लेकिन हम रह गए उत्पादन में, जबकि कृषि उत्पादन अपने आप में समग्र नहीं है। कृषि उत्पादन से पहले और उसके बाद को भी जोड़ना होगा। इसके लिए आजकल समग्र एग्री फूड सिस्टम एप्रोच की बात की जाने लगी है। जब तक एग्री फूड सिस्टम नहीं लाएंगे, तब तक किसान का मार्केट लिंकेज नहीं होगा, टेक्नोलॉजी टार्गेटिंग नहीं होगी, उसके बिजनेस मॉडल नहीं होंगे।

रिसर्च सिस्टम में किस तरह के बदलाव की जरूरत है?
जब उत्पादन पर फोकस था, तब हमारे वैज्ञानिक उसी स्किल के थे। अब हमें समग्र एग्री फूड सिस्टम डिजाइन करना है, तो इनके लिए थोड़ी अलग स्किल की जरूरत है। अर्थात हमें सिस्टम में नई स्किल लाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए एफपीओ की बात करते हैं। केवीके में एफपीओ की ट्रेनिंग दे सकते हैं, लेकिन उसका बिजनेस प्लान बनने वाला तो एक्सपर्ट ही चाहिए। ये सब नई चीजें लाने की बात है।

आपके कहने का मतलब है कि एग्रो इकोनॉमी, रिसर्च, हमारे प्राकृतिक संसाधन और जलवायु परिवर्तन यह सब एक कंप्लीट पैकेज के रूप में आना चाहिए।
बिल्कुल। यह कमोडिटी केंद्रित न हो क्योंकि इसमें समस्या है। मान लीजिए धान की कोई वैरायटी 150 दिन की है, उसे आपने 155 दिन रहने दिया। उससे धान का उत्पादन तो आपने आधा टन बढ़ा लिया, लेकिन ऐसा तो नहीं कि उससे अगली फसल में जो देरी हुई, उसमें एक टन का नुकसान तो नहीं कर रहे? हमें देखना होगा कि कौन सी चीज कहां फिट होती है। मान लीजिए किसान के पास 70 दिन की अपॉर्चुनिटी है। तो 70 दिन के विंडो में क्या फिट कर सकते हैं? 70 दिन वाले विंडो में आप 100 दिन वाली फसल ले आएंगे तो वह फिट नहीं होगा। इसलिए हमें रीडिजाइनिंग पर जाना पड़ेगा।

कृषि शोध, शिक्षा और एक्सटेंशन में आईसीएआर कैसे काम कर रहा है?
ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत का एग्रीकल्चर रिसर्च, एजुकेशन एंड एक्सटेंशन सिस्टम बहुत विकसित है, ऊपर से लेकर नीचे तक। लेकिन जैसे-जैसे हम थोड़े आत्मनिर्भर होते जाते हैं तो साइलो में काम करने लगते हैं। हम इसे अफोर्ड नहीं कर सकते। हमें हर इंस्टीट्यूट में, हर जगह, हर तरह की विशेषज्ञता न तो चाहिए, न हम उसे अफोर्ड कर सकते हैं। मान लीजिए आपके पास कोई खास विशेषज्ञता वाला व्यक्ति है और पड़ोस के संस्थान में दूसरी विशेषज्ञता वाला व्यक्ति। दोनों एक-दूसरे के यहां काम कर दें तो उनका पूरा इस्तेमाल हो जाएगा। पूरे सिस्टम की विशेषज्ञता को हमें एक जगह लाना पड़ेगा।
कृषि स्टेट सब्जेक्ट है। वहां के कृषि विश्वविद्यालयों में कोऑर्डिनेटेड प्रोग्राम चल रहे हैं। फसलों की किस्में राज्यों में विकसित होती हैं। रिकमेंडेशन राज्यों को जाती हैं। राज्य उन पर अमल करते हैं। हमें राज्य कृषि विश्वविद्यालयों को करीब लाने की जरूरत है। केवीके अलग-अलग बॉडी के अधीन काम कर रहे हैं। कोई स्टेट एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के अधीन, कोई एनजीओ के अधीन तो कोई आईसीएआर के अधीन। राज्यों के एक्सटेंशन विभाग भी आइसोलेशन में काम कर रहे हैं।
हम चाहते हैं कि नीचे से लेकर ऊपर तक का सिस्टम कड़ी-बद्ध जुड़ा हो। सूचना एकतरफा न जाए, वह दो-तरफा हो ताकि जमीनी स्तर की डिमांड रिसर्च में इंटीग्रेट हो और रिसर्च भी एक्सटेंशन के जरिए किसान तक पहुंचे। इसके लिए हमें एक मजबूत नेशनल एग्रीकल्चर रिसर्च एक्सटेंशन एजुकेशन सिस्टम तैयार करना पड़ेगा।

रिसर्च में दो चीजें आती हैं- साइंस और उसका इकोनॉमिक्स। रिसर्च आम तौर पर संस्थानों के आदर्श फार्म में होती हैं। लेकिन जब वह रिसर्च व्यावहारिक रूप से किसानों के खेत तक जाती है, तो वहां इकोनॉमिक्स अलग होता है। उसको कैसे पारदर्शी बनाया जाए?
इसका एक सिस्टम है। पहले टेक्नोलॉजी डेवलप होती है, फिर मल्टी लोकेशन टेस्टिंग होती है, उसके बाद वह एडाप्टिव ट्रायल्स में जाता है। एडाप्टिव ट्रायल किसानों के यहां भी होती है। वैसे, आप देखें तो एक खेत से दूसरे खेत में थोड़ा बहुत अंतर आता ही है। मिट्टी अलग होती है, मैनेजमेंट में अंतर होता है। मान लीजिए दो भाइयों की जमीन अगल-बगल है। दोनों को एक ही वैरायटी दे दी जाए, तो भी उनकी पैदावार में फर्क आएगा। यह मैनेजमेंट में अंतर के कारण होता है।
इसीलिए हमें आज जितनी जरूरत बायोफिजिकल रिसर्च की है - वैरायटी, वाटर मैनेजमेंट, न्यूट्रिएंट मैनेजमेंट - उतनी ही जरूरत सामाजिक-आर्थिक रिसर्च की है। हम कहते हैं कि किसान रिसर्च को अपना रहा है या नहीं अपना रहा है। लेकिन वह क्यों अपना रहा है और क्यों नहीं अपना रहा है? उसका जवाब भी तो देना पड़ेगा। इसके लिए व्यवहार और विज्ञान को गहराई से समझना पड़ेगा। यह व्यवहार की समस्या है। कृषि में बहुत सारी चीजें सीधी-सपाट नहीं होती हैं।

इसके लिए क्या आईसीएआर सिस्टम में सोशियोलॉजी, ह्यूमैनिटीज या लिबरल साइंस जैसे विषयों पर फोकस बढ़ाया जाएगा?
बिल्कुल बढ़ाएंगे। लेकिन यह रातों-रात नहीं होगा। सोशल साइंस को मजबूत करने पर हमारा फोकस है। बायोफिजिकल साइंटिस्ट जो करते हैं, उसका दायरा बहुत बड़ा होता है। उसमें बाकी चीजें भी आती हैं। अभी हम टेक्नोलॉजी को अपनाने की बात कर रहे थे। हमने देखा कि औसत उत्पादकता और किसान के खेत में उत्पादकता में बहुत अंतर है। इसका मतलब है कि हमारे पास टेक्नोलॉजी तो है, लेकिन उसको अपनाने में दिक्कतें हैं। वे दिक्कतें क्या हैं। हमें उत्पादकता गैप के कारणों का पता लगाना पड़ेगा। उन कारणों में 50% से ज्यादा तो नॉलेज गैप है। इसका मतलब है कि नॉलेज पहुंचाना है। कृषि विज्ञान केंद्र नॉलेज गैप को दूर करने का माध्यम हैं।

नई टेक्नोलॉजी में एक जीएम टेक्नोलॉजी भी है। जीएम की हमारे पास काफी रिसर्च हैं। आईसीएआर सिस्टम में भी और प्राइवेट सेक्टर में भी। इसे किस तरीके से आगे बढ़ाया जाएगा?
हमारा फोकस विज्ञान आधारित कृषि बदलाव पर है। साइंस के बिना आगे नहीं बढ़ सकते। आगे की चुनौतियों का समाधान करने के लिए नए विज्ञान की जरूरत है। कुछ खास टेक्नोलॉजी हैं, उनकी एक प्रक्रिया है, सरकार का रेगुलेटरी मेकैनिज्म है। खास तौर से आप जिस जीएम टेक्नोलॉजी की बात कर रहे हैं, तो वह मामला अभी कोर्ट में है। मैं उस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि विज्ञान को आगे रखा जाना चाहिए। विज्ञान की अगुवाई में ही बदलाव पर फोकस होना चाहिए।

इन दिनों इंटरनेट ऑफ थिंग्स पर फोकस बढ़ रहा है। कृषि में भी। कहा जा रहा है कि इससे क्रांति आएगी, बड़ा बदलाव होगा। आईसीएआर में भी इस पर कई प्रोजेक्ट हैं। इसे आप किस तरह से देख रहे हैं?
देखिए, हमें टेक्नोलॉजी में प्रगति के साथ चलना होगा, नहीं तो पीछे रह जाएंगे। लेकिन यह सिर्फ फैंसी वर्ड नहीं होना चाहिए। उस टेक्नोलॉजी का धरातल पर भी इस्तेमाल हो। अभी हम एआई या आईओटी की जो बात कर रहे हैं, उसके पीछे डाटा है। जब तक क्वालिटी डाटा, ऑर्गेनाइज्ड डाटा और इंटर ऑपरेबल डाटा दुरुस्त नहीं होगा तब तक खास सफलता नहीं मिलेगी। एआई उसी डाटा पर आधारित होता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में नेचुरल इंटेलिजेंस का समावेश ठीक नहीं होगा। सिर्फ एआई से भी काम नहीं चलेगा। एक बेहतर सम्मिश्रण की जरूरत है। उसके लिए हमें एक मजबूत डाटा इकोसिस्टम डेवलप करना है।
हमारे पास पचासों साल का डाटा है। अभी मिनिस्ट्री डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर बना रही है। हर खेत को जोड़ना, उसकी मैपिंग करना। कृषि ऐसा सेक्टर है जिसमें डाटा 7-8 मंत्रालयों पर निर्भर करता है। अगर हमें फर्टिलाइजर या पानी का डाटा नहीं मिलेगा तो इसे कैसे कर सकते हैं? जब वह सारा डाटा इकोसिस्टम डेवलप होगा तभी दुरुस्त एआई बनेगा। छोटे काम भले ही हो जाएं, लेकिन आप जिस बड़ी तस्वीर की बात करते हैं उसके लिए क्वालिटी डाटा चाहिए।

एक्सटेंशन बहुत महत्वपूर्ण पहलू है, लेकिन माना जाता है कि हमारा एक्सटेंशन बेहतर स्थिति में नहीं है।  आपने यील्ड गैप या व्यवहार की बात कही, उसमें भी एक्सटेंशन का इस्तेमाल हो सकता है। इसको आप किस तरह देखते हैं?
एक्सटेंशन बहुत जरूरी है। पुराने एक्सटेंशन सिस्टम को देखें से तुलना करें अब का एक्सटेंशन का काम बहुत कठिन हो गया है। अब डिजिटल एक्सटेंशन की बात होती है, उसके लिए स्किल चाहिए। स्किल नहीं होगी तो व्यक्ति डिलीवर नहीं कर पाएगा। इसलिए हम साइंस ऑफ डिलीवरी की बात करते हैं। हमें साइंस ऑफ डिस्कवरी को साइंस ऑफ डिलीवरी से जोड़ना पड़ेगा। दोनों अलग काम करेंगे तो समस्या होगी।
एक्सटेंशन सिर्फ एक्सटेंशन नहीं है। यह एक विज्ञान है। यह साइंस ऑफ डिलीवरी है और इसके लिए बहुत सारी चीजें चाहिए। जैसे टेक्नोलॉजी आधारित बिजनेस मॉडल, वह कैसे काम करेगा। अगर टेक्नोलॉजी से बिजनेस बढ़ता है तो डिलीवरी होगी, अगर बिजनेस नहीं बढ़ा तो डिलीवरी नहीं होगी। हम 70 साल से एक लीनियर एक्सटेंशन सिस्टम पर चल रहे हैं। हमें लीनियर और नॉन लीनियर एक्सटेंशन सिस्टम का मिश्रण चाहिए। इसलिए एक्सटेंशन में एक नया इकोसिस्टम डेवलप हो रहा है। प्राइवेट सेक्टर का भी एक एक्सटेंशन नेटवर्क है। हम यह सोच रहे हैं कि वह सरकारी और निजी दोनों एक्सटेंशन सिस्टम में कन्वर्जेंस लाना पड़ेगा। अगर दोनों अलग दिशा में चलेंगे तो किसानों को नुकसान होगा। इस कन्वर्जेंस के लिए हम लोग जुटे हुए हैं।

कृषि निर्यात में हम 50 अरब डॉलर तक पहुंच गए हैं। निर्यातोन्मुखी उत्पाद, उनकी क्वालिटी, उनके स्टैंडर्ड को लेकर आईसीएआर का क्या फोकस रहेगा?
हमारा निर्यात क्वालिटी के कारण ही हो रहा है। चाहे बासमती लें या दूसरी फसलें। लेकिन हमें यह भी देखना पड़ेगा कि देश क्या निर्यात करना अफोर्ड कर सकता है और क्या नहीं। जैसे, हम कम पानी वाले इलाके में धान पैदा करके निर्यात करें और बाद में दलहन और तिलहन आयात करें, तो वह ठीक नहीं होगा। हम उस पर भी काम कर रहे हैं। हमें सस्टेनेबिलिटी को ध्यान में रखना होगा। भारत और भारत का किसान, जो चीजें इनकी मदद करेंगी हम उसी दिशा में काम करेंगे।

युवाओं को कृषि में वापस लाना है। इसमें फार्म मैकेनाइजेशन की क्या भूमिका हो सकती है?
हम हमेशा एफिशिएंसी की बात करते हैं, पानी की एफिशिएंसी, न्यूट्रिएंट की एफिशिएंसी, अन्य चीजों की एफिशिएंसी। लेकिन हम टाइम एफिशिएंसी को भूल जाते हैं। खेती में यह सबसे महत्वपूर्ण है। खासकर ऐसे समय में जब हम जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितता का सामना कर रहे हैं। बिना मैकेनाइजेशन के हम टाइम एफिशिएंसी को सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं।