किसान आंदोलन के छह माह, किसान और सरकार अपने रुख पर कायम लेकिन दोनों चाहते हैं खत्म हो आंदोलन

तीन कृषि कानूनों के मुद्दे पर संवाद को फिर से शुरू करने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर वार्ता शुरू करने की मांग की है। इसके साथ ही आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनती तो वह आने वाले दिनों में आंदोलन को तेज करेंगे। वैसे सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ दिनों से सरकारी एजेंसियां बातचीत का नया दौर शुरू करने के लिए संभावनाएं भी तलाश रही हैं।

केंद्र सरकार द्वारा पांच जून, 2020 को अध्यादेशों के जरिये लागू किये गये तीन नये कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को आज यानी 26 मई को छह माह पूरे हो गये हैं। संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के छह माह पूरे होने पर किसान संगठन 26 मई को काला दिवस के रूप में मना रहे हैं और इसके लिए वह किसानों की मांगों के प्रति केंद्र सरकार के उदासीन रुख को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।  इन कानूनों के खिलाफ आंदोलन केवल छह माह पुराना नहीं है बल्कि कानूनों  के अस्तित्व में आने के साथ ही इनका विरोध शुरू हो गया था। आंदोलन अगस्त सितंबर में तेज हो गया था, दिल्ली आने के पहले पंजाब में करीब तीन माह तक धरने हुए और 25 सितंबर को भारत बंद किया गया। किसानों के आंदोलन ने इस दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे और कई बार यह सिमटता भी दिखा, लेकिन 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली की सीमाओं पर जारी 26 मई तक यह आंदोलन अभी भी असरकारक है। कोरोना महामारी की दूसरी भीषण लहर के बावजूद आंदोलनकारी किसान अपनी मांगों पर अडिग हैं जो यह संकेत देता है कि उनकी आंदोलन को जारी रखने की रणनीति कामयाब हो रही है। दूसरी ओर सरकार ने इस मुद्दे पर 22 जनवरी, 2021 की आखिरी वार्ता के बाद से लगभग चुप्पी साध रखी है। ऐसे में कौन पहले पलक झपकेगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल बना हुआ है। हालांकि संवाद को फिर से शुरू करने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर वार्ता शुरू करने की मांग भी की है। इसके साथ ही आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनती तो वह आने वाले दिनों में आंदोलन को तेज करेंगे। वैसे सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ दिनों से सरकारी एजेंसियां बातचीत का नया दौर शुरू करने के लिए संभावनाएं भी तलाश रही हैं।

अगर हम आंदोलन के इस परे दौर को देखें तो अब उसका चौथा चरण शुरू हो रहा है। पहले चरण में किसान संगठनों ने राज्यों में कानूनों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर आंदोलन चलाया जिसमें 24 सितंबर का भारत बंद भी शामिल है। दूसरे चरण में किसानों ने 26 नवंबर, 2020 से दिल्ली चलो की बात कही और वह दिल्ली में तो नहीं लेकिन दिल्ली के बार्डरों सिंघू, टीकरी, गाजीपुर, पलवल और शाहजहांपुर में आंदोलन चला रहे हैं। आंदोलन का तीसरा चरण 28 जनवरी, 2021 से शुरू होता है। इसके दो दिन पर 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च और लाल किला की घटना हुई जिसने आंदोलन को लगभग तोड़ दिया था और उसने बड़े पैमाने पर लोगों के भावनात्मक समर्थन को खो दिया था। लेकिन 28 जनवरी की शाम को गाजीपुर बार्डर पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की गिरफ्तारी का दबाव और आंदोलन को पुलिस व प्रशासन द्वारा जबरदस्ती खत्म करने की असफल कोशिश ने आंदोलन को नया जीवनदान दे दिया। इसके बाद एक बार फिर आंदोलन मजूबत हो गया और साथ ही आंदोलन का नेतृत्व कर रहे किसान नेताओं में राकेश टिकैत का कद बढ़ गया। उसके बाद से आंदोलन अपनी चाल और स्वभाव के अनुरूप चलता रहा। किसान संगठन एकजुट रहे और हैं।

अब माना जा सकता है कि किसान आंदोलन 26 मई से चौथे चरण में प्रवेश कर रहा है। इसकी एक वजह यह है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर कमजोर हो रही है जिसके बाद किसानों के दिल्ली मोर्चों पर लौटने की संभावना बन जाएगी। दूसरे रबी फसलों की कटाई के बाद किसानों के पास अब समय है कि वह वापस मोर्चों पर आ सकें। वहीं एक और अहम पक्ष यह है कि सरकार ने किसान आंदोलन के दबाव में रबी फसलों की भारी खरीदारी की है। पंजाब में चालू रबी सीजन (2021-22) में 22 मई तक 132.10 लाख टन की रिकार्ड गेहां खरीद हुई है। वहीं  हरियाणा में इसी समय तक 84.93 लाख टन की रिकार्ड गेहूं खरीदारी हुई है। अगर हम इसकी 1975 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गणना करें तो दोनों राज्यों के गेहूं किसानों की जेब में 42862 करोड़ रुपये से अधिक गये हैं।  इन राज्यो में आंदोलन के प्रति किसानों के समर्पण को देखते हुए संसाधनों की किल्लत नहीं होने वाली है। इसमें एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह है कि हरियाणा सरकार ने इस बीच परोक्ष रूप से आंदोलन को संजीवनी देने का काम किया। हरियाणा में किसानों का रुख काफी आक्रामक होने के बावजूद मुख्यमंत्री  मनोहर लाल खट्टर और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने कार्यक्रमों जाने का फैसला किया। नतीजा किसानों को इनके विरोध का मौका मिला। 16 मई को हिसार में मुख्यमंत्री का विरोध हुआ और वहां पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया साथ ही बड़ी संख्या में किसानों के खिलाफ केस दर्ज हुए। लेकिन 24 मई को हिसार में किसानों के भारी विरोध प्रदर्शन ने सरकार को कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया और सरकार और किसान नेताओं के बीच  किसानों के खिलाफ दर्ज केस वापस लेने पर सहमति बनी। यह घटना किसानों को एकजुट करने का कारक बनी और किसान नेताओं को यह भरोसा दे गई कि जरूरत पड़ने पर किसानों को मोर्चों पर लाया जा सकता है।

इसलिए आंदोलन का चौथा चरण सरकार पर दबाव बनाने के लिए विरोध को तेज करने वाला साबित हो सकता है। रुरल वॉयस के साथ बातचीत में संयुक्त किसान मोर्चा की नई बनी कमेटी के एक सदस्य कहते हैं कि हम मानकर चल रहे हैं कि आंदोलन लंबा चलेगा लेकिन इसके साथ ही हम चाहते हैं कि सरकार हमारी मांगें मान ले और आंदोलन समाप्त हो जाए। हमने प्रधानमंत्री को जो चिट्ठी लिखी है वह हल ढूंढ़ने की नई शुरुआत करने के मकसद से ही लिखी है। हालांकि संयुक्त किसान मोर्चा का एक पक्ष इस पत्र के पक्ष में नहीं था लेकिन कमेटी के सदस्य उनको समझा पाये की वार्ता ही मांगों को मंगवाने का उपाय है। रुरल वॉयस को आंदोलनरत किसानों से यह संकेत भी मिले हैं कि कुछ मसलों पर सरकार को मोलभाव करने का मौका मिल सकता है बशर्ते वह आंदोलनकारी किसानों की मुख्य मांगों के बड़े हिस्से पर सहमत हो जाए। पंजाब में आंदोलन किसानों के बीच अपनी पकड़ बनाये हुए है। वहीं हरियाणा में जिस तरह से किसान सरकार का विरोध कर रहे हैं उससे साफ है कि यहां तीन केंद्रीय कृषि कानूनों का विरोध जड़ें जमा चुका है। उत्तर प्रदेश में हाल के पंचायत चुनावों में भाजपा को काफी नुकसान हुआ और खासतौर से आंदोलन के ज्यादा असर वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी को भारी राजनीतिक नुकसान हुआ। वहीं साल भर से कम समय में उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव होने हैं। राजनीतिक रूप से उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। पश्चिम बंगाल में पूरी कोशिशों और संसाधनों को झौंकने के बावजूद भाजपा की बड़ी हार भी उसे उत्तर प्रदेश को सबसे अधिक गंभीरता से लेने के लिए मजबूर कर रही है। वहीं कोरोना महामारी की दूसरी लहर में बड़ी संख्या में मौतों और संक्रमण के रिकार्ड स्तर पर पहुंचने के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं और सरकार के प्रशासकीय प्रबंधन कौशल पर सवाल खड़े हुए हैं। इस स्थिति में उसे राजनीतिक नुकसान की आशंका सता रही है। यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पदाधिकारियों द्वारा इस मुद्दे पर मंथन की खबरें भी चर्चा में हैं।

यही वह पक्ष है जो किसान आंदोलन के रणनीतिकारों की उम्मीदों को बढ़ा रहा है। किसान संगठनों के सूत्रों की मानें तो आंदोलन को अब उत्तर प्रदेश में तेज करने पर काम होगा। अगर कोरोना महामारी की स्थिति सुधरती है तो जून से उत्तर प्रदेश में आंदोलन की गतिविधियां बढ़ सकती हैं जो राजनीतिक दबाव में सरकार को समझौते की मेज पर लाने की रणनीति का हिस्सा है।

वहीं केंद्र सरकार इस मुद्दे पर भले ही सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कर रही हो लेकिन आंदोलन के लंबा खिंचने की चिंता उसे है। प्रधानमंत्री को संयुक्त किसान मोर्चा की चिट्ठी के बाद केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का बयान आया है कि कानूनों को वापिस लेने की मांग छोड़कर इस मुद्दे पर किसान संगठन कोई सकारात्मक विकल्प लेकर आएं तो बातचीत हो सकती है। किसान संगठन इस बयान को बहुत महत्व नहीं दे रहे हैं। उनका कहना है कि हमारी मांगे साफ हैं और हम उन पर कायम हैं। दूसरी ओर केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने रुरल वॉयस के साथ बातचीत में कहा कि हम मान रहे हैं कि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कमजोर नहीं हुआ है। साथ ही जिन क्षेत्रों में आंदोलन का असर है वहां किसानों की सरकार से नाराजगी कायम है। लेकिन यह भी सच है कि यह आंदोलन इन क्षेत्रों से बाहर जड़ें नहीं जमा सका है। फिर भी कोई न कोई रास्ता तो निकालना होगा लेकिन इसके लिए किसानों को भी अपना रुख लचीला करना चाहिए।