अनुकूल परिस्थितियों से ही सुगम  होगी सहकार से समृद्धि की राह

अलग से सहकारिता मंत्रालय के गठन के बाद अब मौजूदा सहकारिता कानून में भी व्यापक संशोधन की तत्काल जरूरत है । मौजूदा कानून इस विचार पर आधारित है कि सहकारी संस्थाओं की स्थापना सामाजिक-और आर्थिक उद्देश्योंके लिए की गई है। जबकि सहकारी समितियों का गठन एक उद्यम के रूप में होना चाहिए जो बेहतर कानूनी प्रावधानों के तहत संचालित होता है। देश में एक समान सहकारी कानून बनाने की तत्काल जरूरत है। केंद्र सरकार को इससे होने वाले लाभ के बारे में राज्यों को समझाने के लिए उनके साथ संवाद शुरू करना चाहिए

सहकारी संस्थाओं के संगठन एनसीयूआई का दिल्ली स्थित मुख्यालय

 

सहकारिता क्षेत्र के लिए एक अलग मंत्रालय बनाने की चिर प्रतीक्षित मांग पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6 जुलाई, 2021 को अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी । सहकारिता क्षेत्र से संबंध रखने वाले सभी लोग प्रधानमंत्री के इस फैसले की जमकर तारीफ कर रहे हैं, क्योंकि यह फैसला सरकार की  सहकारिता क्षेत्र के विकास और उन्नति के प्रति प्रतिबद्धता को  दर्शाता है ।

 

जो लोग सहकारिता क्षेत्र में चल रही गतिविधियों और घटनाक्रमों से वाकिफ थे , उन्हें इस फैसले से कोई ताज्जुब नहीं हुआ । इससे पहले भी प्रधानमंत्री ने कई अवसरों पर सहकारिता क्षेत्र को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाने की मंशा जाहिर की थी ।  वह सहकारिता क्षेत्र से जुड़े लोगों को अपने अंदर ‘सहकारिता भावना’ को जिंदा रखने और उसे और मजबूत करने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहे हैं ।

 

इस अवसर पर अपनी घोषणा में सरकार द्वारा ‘समुदायिक भागीदारी आधारित विकास  मॉडल’ की महत्ता पर जोर दिया गया है । इस घोषणा में सहकारिता मंत्रालय के लिए रोड मैप और एजेंडा की व्यापक रूपरेखा भी समाहित है । यह मंत्रालय देश में सहकारिता से समृद्धि का द्वार खोलेगा । नव गठित मंत्रालय सहकारी समितियों के लिए ' ईज ऑफ डूइंग बिजनेस ' की प्रक्रियाओं को कारगर बनाने और बहु राज्यीय सहकारिताओं  के विकास के लिए काम करेगा । यह मंत्रालय देश में सहकारी आंदोलन को मजबूती देगा और इस आंदोलन को  सही मायने में जमीनी स्तर तक पहुंचने में भी मदद करेगा । सहकारी मंत्रालय सहकारी आंदोलन को मजबूत करने के लिए वांछित संस्थागत, कानूनी और नीतिगत ढांचा भी तैयार करेगा । साथ ही सहकारी समितियों को अपनी पूर्ण क्षमता के साथ कार्य करने हेतु प्रेरित करने के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करेगा ।  

इस बात को स्वीकार करना होगा कि सहकारी समितियां सदस्यों के स्वामित्व और नियंत्रण वाली आर्थिक उद्यम हैं । यह अपने सदस्यों के हितसाधन हेतु बाजार की विफलताओं के नकारात्मक प्रभाव को सही या कम करने के लिए स्वेच्छा से स्थापित की जाती हैं । सहकारी उद्यमों द्वारा लोग एक समूह बनाकर  और आवश्यक संसाधनों को एकत्र करके अपने आर्थिक उद्देश्यो की पूर्ति कर सकते है, जो एक अकेले व्यक्ति के लिए शायद संभव नही है । सहकारी उद्यम  बाजार तक  असानी से पहुंचकर अच्छे पैमाने पर एक सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था का निर्माण कर  सकते हैं । इस तरह से स्वत्रंत बाजार की स्थिति बनाकर, सहकारी उद्यम देश की अर्थव्यवस्था  और समाजिक संरचना के लिए एक सकारात्मक छाप छोड़ सकते है। हालांकि, समाज में उनका मूल्य तभी हो सकता है जब वह आर्थिक रूप से सक्षम और  टिकाऊ हों । सहकारी समितियों को मजबूत बनाने के लिए उनके  मौलिक स्वरूप और विशेषताओं का विशेष रूप से  ध्यान  रखना आवश्यक है ।  ऐसी  सहकारी संस्थायें अपनी अहमियत खो देती हैं जिन्हें  सामाजिक या राजनीतिक कारण से सरकार द्वारा आर्थिक औऱ बाजार की ताकतों का  मुकाबला करने हेतु संरक्षण दिया जाता है । 

आर्थिक रूप से मजबूत और विकास सक्षम सहकारी संस्थाएं सरकार के मुख्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों जैसे खाद्य सुरक्षा, रोजगार, गरीबी उन्मूलन , वित्तीय समावेशन में प्रभावी ढंग से योगदान दे सकती है। । कृषि उत्पादन में वृद्धि और ग्रामीण आबादी के बीच गरीबी को कम करने के लिए सहकारी समितियां सर्वोत्तम  विकल्प हो सकती हैं।

सहकारी समितियां तभी टिकाऊ हो सकती हैं जब उन्हें मजबूत बनाने के लिए उचित वातावरण मिले। भारत में सहकारी समितियों का इतिहास एक सदी से भी अधिक का है मगर आज इनके अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है।  इनको मजबूत करने के प्रयास की शुरुआत प्राथमिक स्तर की संस्थाओं के विकास से होनी चाहिए। मजबूत प्राथमिक संस्थाएं ऊपरी स्तर की सहकारी प्रणाली को स्वतः  मजबूत कर देगी । सरकार  को ऐसा करने के लिए उचित वातवारण बनाकर एक स्पष्ट नीति तैयार  करनी होगी।

सहकारी समितियों को  लाभ  कमाना भी जरूरी है ताकि वे टिकाऊ बने रहें और उनका विकास हो सके ।  इनको किसी भी आने वाले जोखिम से निपटने के लिए अपने  सदस्यों को पूंजी निर्माण के लिए  प्रोत्साहित करना चाहिए ।

ज्यादातर मामलों में, यह देखा गया है कि समर्पित सदस्यों के बावजूद सहकारी संस्थाएं अपनी पूंजीगत जरूरतों को पूरा नहीं कर पाती हैं। मगर प्रर्याप्त वित्तीय संसाधनों के बिना सहकारी समितियां अच्छे से काम भी नहीं कर सकती और यह भविष्य में उनके अस्तित्व के लिए भी संकट का कारण बन सकता है। इस बाधा को दूर करने और सहकारी संस्थाओं को आवश्यक कार्यशील और निवेश पूंजी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए सरकार को उचित वित्तीय और  ऋण नीति का निर्माण करना चाहिए ।

सरकार को ऐसे प्रासंगिक और ठोस   समाजिक,आर्थिक,राजनीतिक वातावरण का निर्माण करना होगा ,जिसमें  सहकारी समितियां स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें और  अच्छी तरह से उन्नति कर सके। अकर्मण्य लोगों के लिए सहकारिता में कोई जगह नहीं होनी चाहिए|

सरकार को सशक्त कानून और नीतिगत माहौल बनाने के लिए काम करना होगा । तभी सहकारी समिति की तरफ उसके सदस्यों की प्रतिबद्धता और उससे संबंधित कौशल, उत्पादन विधि की जानकारी और दूसरे जरूरी काम में निवेश करने की क्षमता और प्रतिबद्धता को सुनिश्चित किया जा सकता है । वहीं सहकारी समितियों को भी समझना होगा कि यह उनके ही हित में है ,क्योंकि सशक्त एवं कुशल सहकारी संस्थाएं ही व्यापार की शर्तों को अपने अनुकूल बना कर सदस्यों की समृद्धि सुनिश्चित कर सकती हैं । सहकारी व्यापार सिद्धांतो के पूर्ण अनुपालन से ही  सहकारी समितियों का विकास संभव  हो सकता है ।

अगर सहकारी समिति एक टिकाऊ और उन्नतिशील उद्योग नहीं बनता है तो आगे चलकर  वह अपना वास्तविक प्रारूप भी खो देगा । क्योंकि इससे वह सहकारी विरूपण की एक अपरिवर्तनीय प्रक्रिया के जाल में फंसकर रह जाएगा ।सहकारी समितियों के व्यवसायिक और आर्थिक स्वरूप से इनकार बाजार में सुव्यवस्थित सहकारी समितियों के विकास में अड़चने लाती हैं |अपने  सदस्यों के लिए सहकारी समितियां बहुत फायदेमंद हो सकती हैं । इसलिए सवाल यह नहीं होना चाहिए कि सहकारी समितियां गरीबों और वंचित समुदाय का भला कैसे कर सकती हैं बल्कि सवाल तो यह होना चाहिए कि सहकारी समितियों से जुडकर गरीब और वंचित समुदाय अपना भला कैसे कर सकते हैं  । 

गतिशील एवं बदलती बाजार संरचनाएं और स्थितियां संगठनात्मक ढांचा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  सहकारी समितियों को अपनी संगठनात्मक संरचना और व्यवसाय को बाजार की परिस्थितियों के अनुकूल ढालना होगा । सहकारी समितियों को लगातार बदलते बाजारी ढांचे के लिए सही परिस्थितियां बनाने के लिए एक टिकाऊ मॉडल खोजने की जरूरत है  ताकी वह सुदृढ़ एवं टिकाऊ बन सकें । बेकार, कमजोर और खराब प्रबंधन वाली सहकारी समितियां सदस्योंके साथ-साथ समाज के लिए भी नुकसानदेह हैं।

छोटी प्राथमिक सहकारी समितियां भी अपना अस्तित्व बरकरार रख सकती हैं बशर्ते कि वह जल्द से जल्द संगठित होकर क्षेत्रीय व्यापार नेटवर्क को स्थापित करें।इस तरह की व्यवस्था से वह अपने कम संसाधनों को बेहतर ढंग से आवंटित करने में सक्षम होंगी और यह व्यवसाय के जरूरी स्तर को प्राप्त करने के लिए भी जरूरी है ।रोजमर्रा के व्यवसाय प्रबंधन का जिम्मा कुशल व्यावसायिक प्रबंधकों के हाथ में होना चाहिए और  सहकारी समिति के बोर्ड के सदस्यों को सहकारी संस्था की संरचना, सदस्यों के अधिकार, पूंजी  और जिम्मेदारी जैसे कामों तक ही खुद को सीमित रखना चाहिए।

सहकारिता एक सामुहिक  उद्यम है और इसकी की मजबूती उसके सदस्यों पर निर्भर  करती   है| इसलिए, सदस्यों को सहयोग और अंतर्निहित तर्क के साथ इसके मूल सिद्धांतों को समझने की जरूरत है |  उन्हें काम करने के लिए प्रेरित और प्रतिबद्ध होना होगा । सदस्यों को अपने दायित्वों, उनकी सहकारी समितियों को नियंत्रित करने वाले नियमों (कानून, विनियमों, उपनियमों)  औऱ अपने अधिकारों समझना होगा। उन्हें आवश्यक वित्तीय योगदान करने और जोखिम साझा करने के लिए हमेशा  तैयार रहने की जरूरत है। व्यवहार्यता सुनिश्चित करने के लिए उचित विनियमन और शासन संरचनाएं जरूरी  हैं।

सदस्य आवश्य़क अनुशासन तभी मानेंगे जब उन्हें बाजार की स्थितियों और करोबारी माहौल की पर्याप्त जानकारी होगी जिससे उनकी संस्था संचालित होती है। इसलिए सरकार को मौजूदा शिक्षा औऱ ट्रेनिग में  सुधार करना चाहिए। इसके लिए राष्ट्रीय, राज्य , क्षेत्रीय और जिला स्तर पर  सहकारिता की  कुशल शिक्षा के लिए प्रोफेशनल ट्रेनिंग सेंटर बनाने चाहिए।  इन संस्थाओं को  आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक स्तर पर केन्द्र स्थापित करने की छूट होनी चाहिए। संस्था को बोर्ड स्तर और सामान्य  सदस्यों के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करना  चाहिए। इसके साथ ही सदस्यों के साथ लगातार सूचना सेवा स्थापित करनी चाहिए। यह संस्थान केन्द्र सरकार के पूरी तरह नियंत्रण में होना चाहिए । सरकारी मदद औऱ सरकारी  अनुदान  सहायता से देश में कार्यरत मौजूदा सहकारी शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थाओं का  नव गठित  संस्थान में विलय किया जा सकता है। नई उत्पादन तकनीकों और उत्पादों के बारे में जानकारी,  शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए। यह किसी भी सहकारिता की व्यवहार्यता के लिए महत्वपूर्ण कारक है ।

मौजूदा सहकारिता कानून में भी व्यापक संशोधन की तत्काल जरूरत है । मौजूदा कानून इस विचार पर आधारित है कि सहकारी संस्थाओं की स्थापना सामाजिक-और आर्थिक उद्देश्योंके लिए की गई है। जबकि सहकारी समितियों का गठन एक उद्यम के रूप में होना चाहिए जो बेहतर कानूनी प्रावधानों के तहत संचालित होता है। देश में एक समान सहकारी कानून बनाने की तत्काल जरूरत है। केंद्र सरकार कोइससे होने वाले लाभ के बारे में राज्यों को समझाने के लिए उनके साथ संवाद शुरू करना चाहिए।

सरकार को 'कोआपरेटिव- कारपोरेट रणनीतिक कार्यशील साझेदारी' को बढ़ावा देने के लिए कानूनी प्रावधानों को तैयार करने पर विचार करना चाहिए। इससे  सहकारी समितियों की प्रबंधकीय, विपणन, बुनियादी ढांचे, तकनीकी और वित्तीय जरूरतें पूरी हो सकती हैं। कारपोरेट इकाई को उन कोआपरेटिव में पूंजी निवेश की अनुमति दी जा सकती है जहाँ दोनों के बीच एक कार्यशील गठबंधन बनता है। सहकारी समितियों के प्रबंधन और बुनियादी ढांचे की क्षमताओं को मजबूत करने की दिशा में किए गये कारपोरेट के आर्थिक योगदान को कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) की पूर्ति की तरह माना जा सकता है।

देश में सहकारिता के भविष्य की संभावनाएं आशाजनक हैं क्योंकि यह कृषि विकास,आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन के लिए एक मूलभूत गतिविधि के रूप में कार्य करता है। किसानों की आय में सुधार, बेरोजगारों को नौकरी उपलब्ध कराना, समाज के वंचित समुदाय के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार जैसे सरकार के मुख्य उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सहकारी समितियों का गठन और प्रशिक्षण पर काम करना होगा। इसके साथ ही सहकारी समितियों की वित्तीय जरूरतों के लिए समाधान तलाशने के साथ जरूरी कानूनी, नीतिगत और कारोबारी माहौल में सुधार लाना होगा।

केवल कुशलता से कार्य करने वाली सहकारी संस्थाएं ही आत्मनिर्भर ग्रामीण भारत के उद्देश्य को हकीकत में तब्दील करने की क्षमता रखतीहैं। सदस्यों के बीच इमानदार प्रतिबद्धता से ही सहकारी समितियों का बेहतर प्रबंधन करना संभव है। “ सबका विकास” की परिकल्पना पर भी जोर देना चाहिए। इससे न केवल आर्थिक मजबूती और वित्तीय पूंजी का निर्माण हो सकेगा बल्कि एक सामाजिक और भावनात्मक पूंजी का भी निर्माण होगा,जो एक बेहतर और सामंजस्यपूर्ण सामाजिक जीवन केलिए बेहद जरूरी है ।  इस दिशा मे सरकार द्वारा सहकारिता मंत्रालय का गठन का एक सराहनीय निर्णय है। अब आगे  सरकार को ऐसे उत्प्रेरक तत्वों पर गंभीरता पूर्वक ध्यान देना चाहिए  होगा जो सामूहिक कार्यकलापों में आने वाले अवरोधों को दूर करने में सक्षम हैं ।  

( डॉ. डी. एन. ठाकुर, नेशनल कोआपरेटिव डेवलपमेंट कारपोरेशन (एनसीडीसी) के पूर्व डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर हैं, वह कोआपरेटिव सेक्टर और एग्रीकल्चर फाइनेंसिंग के एक्सपर्ट हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं )