कृषि क्षेत्र की समस्या आधे-अधूरे कदमों से दूर नहीं होगी, इसके लिए समग्र राष्ट्रीय कृषि नीति की दरकार

तीन नए कृषि कानूनों और न्यूनतम समर्थन मूल्य को जारी रखने की किसानों की मांग पर चारों ओर चल रही बहसों में, अक्सर यह सवाल उठते रहे हैं कि क्या सरकार को किसानों को सब्सिडी प्रदान करने के लिए करदाताओं के पैसे का उपयोग करना चाहिए? असल में कृषि क्षेत्र की समस्याओं को हल करने के लिए हमें एक समग्र राष्ट्रीय कृषि नीति की जरूरत है और एक समयावधि के बाद इसमें भी संशोधन करते रहना होगा

तीन नए कृषि कानूनों और न्यूनतम समर्थन मूल्य को जारी रखने की किसानों की मांग पर चारों ओर चल रही बहसों में, अक्सर यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या सरकार को किसानों को सब्सिडी प्रदान करने के लिए करदाताओं के पैसे का उपयोग करना चाहिए? हालांकि, तार्किक रूप से, दो और प्रश्न पूछे जाने चाहिए, लेकिन उनमें से कोई भी सवाल कभी भी मजबूत तरीके से नहीं पूछे गए हैं। पहला, पूर्ववर्ती सरकारों ने कृषि सब्सिडी प्रदान करने के लिए सरकारी खजाने का उपयोग क्यों किया है, और दूसरी बात यह है कि कृषि में पर्याप्त हित रखने वाले अन्य देशों की तुलना में भारत की कृषि सब्सिडी पर खर्च कितना बड़ा है?

भारतीय अर्थव्यवस्था को समझने वाले किसी भी विश्लेषक के लिए यह अबूझ नहीं है , कि कैसे कृषि क्षेत्र ग्रामीण भारत के उस बड़े वर्ग को रोजगार के अवसर देता है, जो कि हमेशा से जीवनयापन के लिए उस पर पूरी तरह से निर्भर हैं। 1950-51 में, देश की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 45 फीसदी थी, इस क्षेत्र पर निर्भर कार्यबल की हिस्सेदारी 70 फीसदी  के करीब थी। सात दशक बाद, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी 16 फीसदी  से नीचे है, लेकिन देश का लगभग 50 फीसदी कार्यबल इस क्षेत्र पर निर्भर करता है। कृषि क्षेत्र पर दबाव, व्यापार की दृष्टि से गैर-कृषि क्षेत्रों की तुलना में और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। कृषि क्षेत्र 1980 के बाद से लगातार व्यापार की प्रतिकूल शर्तों का सामना कर रहा है। यही नहीं 1990 के दशक में और फिर से 2012-13 के बाद से कोई अलग बदलाव नहीं दिख रहा है। परेशानी की बात यह है कि 2000 के बाद से कृषि क्षेत्र लगातार गैर कृषि क्षेत्रों की तुलना में प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना कर रहा है।

बढ़ती हुई अक्षमताओं के कारण कृषि आय में लगातार कमी आई है। जिसकी वजह से कृषि क्षेत्र में निवेश भी लगातार घटता गया है। देश में किए गए कुल निवेश में कृषि क्षेत्र को मिलने वाली 1950 के दशक में लगभग 18 फीसदी थी। जो कि 1980 के दशक में गिरकर 11 फीसदी से पर पहुंच गई। बाद के दशकों में, यह हिस्सेदारी दोहरे अंकों तक भी नहीं पहुंच पाई। जिस कारण स्थिति बहुत ज्यादा खराब हो चुकी है। सबसे हाल के जो आंकड़े उपलब्ध हैं (2014-15 से 2018-19) के दौरान  कुल निवेश में कृषि क्षेत्र की  हिस्सेदारी गिरकर 7.6 फीसदी पर आ गई। हालांकि, इस अस्वीकार्य स्थिति के बावजूद, आजाद भारत में प्रत्येक सरकार ने व्यवस्थित रूप से कृषि में निवेश को बढ़ाने की आवश्यकता को नजरअंदाज कर दिया, जिसने कृषि संसाधनों का अधिक कुशल उपयोग नहीं हो पाया। बल्कि निवेश बढ़ाने से न केवल कृषि क्षेत्र में सुधार होता बल्कि आय में सुधार की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।

भारत की प्रमुख फसलों की उत्पादकता (यील्ड)  के स्तर की तुलना अगर दूसरे देशों के साथ की जाय, तो यह देश में कृषि की निराशाजनक स्थिति को प्रकट करती है। भारत की दो प्रमुख फसलों गेहूं और चावल की उत्पादकता के आधार पर 2019 में रैंकिंग क्रमशः 45 वें और 59 वें स्थान पर थी। यह रैंकिंग और गिर जाएगी यदि इसमें पंजाब और हरियाणा जैसे उच्च पैदावार वाले राज्यों को बाहर रख दिया जाय। दूसरे शब्दों में, देश के दूसरे राज्यों में किसानों के लिए, यह कम पैदावार के बीच अस्तित्व की लड़ाई है।

बाजार हमेशा किसानों का सबसे बड़ा विरोधी रहा है, जिससे उनके लिए अपनी उपज के लिए लाभप्रद  कीमतों का मिलना  असंभव हो गया है। एपीएमसी के वर्चस्व वाली मौजूदा विपणन प्रणाली लंबे समय से छोटे किसानों के हितों के खिलाफ साबित हुई है, लेकिन सरकार ने अपनी समझदारी से अब और भी बड़े बिचौलियों को पेश करने का फैसला किया है जो इस दुष्चक्र को बढ़ावा देने के अलावा कुछ नहीं करेंगे।

यह कोई दिमाग लगाने की बात नही है कि भारतीय कृषि के सामने आने वाली ऐसी जटिल समस्याओं को छोटे-मोटे फैसले लेने के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता है।  देश को इस समय एक कृषि नीति की आवश्यकता है जो इस क्षेत्र के सामने आने वाली चुनौतियों का व्यापक तरीके से समाधान करे। हैरानी की बात है कि इस तरह की नीति की मांग शायद ही कभी देश के कृषक समुदाय द्वारा की गई हो। आजादी के बाद से भारत में कृषि की समग्र नीति की कमी को निश्चित रूप से सरकारों की सबसे बड़ी विफलताओं में से एक माना जाना चाहिए। इस विफलता की भयावहता को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है अगर कोई इस तथ्य पर विचार करता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका (अमेरिका), कृषि में लगे अपने कामगारों की संख्या के दो फीसदी से कम के होने के बावजूद साल 1933 से राष्ट्रपति रूजवेल्ट की नई डील के पहले कानून के बाद से हर चौथे वर्ष जरूरत के अनुसार कृषि कानून बना रहा है। इसी तरह का कदम अपनी स्थापना के कुछ समय बाद यूरोपीय कॉमन मार्केट के सदस्यों ने 1962 में आम कृषि नीति को अपनाया। ये नीतियां व्यापक रूप से संबंधित सरकारों के समर्थन के माध्यम से कृषि क्षेत्र की जरूरतों को पूरा करती आ रही हैं।

उपरोक्त चर्चा भारत की कृषि सब्सिडी के संदर्भ में बेहद उपयोगी है। मौजूदा संकट इस समय अभी तक के नीति निर्माताओं की विफलता का खामियाजा है। यह समय किसानों के साथ उलझने के बजाय उनके साथ मिलकर एक किसान-हितैषी नीति बनाने के साथ, संस्थाओं की स्थापना करने का है। लेकिन अब तक सरकारों ने ऐसा नहीं किया, बल्कि सब्सिडी के जरिए समस्याओं को टालने की कोशिश की है। इसके लिए खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दुहाई दी गई है। यह कहा जाना चाहिए कि सरकारों ने सब्सिडी देना जारी रखा है क्योंकि दोनों में से किसी भी उद्देश्य को पूरा करने में विफलता देश के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकती है। एक ही समय में, हालांकि, एक उचित नीतिगत ढांचे के बिना सब्सिडी के वितरण ने उत्पादन की संरचना को विकृत कर दिया है और अत्यधिक खाद्य भंडार के रूप में अवांछनीय परिणाम प्राप्त हुए हैं।

जब सब्सिडी को वास्तव में भारतीय किसानों के लिए अस्तित्व की मुद्दा बना दिया गया है, तो भारत की सब्सिडी की तुलना अन्य देशों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी से करनी चाहिए। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सदस्यों से कृषि पर समझौते (एओए) पर  के तहत उनकी कृषि सब्सिडी को अधिसूचित करने की उम्मीद है; सब्सिडी सूचनाएं यह समझने के लिए एक अच्छा आधार प्रदान करती हैं कि भारत इस संबंध में अन्य देशों के साथ कहां खड़ा है।

साल 2018-19 के लिए भारत की उपलब्ध ताजा अधिसूचना से पता चलता है कि भारत द्वारा करीब 56 अरब डॉलर से थोड़ी अधिक ही सब्सिडी दी जा रही है। हाल के वर्षों में, भारत की सब्सिडी का सबसे बड़ा हिस्सा (24.2 अरब डॉलर, या कुल का 43 फीसदी) "कम आय या संसाधन हीन गरीब किसानों" को प्रदान किया जाता है, जो एओए के मुताबिक उपयोग फार्मूले के तहत आता है। हालांकि, किसानों की इस श्रेणी को तय करने का काम  सदस्य देशों पर छोड़ दिया गया है। भारत ने सूचित किया है कि उसके 99.43 फीसदी किसान निम्न आय या कम संसाधन वाले गरीब हैं। 2015-16 में आयोजित कृषि जनगणना के अनुसार, ये ऐसे किसान हैं जिनके पास 10 हेक्टेयर या उससे कम जमीन है। इस प्रकार, भारत सरकार के अनुसार, लगभग पूरे कृषि क्षेत्र में आर्थिक रूप से कमजोर किसान शामिल हैं।

फार्म सब्सिडी के दो प्रमुख प्रदाताओं, अमेरिका और यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्यों ने भारत की तुलना में सब्सीडी की बहुत अधिक राशि खर्च की है। अमेरिका ने 2017 में 131 अरब डॉलर और यूरोप ने 2017-18 में लगभग 80 अरब यूरो (या 93 अरब डॉलर) की सब्सिडी किसानों को दी है। कृषि सब्सिडी की तुलना करने के लिए निरपेक्ष संख्या एक अच्छा संकेत नहीं देती है, तीन देशों के लिए कृषि में मूल्यवर्धन के लिए सब्सिडी के अनुपात के जरिये बेहतर तस्वीर दिखती  हैं। इस प्रकार, 2017 के लिए, भारत की कृषि सब्सिडी 12.4 फीसदी कृषि मूल्यवर्धन थी, जबकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के लिए, आंकड़े क्रमशः 90.8 फीसदी और 45.3 फीसदी  थे। भारत द्वारा दी जाने वाली कृषि सब्सिडी की यही हकीकत  है।

 

(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं।)