ई-रिटेल और एकाधिकार की सामाजिक कीमत को समझने की जरूरत

अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान की आजीविका के लिए खेत पर होने वाली गतिविधियों से ज्यादा खेत के बाहर होने वाली गतिविधियां अधिक मायने रखती हैं । भले ही किसी को पसंद हो या नहीं, जब निजी क्षेत्र अच्छा करता है, तभी अर्थव्यवस्था फलती-फूलती है और हर माह लाखों रोजगार पैदा होते हैं। उपभोक्ताओं के पास भुगतान करने के लिए अधिक पैसा होता है, तभी वह पौष्टिक भोजन के लिए पैसे खर्च कर सकते हैं और तभी किसान को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकता है

यह बात सिर्फ जियो मार्ट, अमेजन, वालमार्ट या टाटा ग्रुप की नहीं है, जिनकी हिस्सेदारी भारतीय खुदरा बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर है। साल 2030 तक इनका व्यवसाय  लगभग दो ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। यह बात सिर्फ अलीबाबा और टेनसेंट जैसी उन चीनी कंपनियों के बारे में भी नहीं है जो  बाजार का केवल एक हिस्सा चाहते है, लेकिन इंडो-चाइनीज असहमति के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ रहा है । इसका प्रभाव केवल उन दो करोड़ छोटे किराना स्टोर  और चार करोड़ परिवारों पर ही  नही पड़ेगा, बल्कि इसके प्रभाव अनौपचारिक और औपचारिक रिटेल चेन पर निर्भर लोगों पर भी पड़ेंगे। इतना ही नहीं यह संकट इन सबसे भी बड़ा है औऱ बहुत ही गंभीर है ।

चाहे वह इस  महामारी के समय में हो या अन्य किसी विपदा की घड़ी  में हो, जिन कंपनियों ने ऐसे वक्त में डिजिटल उत्पादों और ढांचे पर निवेश किया है वह हमेशा फली फूली हैं । जब अचानक से भारत मे नोटबंदी का ऐलान किया गया था, तब पेटीएम जैसी कुछ कंपनियों ने इस हालात का फायदा उठाया था । दरअसल इन कंपनियों को घरेलू स्टार्ट-अप के रूप में खड़ा किया गया था । लेकिन इसके बावजूद आज पेटीएम  पूर्ण रूप से  भारतीय मूल की कंपनी नहीं है । इस कंपनी में एक छोर पर चीन के अलीबाबा का प्रतिनिधित्व करने वाले निवेशक हैं तो, दूसरे छोर पर वॉरेन बफे द्वारा समर्थित एक अमेरिकी इकाई ने भी निवेश किया हैं । यह एक सचाई है कि वास्तविकता में  पूँजी  की कोई राष्ट्रीयता नहीं होती ।

“स्वदेशी बनाम विदेशी” को राष्ट्रवाद से जोड़ना  केवल एक मार्केटिंग रणनीति है । अगर आप याद करने की कोशिश करें, तो  जब कोका कोला कंपनी भारत मे आई  थी तब पारले ग्रुप के  रमेश चौहान ने “स्वदेशी” के नाम की हुंकार केवल इसीलिए लगाई ताकि वह अपनी कंपनी थम्स अप को कोका कोला को अधिक कीमत  पर बेच सकें । इसी तरह, लगभग एक दशक पहले स्वदेशी का नारा लगाने वाली कई कंपनियां  जिन्होने “ रीटेल मे  एफ.डी.आई” का  आने का विरोध किया था, आज वह अपनी कंपनी की  शाखाएं  विदेशी कंपनियो के हाथों  बेच चुकी हैं, क्योंकि अब राजनीति की हवा का रुख भी बदल गया है । भारत में ट्रेडर्स के सबसे बड़े संगठन का कहना है कि ई-कॉमर्स की क्रांति छोटे कारोबारियों के लिए बेहतर साबित होगी, मगर इसके उलट असल में इन छोटे दुकानदारों के साथ यह धोखा है। आज के वक्त में किसान की तरह कोई दुखी वर्ग है तो वह छोटे दुकानदार हैं ।

फेडरल रिजर्व बैंक ऑफ क्लीवलैंड मे 2014 में तैयार की गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि अमेरिकियों के नया व्यवसाय शुरू करने की गति में पिछले साढ़े तीन दशकों में भारी गिरावट आई है । साथ ही पहले से मौजूद बिजनेस संस्थानों ने नई कम्पनियों और कारोबार शाखाओं के जरिये अपने कारोबार का विस्तार किया है। जहां पहले बाजार स्वतंत्र उद्यमियों द्वारा चलाए जाते थे ,आज उसी  व्यवसाय के बाजार को विस्तार करके चलाया जा रहा है । एक राष्ट्र की प्रगति के लिए जरूरी है वह अपनी उद्यमशीलता के लिए स्वतंत्र रहे लेकिन यह व्यवस्था उस  लकीर को मिटाने का काम कर रही है। क्योंकि  अक्सर देखने को मिला है कि हद से ज्यादा पूंजीवाद से ऐसे एकाधिकार उत्पन्न होते हैं जिससे प्रतिस्पर्धा कम होती है और बाजार में नवाचार का गला घोंट देते हैं। छोटे  व्यवसायों  जिससे वास्तव में रोजगार बढ़ता है और वह बाजार में  आर्थिक गतिशीलता उत्पन्न करते है उनका यह मनोबल तोड़ देते है। पहले खुद चीन ने अलीबाबा, टेनसेंट जैसी कंपनियों को दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में शामिल कराने में इनकी मदद की  लेकिन  जब चीन को अचानक से यह अहसास हुआ कि यह कंपनियां अब चीन के लिए ही खतरा बन चुकी हैं तो वह खुद इन कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है । इस बात से  चीन से  हमें सीख लेनी चाहिए।

बडी-बडी ई-रिटेल कंपनियां  बड़ी मात्रा में माल को खरीदती हैं जिससे वजह से वह  नीचे तक की कीमतों को स्वंय निर्धारित करती हैं और उत्पादन करने वाले लोगों  पर कठोर शर्तें थोप देती हैं । दूसरी तरफ आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) और प्रोसेस सिस्टम में निवेश करने की वजह से ई- रिटेल कम्पनियों के उपभोक्ताओं के खरीद मूल्य किराना स्टोर के खरीद मूल्य से कम होते है, जो एक स्वभाविक परिणाम है। ई-रिटेल कंपनियां न सिर्फ किराना स्टोरों के सबसे बड़े वितरणकर्ता के रूप मे उभर रहे हैं बल्कि ई-रिटेल कंपनियां इन किराना स्टोर को ऑर्डर किए गए समानो के पिक अप प्वाइंट्स की तरह भी इस्तेमाल करेंगे । जिसके चलते, किराना स्टोर्स को न्यूनतम ऑर्डर के आकार को बढ़ाने के लिए मजबूर किया जाएगा, जिसके चलते छोटे दुकानों की इन्वेंट्री लागत बढ़ जाएगी और ऐसे में उनको नुकसान झेलना पड़ेगा । यह व्यवस्था ज्यादा दिनों तक नही चलने वाली है।  अगले बीस सालों में  अधिकांश किराना स्टोर इस व्यवस्था के चलते बंद हो जाएंगे। उनके साथ, ऐसे व्यवसाय जो आपूर्ति  के लिए एक –दूसरे पर आश्रित है और आपूर्ति करने वाले सैकड़ों- हजारों  छोटे उद्यम धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे। जाहिर सी बात है कि जैसे-जैसे स्टोर की संख्या कम होती जाएंगी,उपभोक्ताओं को कुछ ही आपूर्तिकर्ता मिलेंगे और उपभोक्ताओं को उन्ही से खरीदारी करनी पड़ेगी ।

एक स्वतंत्र उपभोक्ता अनुसंधान संगठन, यूएस पब्लिक इंटरेस्ट रिसर्च ग्रुप ने जब अमेजन पर फेस मास्क जैसी 750 आवश्यक वस्तुओं की बिक्री का महामारी से पहले और उसके बाद का अध्ययन किया। इसने उन्होंने पाया कि 750 में से  409 वस्तुओं की कीमतों में 20 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी और 136 वस्तुओं की कीमतें  दोगुना हो गयी थी ।

 कई लोग असंगठित तौर पर हो रहे व्यापार को अव्यवस्थित जबकि  ई-कॉमर्स को कुशल बताते हैं। लेकिन आखिर इस दक्षता  के मायने क्या हैं? यह निर्भर करता है कि हम क्या माप रहे हैं। ज्यादातर लोग एक ऐसा माप मैट्रिक्स तैयार करेंगे जिसका आधार सिर्फ व्यापार से जुडे उद्देश्य हैं । लेकिन, दक्षता का माप इससे कई ज्यादा पेचीदा है। उदाहरण के लिए, मोनोकल्चर को एक कुशल कृषि पद्धति माना जा सकता है अगर बात सिर्फ प्रति यूनिट उपज और आसानी से होने वाली फसल की कटाई के संचालन की हो । लेकिन अगर मानव स्वास्थ्य, जैव विविधता हानि और जलवायु परिवर्तन के नजरिये से देखा जाए तो इससे बुरी पद्धति और कोई नहीं हो सकती है।

 जब कोई भी प्रकिया होती है तो एक पक्ष की हार होती है इस हार में हुए नुकसानों की समाजिक लागत को पहचाना जाना चाहिए। इस लागत के नुकसान होने के बहुत से कारण है। अपने स्वाभाविक प्रारूप के कारण असंगठित सेक्टर में नौकरियां पंजीकृत नहीं की जाती है इसलिए इस सेक्टर मे जब असंख्य लोग अपनी नौकरियां खो देते है  तो  पंजीकृत नहीं होने के कारण इस नुकसान का कोई ब्यौरा नहीं मिलता है। हालांकि, ई-रिटेल में हर एक नौकरी का दस्तावेजीकरण किया जाता है और राजनेता इसका श्रेय भी ले लेते हैं । यह किसी भी देश के लिए एक बुरी परिस्थिति का संकेत है, खासकर जब बेरोजगारी स्तर अपने चरम पर  है और यह देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। इस व्यवसाय के छोटे व्यापारियों को बाहर करने के लिए अधिक सम्पन्न ई–रिटेल व्यवसाय के पास उपभोक्तओं को सस्ता कर्ज देने की क्षमता होती है । इसलिए ई-रिटेल ही क्रेडिट कार्ड कंम्पनियां के लिए शर्तें तय करेंगी। वहीं ई–पेमेंट और ई-प्लेटफार्म द्वारा ग्राहकों द्वारा खरीदारी के समय वसूले जाने वाले शुल्क भी ई-रिटेल कंपनियां ही तय करेंगी। इसके चलते देर-सबेर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का आकर्षक रिटेल लोन बिजनेस खत्म हो जायगा । इसके बाद ई-रिटेल कंपनियां अपना सस्ता सामान बेचेंगी और बड़े ब्रांडों को भी समर्पण के लिए मजबूर करेंगी। वह खुद के ब्रांड जैसे अमेजन 'बेसिक्स' मेकिंग बेचना शुरू करेंगी। अमेज़ॅन ने पिछले हफ्ते 8.5 अरब डॉलर में हॉलीवुल का स्टूडियो एमजीएम खरीदा है। इस तरह औऱ भी चीजें और सेवाएं इन बड़े ई-रिटेलर प्लेयर के साथ जुड़ती जाएंगी ।  ई-रिटेल और ई-कॉमर्स के बीच की रेखाएं पहले से ही धुंधली होने लगी हैं।

ई-रिटेल की दिलचस्प बात यह नहीं है कि वह  सिर्फ मर्चेंडाइज बेच रहे है, बल्कि इस करोबार में ग्राहकों से जुड़ी हुई व्यक्तिगत जानकारी के डाटा का भी व्यापार और विज्ञापन का भी व्यापार कर रही हैं। इस तरह के डाटा की मदद से  कॉरपोरेट्स उपभोक्तओं के व्यवहार  को भी  प्रभावित कर रही हैं । यह बाजार को भी अपने हिसाब से मोड़ कर हेर फेर कर रही हैं। यह डेटा उन लोगों के लिए भी महत्वपूर्ण है जो ई-रिटेल के प्लेटफॉर्म पर नहीं बेच रहे हैं, जैसे वित्त, बीमा,दवा और स्वास्थ्य उद्योग ।  इसलिए यूरोप एक ऐसे कानून को लाने  पर विचार कर रहा है जो बड़ी–बड़ी कंपनियों के एकाधिकारवादी व्यवहार पर अंकुश लगा सके।  जिससे कि इस तरह  के डाटा को गुप्त ऱखा जा सके।

पहले आधुनिक रिटेल स्टोर अपनी दुकान में ब्रांडो को प्रमुखता से बेचने के लिए ब्रांड कंपनियों से अधिक कमीशन के लिए कहती थी ठीक वैसै ही अब ई- रिटेल कंपनियां भी इसी तरह का दबाव बनाएंगी । अब ब्रांड अपने उत्पादों को लोगों की नजर में लाने के लिए (विजिबिलिटी) के लिए विज्ञापन पर अधिक से अधिक खर्च करने के लिए मजबूर होंगे। जब 1998 में गूगल की स्थापना हुई थी उस समय एडवर्टिजमेंट रेवेन्यू का 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सा प्रिन्ट मीडिया को मिलता था जो अब घटकर 10 फीसदी हो गया है। इस साल कुल विज्ञापन रिवन्यू का 30 फीसदी, 23 फीसदी  फेसबुक और 10 फीसदी अमेजन ने अर्जित किया । स्वतंत्र मीडिया लोकतंत्र का एक स्तंभ है लेकिन विज्ञापन न मिलने के काऱण अब उसके अस्तित्व पर संकट गहरा रहा है। अमेऱिकी निजी कंपनी फेसबुक ने अमेरिकी राष्ट्रपति को कम्यूनिकेशन प्लेटफार्म देने से इंकार कर दिया जो डिजीटल सम्राज्य की अपार शक्ति की गवाही देता है। हाल ही में गूगल ने आस्ट्रेलिया को अपने सर्च इंजन की जानकारी देने से इंकार कर दिया। आज भारतीय नेतृत्व ट्विवटर पर नाराजगी जताते हुए सरकार की अलोचना करने वाली किसानों के आंदोलन से जुड़ी पोस्ट को हटाने की मांग करता हैं । यह बस कुछ समय की बात है जब ऐसे कार्पोरेशन चुनाव के नतीजे और लोगों  के विचार तय करने में निर्णायक साबित होगें, इसलिए यह मुद्दा सीधे लोकतंत्र के अस्तिव से भी जुड़ा है ।

हमें ऐसे प्रावधानों की जरूरत है जो हमारे डाटा को हमारे देश मे ही सुरक्षित  रख सके । हमें ऐसे प्रावधानो की जरूरत है जिसके चलते  ऐसी डाटा कंपनियों को तब-तब मूल्य चुकाना पड़े जब भी वह अपने उपभोक्ताओं से उनकी जानकारी लें। साथ ही ई-कॉमर्स लेनदेन पर भी विशेष टैक्स लगाने की जरूरत है । इस टैक्स का उपयोग कौशल निर्माण, मानव संसाधनों को बढावा देने और इन सब वजहों से आने वाले समय में होने वाले दर्द भरे बदलाव के लिए लोगों को तैयार करने में  किया जा सकता है ।

ऐसा नही है कि भारत सरकार इस तरह की बड़ी कंपनियों को विकसित नहीं कर सकती थी ,लेकिन बीएसएनएल, एमटीएनएल जैसी कंपनियां जिन पर सरकार का एकाधिपत्य था, उन्हें जानबूझ कर उन्हें घाटे में धकेल दिया गया ताकि महत्वकांक्षी निजी कंपनियों को बढ़ावा मिल सके। हमने मौका गंवाया है लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है। भारतीय डाक विभाग को यूपीआई बैंकिंग लाइसेंस देकर और होम डिलिवरी सेवा करने वाले उद्योग के साथ  भागीदारी में एक लॉजिस्टिक हब के रूप में तब्दील कर एक 100 अरब डॉलर के वैल्यूवेशन वाली कंपनी में तब्दील करने की संभावना मौजूद है। लेकिन भारत के नीति निर्धारक और नेता तो सोशल मीडिया से झगड़ने मे लगे हुए है, न कि अपने नागरिकों के लिए वैल्यूएशन बढ़ाने में ।

वैल्यूएशन ही सबसे महत्वपूर्ण कुंजी है। उदाहरण के लिए जियो मार्ट की बिक्री लगभग 25,000 करोड़ रुपये की है लेकिन बाजार में उसका पूंजीकरण लगभग 1.50 लाख करोड़ रुपये का है । पश्चिमी  देशों के मुकाबले 15 प्रतिशत के मुकाबले  भारत में खाद्य रिटेल में पूंजीकरण इससे मिलने वाले राजस्व के मुकाबले 5-6 गुना ज्यादा है। विदेशी कंपनियों के लिए यह फायदेमंद होगा कि वह यहां कमाए अपने मुनाफे को वापस भारत में ही व्यापार में निवेश करे जो अमेरिका में इन कंपनियों के स्टॉक्स की कीमतों को बढ़ाने में मदद करे। विदेशी पूंजी से प्रतिस्पर्धा बढ़ती है और यह एक बेहतर बात है। हमें इस बात से चिंतित होना चाहिए कि कंपनियां कैसे संचालित हो रही हैं और इनका विनियमन कैसे किया जा रहा है। साथ ही हमें चुनिंदा कंपनियों के बाजार पर एकाधिकार (ओलिगोपोली) की स्थिति के बारे में सोचना चाहिए जो इससे असामनता को कम करने की बजाय बढ़ाती है और उसके जरिये कीमतों को बढ़ाने की प्रवृत्ति पैदा होती है। 

क्या भारत यह सुनिश्चित करने मे सफल हो पाएगा कि व्यवस्था (सिस्टम)  बिजनेसेज के लिए काम न करे, बल्कि बिजनेसेज लोगों के लिए काम करे ? व्यक्तिगत रूप से मुझे इस पर संदेह है। विनियमन, प्रवर्तन और एंटी ट्रेस्ट जैसे कानून कमजोर हैं । संस्थाओं को चरणबद्ध रूप से कमजोर किया जा रहा है। नौकरशाही और  सभी दलों से ताल्लुक रखने वाले राजनीतिक वर्ग की अदूरदर्शिता ने कुछ लोगों को मनचाहा करने की छूट दे रखी है। अब केवल आम लोगों की सक्रियता से ही इस कुलीनतंत्र को  देश पर अपनी पकड़ बनाने से रोका जा सकता हैं।

आप सोचेंगे कि आखिर एक किसान संगठन इससे क्यों चिंतित होगा और वह ई-रिटेल और डेटा अर्थव्यवस्था  के बारे में क्यों  लिख रहा है?  उत्तर को दो भागो में बांटा जा सकता है। यह कहने की जरूरत है क्योंकि कोई और इससे जुड़ी बड़ी तस्वीर की बात नहीं कर रहा है। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान की आजीविका के लिए खेत पर होने वाली गतिविधियों से ज्यादा खेत के बाहर होने वाली गतिविधियां अधिक मायने रखती हैं । भले ही किसी को पसंद हो या नहीं, जब निजी क्षेत्र अच्छा करता है, तभी अर्थव्यवस्था फलती-फूलती है और हर माह लाखों रोजगार पैदा होते हैं। उपभोक्ताओं के पास भुगतान करने के लिए अधिक पैसा होता है, तभी वह पौष्टिक भोजन के लिए पैसे खर्च कर सकते हैं और तभी किसान को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकता है।

 (अजय वीर जाखड़, भारत कृषक समाज के चेयरमैन हैं, लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं।)