कृषि क्षेत्र के लिए साल 2025 का आकलन करने पर हमारे सामने दो अलग-अलग तस्वीरें उभरती हैं—एक किसानों के लिए और दूसरी अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के लिए। सरकार और रिजर्व बैंक की नीतिगत सफलता महंगाई दर को नीचे लाने में साफ तौर पर दिखाई पड़ती है, लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि किसानों की आय महंगाई नियंत्रण नीति की भेंट चढ़ गई। अधिकांश फसलों के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे रहे हैं। यह एक व्यापक परिदृश्य है, जो 2025 के आंकड़ों पर नजर डालने के बाद साफ होता है।
बेहतर मानसून और बंपर उत्पादन के चलते, 15 करोड़ टन चावल उत्पादन के साथ भारत ने चीन के 14.5 करोड़ टन चावल उत्पादन को पीछे छोड़ दिया है और दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश बन गया। साथ ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक भी बन गया। यह उपलब्धि सरकारी आंकड़ों में तो अच्छी दिखती है, लेकिन किसान के स्तर पर नहीं। यही वजह है कि कई भारतीय कंपनियां करीब 33 रुपये प्रति किलो के आसपास चावल निर्यात के सौदे कर चुकी हैं, जो किसानों को चालू सीजन के लिए तय धान के एमएसपी 2389 रुपये प्रति क्विंटल का भुगतान करने के बाद असंभव सा लगता है।
वहीं, अधिकांश दालों के दाम भी एमएसपी से नीचे चल रहे हैं। 60 फीसदी से अधिक आयात-निर्भरता वाले खाद्य तेलों के मोर्चे पर भी कमोबेश यही स्थिति है। किसानों को सोयाबीन का एमएसपी नहीं मिला, जबकि उसका उत्पादन गिर रहा है। दलहन, तिलहन की बात करें या कपास की, लगभग सभी फसलों के दाम एमएसपी से नीचे रहे हैं।
इन आंकड़ों की तस्दीक जीडीपी और जीवीए के आंकड़ों में भी होती है। चालू साल की पहली दो तिमाहियों के कृषि और सहयोगी क्षेत्र के लिए जो जीडीपी और जीवीए के आंकड़े सरकार ने जारी किए हैं, उनमें जीवीए की वृद्धि दर जीडीपी से कम रही है। यह साफ संकेत देता है कि कृषि अर्थव्यवस्था डिफ्लेशन के दौर में है, जबकि मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर के आंकड़े अपेक्षाकृत सकारात्मक हैं। किसानों ने इस साल रिकॉर्ड उत्पादन तो किया, लेकिन किसानों की आय उतनी नहीं बढ़ी है। इसका असर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कमजोर मांग के रूप में देखने को मिलेगा।
कृषि से जुड़ा दूसरा बड़ा मुद्दा भारत और अमेरिका के बीच प्रस्तावित व्यापार समझौते पर सरकार का रुख रहा है। इस समझौते के अटकने की सबसे बड़ी वजह कृषि क्षेत्र है। सरकार को बार-बार कहना पड़ा कि वह भारतीय किसानों के हितों की कीमत पर अमेरिका के साथ व्यापार समझौता नहीं करेगी। अमेरिका चाहता है कि उसके सोयाबीन, मक्का, एथेनॉल और कपास के साथ-साथ सेब, बादाम और पिस्ता जैसे ड्राई फ्रूट्स के लिए भारत अपना बाजार खोले। लेकिन सरकार के लिए ऐसा करना मुश्किल है, क्योंकि इसके बड़े राजनीतिक मायने हैं, जो सरकार के खिलाफ जा सकते हैं। यही वजह है कि भारत-अमेरिका व्यापार समझौते की रेड-लाइन कृषि बनी हुई है।
इस साल देश के किसानों को उर्वरक उपलब्धता को लेकर ऐसे संकट का सामना करना पड़ा, जैसा उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। देश के अधिकांश हिस्सों में किसानों को पहली बार यूरिया की भारी कमी से जूझना पड़ा। हालांकि सरकार लगातार दावा करती रही कि पर्याप्त मात्रा में यूरिया उपलब्ध है, लेकिन बिक्री केंद्रों पर बारिश, धूप और ठंड में दिन-रात लगी किसानों की लंबी कतारें कुछ और ही हकीकत बयां करती रहीं। कई राज्यों ने केंद्र सरकार को यूरिया का अधिक आवंटन करने के लिए पत्र भी लिखे।
असल में देश में यूरिया की खपत तेजी से बढ़ रही है। सबसे सस्ता उर्वरक होने के साथ-साथ इस खरीफ में बेहतर मानसून के चलते फसल क्षेत्रफल में बढ़ोतरी और दालों जैसी कम यूरिया-खपत वाली फसलों की बजाय धान और मक्का जैसी अधिक यूरिया-खपत वाली फसलों के रकबे में वृद्धि इसकी बड़ी वजह रही। सरकार द्वारा नए संयंत्र लगाने के बावजूद यूरिया पर आयात-निर्भरता बनी हुई है। हालांकि डाई-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) को लेकर भी किसानों को रबी और खरीफ दोनों सीजन में दिक्कतें हुईं, लेकिन ऐसा पहले भी होता रहा है। यूरिया के मामले में इतनी गंभीर स्थिति पहली बार देखने को मिली।
एक सकारात्मक घटनाक्रम के रूप में सरकार द्वारा जीन-एडिटिंग के जरिए विकसित धान की दो किस्मों को मंजूरी देना अहम रहा। यह पहली बार है जब देश में जीन-एडिटिंग तकनीक से विकसित किस्मों को स्वीकृति दी गई है। सरकार ने जीन-एडिटिंग को जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) फसलों से अलग कर दिया है और इनके लिए जीएम फसलों जैसी लंबी मंजूरी प्रक्रिया नहीं रखी गई है। यही वजह है कि आने वाले समय में बड़े पैमाने पर जीन-एडिटिंग से तैयार किस्मों को मंजूरी मिलने की संभावना है, क्योंकि इस तकनीक के जरिए खाद्यान्न और प्लांटेशन क्रॉप दोनों पर तेजी से काम चल रहा है।
हालांकि जीन-एडिटिंग तकनीक पेटेंटेड है और इसके बौद्धिक संपदा अधिकार मुख्य रूप से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं। इन फसलों को व्यावसायिक रूप से जारी करने से पहले इन कंपनियों से समझौता करना होगा। लेकिन राहत की बात यह है कि जीन-एडिटिंग की एक तकनीक भारतीय वैज्ञानिकों ने भी विकसित कर ली है और उसे पेटेंट मिल चुका है। ऐसे में आने वाले दिनों में जीन-एडिटिंग के जरिए फसलों की किस्में विकसित करने में स्वदेशी तकनीक के इस्तेमाल की संभावना भी बनती है।
कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़ा सरकार का एक और बड़ा फैसला मनरेगा की जगह लेने वाले विकसित भारत रोजगार व आजीविका गारंटी मिशन (वीबी-जी राम जी) विधेयक के रूप में सामने आया। संसद से इसे पारित कराने के बाद इसे कानून के रूप में लागू करने की औपचारिकताएं पूरी हो चुकी हैं। इस कानून को लेकर जहां विपक्ष और अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग विरोध में है और उनका दावा है कि मनरेगा के जरिए पिछले 20 वर्षों से दी जा रही ग्रामीण रोजगार गारंटी के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो गया है, वहीं सरकार का कहना है कि यह एक बेहतर और अधिक व्यवहारिक कानून है।
यह तय है कि यह नया कानून ग्रामीण भारत के सामाजिक और आर्थिक ढांचे पर गहरा असर डालने वाला साबित होगा। हालांकि इसके कई प्रावधानों की व्यवहारिकता को लेकर सवाल अभी भी बने हुए हैं।