किसानों में उत्साह जगाने में क्यों नाकाम रही एथेनॉल नीति?
सरकार का दावा है कि एथेनॉल से गन्ना किसानों को लाभ पहुंचा है। लेकिन किसानों का मानना है कि चीनी मिलें पहले भी राज्य परामर्श मूल्य (SAP) पर भुगतान करती थीं, आज भी वही कर रही हैं। उन्हें अलग से कोई लाभ नहीं मिला।
राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के टिब्बी में जिस तरह से किसान एथेनॉल प्लांट का विरोध कर रहे हैं, उसने एथेनॉल नीति की सफलता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। जिस एथेनॉल को किसानों की आय बढ़ाने के बड़े स्रोत के रूप में प्रचारित किया गया था, उसी एथेनॉल संयंत्र का किसानों द्वारा पुरजोर विरोध यह संकेत देता है कि जमीनी स्तर पर एथेनॉल नीति के लाभ किसानों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
असल में केंद्र सरकार ने पेट्रोल में 20 फीसदी एथेनॉल मिश्रण का लक्ष्य बहुत तेजी से हासिल किया। लेकिन साथ ही कई सारे सवाल भी खड़े हो गये है और सबसे अहम सवाल किसानों द्वारा संयंत्र के विरोध में खड़े होने से सामने आया है।
केंद्र सरकार ने पेट्रोल में एथेनॉल मिश्रण कार्यक्रम (ईबीपी) की शुरुआत मूल रूप से चीनी उद्योग और गन्ना किसानों की मुश्किलों के समाधान के तौर पर की थी। ब्राजील मॉडल के आधार पर अधिक गन्ना उत्पादन वाले वर्षों में चीनी के बजाय एथेनॉल उत्पादन का रास्ता चुना गया। इसके लिए सरकार ने डिस्टिलरी स्थापना से जुड़े नियम सरल किए और वित्तीय प्रोत्साहन दिया।
वहीं, अनाज आधारित एथेनॉल उत्पादन के लिए भी बड़े पैमाने पर संयंत्र लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि देश में एथेनॉल उत्पादन क्षमता तेजी से बढ़कर तेल विपणन कंपनियों की आवश्यकता से लगभग दो गुना हो गई।
चालू एथेनॉल आपूर्ति वर्ष (ईएसवाई 2025-26) में लगभग 1050 करोड़ लीटर की एथेनॉल मांग के मुकाबले आपूर्तिकर्ताओं ने लगभग 1776.49 करोड़ लीटर की पेशकश की। इसमें 1304.86 करोड़ लीटर की पेशकश खाद्यान्न (मक्का और चावल) आधारित एथेनॉल उत्पादक इकाइयों से की गई है और 471.63 करोड़ लीटर की आपूर्ति पेशकश गन्ना आधारित एथेनॉल उत्पादकों ने की।
इस तरह जिस चीनी उद्योग के लिए एथेनॉल कार्यक्रम शुरू हुआ था उसे केवल 27.5 फीसदी आपूर्ति करने का मौका मिला, जबकि बाकी हिस्सेदारी अनाज आधारित संयंत्रों से आएगी। हालांकि, अनाज आधारित एथेनॉल की आपूर्ति भी उत्पादन क्षमता के मुकाबले काफी कम है और कई कंपनियां वित्तीय कठिनाई में फंसने लगी हैं। यह उद्योग के लिए गंभीर आर्थिक चुनौती खड़ी कर सकता है।
ऐसे में हनुमानगढ़ के टिब्बी क्षेत्र में एथेनॉल संयंत्र का सवाल गंभीर हो गया है। यहां खेती के लिए पानी बाहर से लाया जाता है और भूजल स्तर बेहद नीचे है। उद्योग के जानकार मानते हैं कि एक लीटर एथेनॉल उत्पादन के लिए लगभग छह लीटर पानी की जरूरत होती है। ऐसे में राजस्थान जैसे सूखे प्रदेश में बड़े संयंत्र की स्थापना पर सवाल उठना स्वाभाविक है। किसानों के विरोध के चलते सरकार के लिए अब इस परियोजना पर आगे बढ़ना मुश्किल हो गया है।
मक्का की कीमतें गिरीं, किसानों की उम्मीदें टूटीं
एथेनॉल में इस्तेमाल होने के कारण मक्का की मांग को बढ़ावा मिला और किसानों का रुझान भी मक्का की तरफ बढ़ा। दो वर्ष पहले तक पंजाब, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में मक्का किसानों को एमएसपी से बेहतर भाव मिल रहे थे। मक्का की कीमतें 2600 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई थीं, लेकिन इस वर्ष मक्का के अधिक उत्पादन और कीमतों को सहारा देने की पुख्ता व्यवस्था न होने के कारण दम एमएसपी से काफी नीचे गिर गए हैं।
चालू विपणन वर्ष के लिए मक्का का एमएसपी 2400 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि किसान 1200 से 1800 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर मक्का बेचने को मजबूर हैं। यह किसानों में गहरी निराशा पैदा कर रहा है।
एथेनॉल के लिए मक्का की बढ़ती मांग से किसानों की आमदनी बढ़ने की धारणा अब गलत साबित हो रही है। इसके पीछे भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) द्वारा खाने के लिए अनुपयोगी चावल की एथेनॉल उत्पादकों को बिक्री भी एक बड़ी वजह है। 4100 रुपये से अधिक की आर्थिक लगत वाले चावल को एफससीआई पहले 3200 रुपये के रेट पर बेचना चाहता था लेकिन उस दाम पर खरीदार नहीं मिले और उसके बाद इसके दाम घटकर 2250 रुपये प्रति क्विटंल तक आ गये।
कुल मिलाकर मक्का के किसान भी एथेनॉल से मिलने वाले लाभ से वंचित रह जा रहे हैं। ऐसे में यदि डिस्टिलरी को एमएसपी भुगतान का प्रमाण प्रस्तुत करने पर ही एथेनॉल मूल्य मिले, तभी किसानों को बेहतर भाव मिल सकता है। लेकिन फिलहाल ऐसी कोई नीति नहीं है।
उपभोक्ता स्तर पर चुनौतियां
एथेनॉल उद्योग चाहता है कि एथेनॉल ब्लेंडिंग 24 प्रतिशत तक बढ़े लेकिन आम जनता की धारणा इसके अनुकूल नहीं है। एथेनॉल ब्लेंडिंग से माइलेज और इंजन की क्षमता प्रभावित होने को लेकर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। इन आशंकाओं ने एथेनॉल ब्लेंडिंग कार्यक्रम के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है।
तेल कंपनियों को सस्ता एथेनॉल मिल रहा है लेकिन ब्लैंडेड पेट्रोल की कीमत में कोई कमी नहीं आई, जिससे उपभोक्ताओं तक एथेनॉल मिश्रण का कोई सीधा लाभ नहीं पहुंचा। इस स्थिति के चलते सरकार ब्लैंडिंग का स्तर बढ़ाने को लेकर कोई बड़ा फैसला नहीं ले पा रही है। साथ ही ऑटो उद्योग भी फ्लेक्सी फ्यूल जैसी टेक्नोलॉजी लेकर बहुत तेजी से कदम नहीं बढ़ा रहा है।
गन्ना किसान भी लाभ से वंचित
सरकार का दावा है कि एथेनॉल से गन्ना किसानों को लाभ पहुंचा है। लेकिन किसानों का मानना है कि चीनी मिलें पहले भी राज्य परामर्श मूल्य (SAP) पर भुगतान करती थीं, आज भी वही कर रही हैं। यही स्थिति एफआरपी वाले राज्यों में है। हालांकि, सरकार कहती है कि एथेनॉल के चलते किसानों को समय पर गन्ना मूल्य भुगतान में सुधार हुआ है। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से एथेनॉल के रेवेन्यू में हिस्सेदारी नहीं होने से किसान एथेनॉल प्रोग्राम को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है। देश के प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में तो दो साल तक गन्ने का भाव ही नहीं बढ़ा। जबकि गन्ना किसान फसल में रोग और पैदावार में गिरावट के कारण दोहरी मार झेल रहे थे।
एक तरफ किसान सस्ता मक्का बेचने को मजबूर है। गन्ना किसानों को एथेनॉल का अलग से कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिला है। जबकि दूसरी तरफ उपभोक्ता को पेट्रोल के दाम में कोई रियायत नहीं मिली। यही वजह है कि न तो किसानों में और न ही आम जनता में एथेनॉल कार्यक्रम को लेकर कोई उत्साह है। ये परिस्थितियां नीतिगत अस्पष्टता के चलते पैदा हुई है।

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