उपभोक्ता केंद्रित नीतियों का खामियाजा भुगत रहे किसान, अधिकांश फसलों के दाम एमएसपी से नीचे

देश के कई हिस्सों में किसानों के लिए दिवाली फीकी साबित हो रही है क्योंकि कपास, मक्का, सोयाबीन, बाजरा, दालों और कई जगह धान के लिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कम दाम पर अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। सरकार की उपभोक्ता हितों पर केंद्रित नीतियों के चलते जहां देश में खाद्य तेलों, दालों और कपास का आयात बढ़ा है वहीं लगातार बेहतर मानसून के चलते बेहतर उत्पादन ने केंद्रीय पूल में खाद्यान्न भंडार में भारी बढ़ोतरी की है

उपभोक्ता केंद्रित नीतियों का खामियाजा भुगत रहे किसान, अधिकांश फसलों के दाम एमएसपी से नीचे

सरकार द्वारा जीएसटी दरों में कटौती के चलते देश भऱ से जिस तरह की बंपर दिवाली की खबरें आ रही हैं वह किसानों के मामले में सही नहीं है। देश के कई हिस्सों में किसानों के लिए दिवाली फीकी साबित हो रही है क्योंकि कपास, मक्का, सोयाबीन, बाजरा, दालों और कई जगह धान के लिए किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कम दाम पर अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। सरकार की उपभोक्ता हितों पर केंद्रित नीतियों के चलते जहां देश में खाद्य तेलों, दालों और कपास का आयात बढ़ा है वहीं लगातार बेहतर मानसून के चलते बेहतर उत्पादन ने केंद्रीय पूल में खाद्यान्न भंडार में भारी बढ़ोतरी की है। खाद्य महंगाई दर गिरावट के रिकार्ड बना रही है जो अधिकांश कृषि उत्पादों के दाम में गिरावट के चलते ही संभव हुआ है। लेकिन यह स्थिति किसानों के साथ ही सरकार के लिए भी बहुत बेहतर नहीं है क्योंकि जिस तरह की कम कीमत का संकट किसान झेल रहे हैं उसे सरकार बहुत लंबे समय तक अनदेखा नहीं कर सकती है और यह स्थिति केंद्र की मोदी सरकार के लिए नई चुनौती बन सकती है।

बेहतर उत्पादन और कीमतों पर नियंत्रण के लिए उठाये गये कदमों का नतीजा है कि  एक अक्तूबर, 2025 को केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक 320.30 लाख टन रहा जो बफर मानकों का डेढ़ गुना होने के साथ ही चार साल के उच्चतम स्तर पर है। खास बात यह है कि सरकार ने गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन के दावे के साथ ही गेहूं पर स्टॉक लिमिट लागू कर रखी है और उसका निर्यात 2022 से बंद है। वहीं चावल के मामले में स्थिति और बेहतर है एक अक्तूबर, 2025 को केंद्रीय पूल में चावल का स्टॉक 449.30 लाख टन था जो बफर मानक से 4.4 गुना था वहीं खरीफ सीजन में धान की बंपर फसल के चलते इसमें भारी बढ़ोतरी होने जा रही है क्योंकि नया सरकारी खरीद सीजन चल रहा है। धान की सरकारी खरीद पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में बेहतर होती है। वहीं छत्तीसगढ़ सरकार और उड़ीसा सरकार धान पर बोनस भी दे रही है। इसलिए जहां सरकारी खरीद की बेहतर व्यवस्था नहीं है वहां किसानों को धान का एमएसपी मिलने में दिक्कत आ रही है और उत्तर प्रदेश में इसके अधिक मामले आ रहे हैं। 

लेकिन कपास के मामले में स्थिति धान जैसी नहीं है। देश के अधिकांश हिस्सों में कपास किसानों को एमएसपी से 1000 रुपये से 1500 रुपये प्रति क्विंटल तक कम कीमत पर ही अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। चालू मार्केटिंग सीजन के लिए सरकार ने कपास की मीडियम स्टेपल किस्म ले लिए 7710 रुपये और लॉन्ग स्टेपल किस्म के लिए 8110 रुपये प्रति क्विंटल का एमएसपी तय किया है जबकि बाजार में किसानों को 6500 रुपये से 7100 रुपये प्रति क्विंटल की ही कीमत मिल रही है। इसकी बड़ी वजह सरकार द्वारा फसल के बाजार में आने के सीजन में भी शुल्क मुक्त कॉटन आयात की अनुमति को जारी रखना है और दिसंबर के अंत तक देश में करीब 50 लाख गांठ कॉटन का आयात होने का अनुमान है। घरेलू उत्पादन और आयात को मिलाकर कॉटन की देश में उपलब्धता खपत से करीब 30 लाख गांठ अधिक रहने का अनुमान है। जाहिर सी बात है कि किसानों के लिए कपास का एमएसपी मिलना एक चुनौती रहेगा। 

वहीं सोयाबीन की किस्सा बड़ा दिलचस्प है। देश में पिछले साल करीब 17 अरब डॉलर का खाद्य तेल आयात हुआ और हम अपनी जरूरत का 60 फीसदी से ज्यादा खाद्य तेल आयात करते हैं। इसके बावजूद खरीफ सीजन में तिलहन की मुख्य फसल सोयाबीन के किसानों को चालू सीजन का एमएसपी तो मिलना दूर उन्हें पिछले साल के एमएसपी से भी कम दाम में अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। मौसम की मार और फसल में बीमारी लगने से पिछले साल के मुकाबले उत्पादन में 16 फीसदी से अधिक गिरावट के बावजूद सोयबीन किसानों को 4100 रुपये से 4200 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर ही अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। चालू खरीफ मार्केटिंग सीजन लिए सोयाबीन का एमएसपी 5328 रुपयें प्रति क्विंटल है। 

वहीं पिछले दो तीन साल में मक्का के लिए किसानों को बेहतर दाम मिला और यह एमएसपी से उपर भी बिकी क्योंकि एथेनॉल उत्पादन के लिए मक्का का उपयोग काफी बढ़ा और ग्रेन आधारित डिस्टीलरीज से इसकी मांग में काफी इजाफा हुआ। देश में पिछले सप्लाई साल में पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लैंडिंग के लिए आपूर्ति किये गये एथेनॉल में सबसे अधिक हिस्सा मक्का से उत्पादित एथेनॉल का रहा। लेकिन अब स्थिति उलटती दिख रही क्योंकि सरकारी तेल विपणन कंपनियों ने जो एथेनॉल आपूर्ति निविदाएं नए साल के लिए मंगाई हैं उसमें जरूरत से कहीं अधिक आपूर्ति ऑफर आए हैं और उसके चलते ग्रेन आधारित एथेनॉल की आपूर्ति को कम किया जाएगा। वहीं मक्का का उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों ने इस रकबा करीब दस लाख हैक्टेयर बढ़ाकर 95 लाख हैक्टेयर पर पहुंचा दिया। लेकिन इसा किसानों को मक्का का 2400 रुपये प्रति क्विंटल का एमएसपी मिलने की बात तो दूर उन्हें हरियाणा और कर्नाटक जैसे राज्यों में 2000 रुपये से 2100 रुपये प्रति क्विंटल के दाम ही मिल रहे है जबकि मध्य प्रदेश में कीमतें 1500 रुपये प्रति क्विंटल से कम चल रही हैं।
बात केवल इन फसलों पर ही आकर नहीं रुक रही है। दालों पर हमारी आयात पर निर्भरता होने के बावजूद अधिकांश दालें अरहर, मूंग और उड़द जैसी दालों के दाम एमएसपी से नीचे चल रहे हैं। हालांकि सरकार ने हाल में दालों में आत्मनिर्भता मिशन लांच किया है और अगले पांच साल में दाल उत्पादन और उत्पादकता में बढ़ोतरी के महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखे हैं। लेकिन जब तक किसानों को उनकी फसल का वाजिब दाम नहीं मिेलेगा तब तक इस तरह के मिशन की कामयाबी को लेकर संदेह कायम रहेगा क्योंकि देश में दाल और तिलहन मिशन नब्बे के दशक में भी शुरू हुए थे लेकिन इन दोनों फसलों में हमारी आयात निर्भरता में भारी बढ़ोतरी हुई है। 
खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता के लिए सरकार एक मिशन चला रहा है लेकिन जिस तरह से शुल्क दरों में कटौती कर सस्ते खाद्य तेलों के आयात का सहारा कीमतों पर नियंत्रण के लिए लिया गया है वह किसानों के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। 

सरकार ने उपभोक्ता हितों के संरक्षण के लिए जिस तरह के कदम उठाएं हैं उनके चलते उसने महंगाई दर पर अंकुश लगाने में कामयाबी जरूर हासिल कर ली है लेकिन इन नियंत्रण और आयात प्रोत्साहन के फैसलों ने किसानों के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है उनको अपने अधिकांश उत्पादन एमएसपी से नीचे दाम पर बेचने पड़ रहे हैं। किसी एक उपज के मामले में सरकार स्थिति को अनदेखा कर सकती थी लेकिन मौजूदा स्थिति उसके लिए नई चुनौती लेकर आ रहा है ऐसे में अगर आने वाले दिनों में दालों, खाद्य तेलों और कपास जैसे उत्पादों के आयात को लेकर सरकार को अपनी नीति में बदलाव करना पड़ सकता है क्योंकि किसानों के लिए बेहतर दाम का माहौल उसे बनाना पड़ेगा क्योंकि किसानों की नाराजगी का राजनीतिक जोखिम सरकार उठाना नहीं चाहेगी। 

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