सेवा क्षेत्र की ग्रोथ चरम पर पहुंच चुकी है और यह 1990 से 2010 तक के दशकों की तरह रोजगार उत्पन्न नहीं कर रही है। मैन्युफैक्चरिंग पूंजी-प्रधान होती जा रही है और ऑटोमेशन बढ़ने से श्रमिक बाहर हो रहे हैं। ऐसे में इस बात पर व्यापक सहमति बन रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की भूमिका लगातार बढ़ती जाएगी। कृषि क्षेत्र को न केवल उत्पादन बढ़ाना होगा, बल्कि वैल्यू एडिशन के जरिए रोजगार भी उत्पन्न करने होंगे। लेकिन यह तभी संभव है जब भारतीय किसानों को अपनी उपज के लिए ऐसे बाजार मिलें जहां उन्हें बेहतर मूल्य प्राप्त हो सके। इसके लिए किसानों को घरेलू के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजारों की भी आवश्यकता है। रूरल वर्ल्ड का यह अंक कृषि निर्यात पर केंद्रित है। वर्ष 2024-25 में भारत का कृषि निर्यात लगभग 51 अरब डॉलर रहा। क्या हम 2030 तक इसे बढ़ाकर 100 अरब डॉलर तक ले जा सकते हैं?
कृषि निर्यात के मोर्चे पर सकारात्मक नतीजे आ भी रहे हैं, मसलन 2024-25 में बासमती और गैर-बासमती चावल का निर्यात एक लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया, मरीन उत्पादों का निर्यात 60 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है, फल-सब्जी, डेयरी और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों का निर्यात बढ़ रहा है और ऑर्गेनिक उत्पादों का निर्यात 35 फीसदी बढ़ा है। अगर हम यह गति जारी रखें और निर्यात पर केंद्रित नीतिगत फैसले, नियम और जरूरी प्रोत्साहन के साथ ढांचागत सुविधाओं पर निवेश बढ़ाएं तो 100 अरब डॉलर के कृषि निर्यात का लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।
यह बहुत ही महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, इसलिए सरकार को जरूरी नीति और निवेश पर फोकस करना होगा। हालांकि यह राह बहुत आसान नहीं है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने रेसिप्रोकल टैरिफ से वैश्विक व्यापार के मोर्चे पर उथल-पुथल मचा रखी। इसके साथ ही मल्टीलेटरल और नियम आधारित इंटरनेशनल ट्रेड की डब्लूटीओ व्यवस्था के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े कर दिये हैं। नतीजा, क्षेत्रीय और द्विपक्षीय ट्रेड एग्रीमेंट (एफटीए) तेजी से अस्तित्व में आ रहे हैं। इनके अपने फायदे और नुकसान हैं, लेकिन हकीकत यह है कि हमें नई वास्तविकता को स्वीकार कर रणनीति बनानी होगी।
हमारे ज्यादातर कृषि उत्पाद निर्यात कमोडिटी श्रेणी में हैं और वैश्विक बाजार में कीमतें इनको सीधे प्रभावित करती हैं। घरेलू स्तर पर भी इनकी कीमतें सरकार को निर्यात से संबंधित फैसले लेने को बाध्य करती हैं, जो कई बार निर्यात के खिलाफ जाते हैं। इन उत्पादों की गुणवत्ता बड़ी चुनौती हैं। अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के अलावा कई एशियाई देशों में भी गुणवत्ता के मानक काफी सख्त हैं। सेनेटरी और फाइटोसेनेटरी मानक भी हमारे निर्यात में बाधक बनते हैं और कई देश नॉन-टैरिफ बैरियर के रूप में इनका इस्तेमाल करते हैं। हमें किसानों के स्तर पर ही गुड एग्रीकल्चरल प्रैक्टिसेज (जीएपी) पर काम करने की जरूरत है। इसके लिए सरकार और निर्यातक दोनों को मिलकर एक्सटेंशन का ढांचा दुरुस्त करना पड़ेगा।
फिलहाल हमारे कृषि निर्यात में ज्यादातर हिस्सा करीब आधा दर्जन उत्पादों का है। इस बास्केट को बड़ा करने के साथ नए निर्यात बाजार भी तलाशने की जरूरत है। निर्यात सुविधाओं पर बड़े निवेश की जरूरत है क्योंकि निर्यात का बड़ा हिस्सा पेरिशेबल (जल्दी खराब होने वाले) उत्पादों का है। इनके लिए पैक हाउस से लेकर ग्रेडिंग और सॉर्टिंग के साथ खास पैकेजिंग और स्टोरेज व ट्रांसपोर्टेशन की जरूरत है। पोर्ट और एयरपोर्ट पर भी विशेष स्टोरेज चाहिए। इन सुविधाओं पर तो सरकार को ही निवेश करना होगा। तमाम उत्पाद ऐसे हैं जिनकी हैंडलिंग के लिए विशिष्ट कौशल वाले श्रमिकों की जरूरत है।
रूरल वर्ल्ड के इस अंक में हमने यह बताने की कोशिश की है कि 100 अरब डॉलर के कृषि निर्यात लक्ष्य के लिए किस तरह के नीतिगत फैसलों, उत्पादन और निवेश की जरूरत है। इस विषय पर आईआईएफटी के कुलपति प्रो. राकेश मोहन जोशी, काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट के विशिष्ट प्रोफेसर बिश्वजीत धर, एनसीईएल के एमडी अनुपम कौशिक, अगवाया एलएलपी के पार्टनर सिराज ए. चौधरी के लेख हैं। एपीडा चेयरमैन अभिषेक देव का साक्षात्कार भी इस विषय पर केंद्रित है। आईसीएआर महानिदेशक और कृषि शिक्षा विभाग (डेयर) के सेक्रेटरी डॉ. मांगी लाल जाट का साक्षात्कार भी इस अंक का हिस्सा है। उम्मीद है कि रूरल वर्ल्ड का यह अंक कृषि एवं संबद्ध क्षेत्रों के विकास के लिए हमारे ईमानदार प्रयास के रूप में देखा जाएगा।
(यह लेख सर्वप्रथम रूरल वर्ल्ड मैगजीन के मई-जुलाई 2025 अंक में संपादकीय टिप्पणी के रूप में प्रकाशित हुआ है)