चुनाव में महंगाई कोई मुद्दा नहीं? इतनी जल्दी नतीजे पर न पहुंचें

जो लोग यह तर्क देते हैं कि पेट्रोल के बढ़ते दाम या घर का बजट बढ़ना मतदाताओं के लिए कोई मुद्दा नहीं है, उनकी बात कम से कम आंशिक रूप से तो ठीक है ही। लेकिन हमें पूरी तरह इस नतीजे पर पहुंचने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लगातार दूसरी बार सरकार बनाने के बाद यह धारणा मजबूत होने लगी है कि लोगों के जीवन से जुड़े महंगाई जैसे मुद्दे चुनाव में क्या कोई मायने नहीं रखते हैं! भारतीय जनता पार्टी ने राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश के अलावा तीन और राज्यों उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सत्ता में वापसी की है।

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे उठाए। उन्हें ज्यादा वोट शेयर के रूप में इसका लाभ भी मिला लेकिन वह भाजपा की चुनावी मशीनरी का मुकाबला नहीं कर सके जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके भरोसेमंद गृह मंत्री अमित शाह के हाथों में था। अंततः पेट के सवाल पर ध्रुवीकरण का अभियान भारी पड़ा।

तो क्या हम यह कह सकते हैं कि सत्तारूढ़ दल को महंगाई की कोई राजनीतिक कीमत कभी नहीं चुकानी पड़ेगी? मीडिया के 24 घंटे चलने वाले शोर, जिसमें सोशल मीडिया भी शामिल है, में चुनाव अब बिल्कुल अलग तरह का खेल हो गए हैं। अब चुनाव इस आधार पर जीते जाते हैं कि जमीनी हकीकत से ज्यादा लोगों की धारणाओं को अपने पक्ष में करने के लिए आपने कैसी रणनीति बनाई है।

जो लोग यह तर्क देते हैं कि पेट्रोल के बढ़ते दाम या घर का बजट बढ़ना मतदाताओं के लिए कोई मुद्दा नहीं है, उनकी बात कम से कम आंशिक रूप से तो ठीक है ही। लेकिन हमें पूरी तरह इस नतीजे पर पहुंचने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। आप पंजाब को देखिए जहां आम आदमी पार्टी ने महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाकर तथा खराब गवर्नेंस के मुद्दे पर प्रदेश की दो प्रमुख पार्टियों को झाड़ू मार दिया। 

मूल्य वृद्धि के विषय पर बात करें तो हालात वास्तव में खराब हैं। थोक मूल्य सूचकांक लगातार 11 महीने से दहाई अंकों में है। खुदरा महंगाई भी 6 फ़ीसदी से अधिक है जो रिजर्व बैंक के 4 फ़ीसदी (2 फ़ीसदी कम या ज्यादा) के लक्ष्य से ऊपर है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्ति कांत दास ने भी महंगाई के परेशान करने वाले आंकड़ों को यह कह कर खारिज करने की आदत बना ली है कि यह आंकड़े ट्रांजिटरी हैं। कोई नहीं जानता कि इस शब्द के जरिए वे क्या कहना चाहते हैं। हम जानते हैं कि ट्रांजिटरी शब्द का अर्थ अस्थाई या गुजरता हुआ होता है। 130 करोड़ भारतीयों की अर्थव्यवस्था एक साल से ऊंची महंगाई दर से जूझ रही है और आरबीआई गवर्नर इसे ट्रांजिटरी कहकर खारिज कर रहे हैं। दास जानते हैं कि वह क्या कह रहे हैं लेकिन वह बढ़ती कीमतों की अनदेखी करना जारी रखेंगे। जबकि इस महंगाई ने छोटी बचत करने वालों के रिटर्न को नेगेटिव बना दिया है और आम परिवार इसकी पीड़ा झेल रहे हैं।

फरवरी 2022 में थोक महंगाई दर 13.11 फ़ीसदी और खुदरा महंगाई दर 6.07 फ़ीसदी थी। यह स्थिति तब है जब नवंबर 2021 से हाल तक पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी नहीं की गई थी। अलिखित आदेश हटने के बाद इनके दाम फिर से बढ़ने लगे हैं और विभिन्न राज्यों में इनकी कीमत 100 रुपए प्रति लीटर के आसपास पहुंच गई है। लगभग 5 महीने तक पेट्रोल और डीजल के दाम ना बढ़ने के बावजूद फरवरी में ईंधन और बिजली सेगमेंट की थोक महंगाई 31.5 फ़ीसदी थी। पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोतरी एक बार फिर शुरू होने के बाद जब मार्च आंकड़े आएंगे तब देखिए क्या होता है।

इस मूल्यवृद्धि की एक और खास बात है कि सभी सेगमेंट इससे प्रभावित हैं, चाहे वह प्राइमरी वस्तुओं का हो (13.39 फ़ीसदी), मैन्युफैक्चरिंग हो (9.84 फ़ीसदी) या खाद्य पदार्थ हो (8.47 फ़ीसदी)। कोई यह सवाल कर सकता है कि इस विश्लेषण में खुदरा महंगाई के बजाय थोक महंगाई पर इतना फोकस क्यों किया गया है? रिजर्व बैंक तो पॉलिसी दरें तय करते समय खुदरा महंगाई को ध्यान में रखता है। इसका जवाब यह है कि किसी भी सप्लाई चेन का शुरुआती बिंदु थोक स्तर पर ही होता है। अगर वहां ऊंची कीमतें लगातार बनी रहीं तो उसका असर उपभोक्ताओं पर पड़ना तय है। 

थोक महंगाई और खुदरा महंगाई के बीच इतना अंतर इतने लंबे समय तक पहले कभी नहीं रहा। इसके दो कारण हो सकते हैं। पहला, कोविड-19 महामारी का असर कम होने और प्रतिबंध हटने के बाद भी सप्लाई चेन अभी तक बाधित है और दूसरा, कम मांग के कारण खुदरा व्यापारियों की स्थिति खराब है। हम एक ऐसी परिस्थिति से गुजर रहे हैं जहां मांग बढ़ने की वजह से महंगाई ज्यादा नहीं है, बल्कि महंगाई ऐसे कारणों से है जिनकी व्याख्या करना मुश्किल है।

आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि इंडस्ट्री को बढ़ती कीमतों का फायदा नहीं हो रहा है। वह ऐसी परिस्थिति का सामना कर रही है जहां कच्चे माल की लागत तो काफी बढ़ गई है लेकिन दूसरी तरफ उत्पादन नहीं बढ़ पा रहा है। जनवरी में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक मुश्किल से 1.3 फ़ीसदी बढ़ा है। थोक महंगाई और खुदरा महंगाई के बीच एक और अंतर यह है कि थोक महंगाई में मैन्युफैक्चरिंग का वेटेज 64 फ़ीसदी है, खुदरा महंगाई में सबसे अधिक 46 फ़ीसदी वेटेज खाने पीने की चीजों को दिया गया है।

औद्योगिक महंगाई का मुख्य कारण बेसिक मेटल, टेक्सटाइल, कागज और उसके उत्पाद, केमिकल और इसके उत्पाद हैं। थोक मंडियों में अनाज, तिलहन और रसोई में इस्तेमाल होने वाले अन्य चीजों के दाम भी काफी ऊंचे हैं। तिलहन के दाम 22.88 फ़ीसदी, गेहूं के 11.03 फ़ीसदी और सब्जियों के 26.93 फ़ीसदी बढ़े हैं।

चार राज्यों के चुनाव नतीजों पर महंगाई का असर भले ना दिखता हो, इसे मुद्दा के रूप में स्वीकार ना करना आत्म संतुष्टि के सिवाय और कुछ नहीं।