यूपी में क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष और जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव : ग्रामीण स्व-शासन व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी

ग्रामीण विकास मंत्री जी.वेंकटस्वामी ने पंचायत बिल( संविधान में 73वां संशोधन) को संसद मे पेश करते हुए कहा था कि यह केंद्र और राज्यों की जिम्मेदारी बनती है कि वह पंचायतों की स्थापना करें और विधान परिषद पंचायतों को एक प्रभावी स्वशासी संस्थाएं बनाने मे सहयोग करें। इस बिल को पेश करके सरकार ने महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार किया है। पर आज लगभग तीन दशकों के बाद क्या बिल में कही गई बातें सच में  पूरी हो रही हैं? क्या सही मायनों मे गांधी जी का सपना पूरा हुआ है ? राज्यों की जिस भूमिका का वर्णन किया गया था वह भूमिका आज दिखती क्यों नही?

यूपी में क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष और जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव :  ग्रामीण स्व-शासन व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी
रालोद और सपा की संयुक्त जिला पंचायत अध्यक्ष प्रत्याशी नामांकन के बाद अपने समर्थकों के साथ

अगर कोई कहे कि पंचायत प्रणाली भ्रष्टाचार के मुख्य केंद्र में तब्दील होती जा रही है तो अब इस पर हमें ज्यादा अचरज भी नहीं होगा। यह बात कहते हुए मुझे बहुत पीड़ा होती है क्योंकि लगभग तीन दशक पहले जब पंचायत प्रणाली को संविधान में जगह मिली तब किसी को इसका अनुमान भी नहीं था कि स्थानीय ग्रामीण सरकारों के स्तर में कुछ इस कदर गिरावट आएगी कि वह महज एक पैसे छापने वाली एक व्यवस्था बन कर रह जाएगी । ऐसे अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं जो इस बात की पुष्टी करते हैं। हाल ही की बात करें तो उत्तर प्रदेश में होने जा रहे  क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष चुनाव और जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव भी पंचायत प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार का प्रमाण हैं। जिला पंचायत के 75 अध्यक्षों का चुनाव होना है जिनमें 3050 सदस्य निर्वाचक-गण होंगे । इसी तरह 75,852 निर्वाचक- गण के साथ 826 क्षेत्र पंचायत अध्यक्षों का चुनाव होना है ।

इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, यह बात स्पष्ट करने की जरूरत है कि उत्तर प्रदेश में  ब्लॉक स्तर (इंटरमीडियरी) और जिला स्तर (अपेक्स) पर हो रहे क्षेत्र प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष के अप्रत्यक्ष रूप (इनडायरेक्ट)  से हो रहे चुनाव संविधान के अधिनियम के मुताबिक हो रहे हैं। जबकि सबसे निचले स्तर (टियर-वन) यानी पंचायत के चुनावों का आयोजन राज्य विधान सभा पर छोड़ दिया गया है। इस तरह से केवल ग्राम पंचायत के चुनावों का आयोजन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से हो रहा है। लेकिन ज्यादातर राज्यों में ग्राम पंचायत का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से ही हो रहा है।

चुनाव प्रचार जारी है। जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनावों के लिए 3 जुलाई, 2021 की तारीख निर्धारित की गई है जबकि ब्लॉक प्रमुख के चुनावों के लिए अभी तारीखों की घोषणा बाकी है । हालांकि इससे पहले भी चुनाव की तारीखों की घोषणा की गई थी लेकिन कोरोना महामारी के चलते इन चुनावों को टाल दिया गया। भले ही यह चुनाव किसी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर नहीं हो रहे हैं लेकिन राजनीतिक दल इन चुनावों में काफी सक्रिय हैं । पहले ऐसा नहीं होता था क्योंकि पहले पंचायत के स्तर पर व्यय के लिए अधिक वित्तीय संसाधन नहीं होते ते। लेकिन अब राज्य  वित्त आयोग से पंचायतों को पैसा ट्रांसफर किया जा रहा है। वहीं केंद्रीय प्रायोजित योजनाएं और राज्य प्रायोजित योजनाओं के तहत भी पंचायत तक पैसा पहुंचाया जा रहा है। प्रदेश की पंचायतों को केन्द्र सरकार से पंद्रहवें वित्त आयोग (एफएफसी)  की सिफारिशों के तहत 2021-22 से 2025-26 तक अगले पांच वित्त वर्षों में 38,012 करोड़ रुपये मिलेंगे। एफएफसी ने क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत को फंड के हस्तांतरण की भी सिफारिश की है जबकि क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के लिए 14 वें वित्त आयोग ने वित्तीय संसाधनों की सिफारिश नहीं की थी। यह भी एक मुख्य कारण है कि इन स्तरों के चुनाव इतने अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। सांसद, विभिन्न राजनीतिक दलों के विधायक और नेता मतदाताओं को अपने उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने के लिए विभिन्न तरीकों से प्रलोभन की रणनीति अपनाकर  दबाव बना रहे हैं। विभिन्न दलों द्वारा इसमें प्रशासन के दुरुपयोग के भी आरोप लगाये जा रहे हैं। चौपालों, बैठकों और सोशल मीडिया पर मतदाताओं को खरीदे जाने जैसे आरोपों और मुद्दों पर एक तीखी बहस छिड़ी हुई है। लेकिन आखिर इस खतरे की जांच कैसे करें ? यह जानना काफी निराशाजनक है कि यह चुनाव धनबल, बाहुबल और राजनीतिक शक्ति की त्रिमूर्ति बन कर रह गए हैं। महिला सशक्तिकरण के दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो  यह महिलाओं के अशक्तीकरण का ही प्रतीक हैं क्योंकि यहां उनकी भूमिका निर्दिष्ट स्थान पर अंगूठा लगाने (मूक सहमति) के अलावा और कुछ नहीं है।

 उत्तर प्रदेश में एक बीडीसी सदस्य 2000 की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है और जिला परिषद सदस्य 40,000 की आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्वाचन क्षेत्रों के मतदाताओं से विकासात्मक गतिविधियों के लिए बात और परामर्श करे। लेकिन जब वह अपने गांवों में ही नहीं हैं तो वह सलाह कैसे ले सकते हैं। वास्तविक अर्थों में देखा जाए तो उन्हें इन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनका मकसद केवल पैसा कमाना है। दिलचस्प बात यह है कि मुख्यधारा का मीडिया भी इन सवालों को सही तरीके से और बड़े पैमाने पर नहीं उठाता है क्योंकि इसमें मीडिया संस्थानों को भी उम्मीदवारों के जरिये वित्तीय हित साधने होते हैं। एक व्यक्ति ने उत्तर प्रदेश में वर्तमान परिस्थिति को इन शब्दों में बयां किया, “ राजनीतिक दलों और नेताओं का मुख्य मकसद विकास नहीं बल्कि पैसा कमाना है ”। ऐसे में अगर पंचायती राज व्यवस्था की बात करें तो  जनभागीदारी, महिला सशक्तिकरण, आम लोगो को सत्ता , स्वशासन आदि केवल मिथ्या  हैं। ओबीसी और दलितों का आरक्षण भी केवल एक मिथ्या मात्र लगता है क्योंकि उम्मीदवार के चयन की प्रक्रिया भी केवल  उसकी धन शक्ति पर ही निर्भर करती है। पंचायतों में अच्छा काम करने वाले लोगों, ग्रामीण विकास के लिए काम कर रहे लोगों और सच्चे सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव में कोई जगह नहीं बची है।

आइए हम वर्तमान के संदर्भ में बात करते हुए पंचायती राज व्यवस्था से संबंधित  विधेयक के लोकसभा में पेश होने के मकसद और तय की गई सरकार की जिम्मेदारियों को एक बार फिर याद करने की कोशिश करते हैं । उस समय के ग्रामीण विकास मंत्री जी.. वेंकटस्वामी ने पंचायत बिल( संविधान में 73वां संशोधन) को संसद मे पेश करते हुए कहा था, “यह केंद्र और राज्यों की जिम्मेदारी बनती है कि वह पंचायतों की स्थापना करें और विधान परिषद पंचायतों को एक प्रभावी स्वशासी संस्थाएं बनाने मे सहयोग करें। इस बिल को पेश करके सरकार ने महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार किया है"। पर आज लगभग तीन दशकों के बाद क्या बिल में कही गई बातें सच में  पूरी हो रही हैं? क्या सही मायनों मे गांधी जी का सपना पूरा हुआ है ? राज्यों की जिस भूमिका का वर्णन किया गया था वह भूमिका आज दिखती क्यों नही? अगर चुने गए प्रतिनिधि का मकसद सिर्फ पैसा कमाना है तो फिर वह किस अधिकार से केंद्र और राज्य सरकार से पंचायतों के लिए कार्यात्मक स्वायत्तता, वित्तीय स्वायत्तता और प्रशासनिक स्वायत्तता का दावा करते हैं । क्या उन्होंने उत्तर प्रदेश पंचायती राज अधिनियमों को देखा और पढ़ा है? शायद उन्हें यह मालूम नहीं है कि उत्तर प्रदेश में क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के लिए अलग –अलग अधिनियम हैं । क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत की ग्राम पंचायत द्वारा तैयार की गई ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) को समेकित और एकीकृत करने में क्या भूमिका है ? क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत को प्रभावी ढंग से कार्य करने के लिए कृषि  उद्योग एवं निर्माण समिति, शिक्षा एवं जन स्वास्थ्य समिति, नियॉन समिति, निर्वहन के लिए समता समिति, कार्य और विट्टा समिति जैसी विभिन्न समितियों का गठन किया जाना चाहिए जिनमे सदस्यों की भागीदारी के साथ सारे कार्य हों । लेकिन परेशानी तो यह है कि  यहां तो ' ना बाप बड़ा ना  भैया सबसे बड़ा रुपैया '  ही  समितियों के प्रमुख सदस्यों का मूल मंत्र है। ऐसे मे एफएफसी द्वारा पंचायत के लिए फंड को जारी करने के लिए क्या शर्तें रखी गई हैं ?  क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के सदस्यों की क्या जिम्मेदारियां हैं ? एसडीजी क्या है?  और पंचायत स्तर पर इनका स्थानीयकरण कैसे हो सकता है? ऐसे कौन से क्षेत्र हैं जहां ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए ?

आखिर में सबसे महत्वपूर्ण बात कि ,73वें संविधान संशोधन के अंतर्गत संविधान की 11वीं अनुसूची में  सूचीबद्ध 29 विषयों सहित आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए क्षेत्र पंचायतों और जिला पंचायतों से योजनाएँ तैयार करने की अपेक्षा की गई है ।  इसका मतलब है कि  योजना तैयार करने का अर्थ सिर्फ गांव की आय और संपत्ती मे वृद्धि लाना नहीं है बल्कि समानता स्थापित करना भी है । मौजूदा स्थिति में इसकी अपेक्षा  कैसे की जाए जब राज्य के ग्रामीण इलाकों में चुनाव आयोजित किए जा रहे हैं।

 

( लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के सेवानिवृत्त हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं )

 

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