आईआईटी मंडी ने पोर्क टैपवर्म का टीका बनाने की ओर बढ़ाया एक और कदम

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मंडी के शोधकर्ताओं ने सुअर के मांस से संबंधित टैपवर्म (T. solium) के टीकों के विकास में महत्वपूर्ण प्रगति हासिल की है। यह शोध स्कूल ऑफ बायोसाइंसेस और बायोइंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अमित प्रसाद के नेतृत्व में किया गया है। यह टैपवर्म पेट के संक्रमणों के अलावा उच्च गंभीर मस्तिष्क संक्रमण के लिए भी जिम्मेदार है जिससे मिर्गी भी होती है। इस शोध को पंजाब के दयानंद मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल के वैज्ञानिकों एवं हिमाचल प्रदेश के सीएसआईआर-हिमालयन बायोरिसोर्स प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों के सहयोग से किया गया है। यह शोध चुनौतीपूर्ण संक्रामक बीमारियों के लिए टीकों का उत्पादन करने के लिए अधिक प्रभावी है।

आईआईटी मंडी ने पोर्क टैपवर्म का टीका बनाने की ओर बढ़ाया एक और कदम
शोधकर्ताओं की अपनी टीम के साथ आईआईटी मंडी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अमित प्रसाद (दाएं से तीसरे)।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मंडी के शोधकर्ताओं ने सुअर के मांस से संबंधित टैपवर्म (T. solium) के टीकों के विकास में महत्वपूर्ण प्रगति हासिल की है। यह शोध स्कूल ऑफ बायोसाइंसेस और बायोइंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अमित प्रसाद के नेतृत्व में किया गया है। यह टैपवर्म पेट के संक्रमणों के अलावा उच्च गंभीर मस्तिष्क संक्रमण के लिए भी जिम्मेदार है जिससे मिर्गी भी होती है। इस शोध को पंजाब के दयानंद मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल के वैज्ञानिकों एवं हिमाचल प्रदेश के सीएसआईआर-हिमालयन बायोरिसोर्स प्रौद्योगिकी संस्थान के वैज्ञानिकों के सहयोग से किया गया है। यह शोध चुनौतीपूर्ण संक्रामक बीमारियों के लिए टीकों का उत्पादन करने के लिए अधिक प्रभावी है।

आईआईटी मंडी ने एक बयान में कहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने पोर्क टैपवर्म को खाद्य जनित बीमारियों से होने वाली मौतों का एक प्रमुख कारण माना है। इससे दिव्यांगता के साथ ही जीवन का भी नुकसान होता है। विकासशील देशों में 30 फीसदी मिर्गी के मामलों में इसका योगदान है जो गंदगी और स्वतंत्र रूप से घूमते फिरते सुअरों वाले क्षेत्रों में 45-50 फीसदी तक बढ़ सकता है। उत्तर भारत में मस्तिष्क संक्रमण का प्रसार चिंताजनक रूप से 48.3 फीसदी के उच्च स्तर पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के "2030 रोडमैप ऑफ नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज" का उद्देश्य टी. सोलियम और इसी तरह के संक्रमणों का मुकाबला करना है जिनसे वैश्विक स्तर पर 1.5 अरब लोग प्रभावित होते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए एल्बेंडाजोल और प्राजिक्वेंटेल जैसी कृमिनाशक दवाओं का बड़े पैमाने पर सेवन कराया जा रहा है लेकिन इसमें सार्वजनिक भागीदारी में कमी और दवा प्रतिरोध के बढ़ते जोखिमों के कारण कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस वजह से इससे वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। इसलिए डॉ. अमित प्रसाद ने लोगों को पोर्क टैपवर्म से बचाने के लिए टीका  बनाने की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया है।

परंपरागत रूप से टैपवर्म से संबंधित टीके टैपवर्म के अंडों या लार्वा से प्राप्त उत्पादों या एंटीजन का उपयोग करके विकसित किए गए हैं। हालांकि ये तरीके हमेशा विश्वसनीय नहीं होते हैं और इनमें काफी समय भी लग सकता है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करने के लिए पूरे टैपवर्म या टैपवर्म के कुछ हिस्सों को इंजेक्ट करना एक सुरक्षित या व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं है। जबकि एक बेहतर और सुरक्षित तरीका यह है कि टैपवर्म से केवल विशिष्ट प्रोटीन या अंशों को मानव में इंजेक्ट किया जाए। यह प्रक्रिया दुष्प्रभावों को कम करती है और टैपवर्म को टीके के प्रति प्रतिरोध विकसित करने से रोकती है।

अपने इस शोध के बारे में प्रोफेसर डॉ. अमित प्रसाद ने कहा, "इस शोध में सबसे पहले हमने टैपवर्म के सिस्ट तरल पदार्थ के विशिष्ट एंटीजन की पहचान की है जो रोगियों के रक्त सीरम के साथ परीक्षण करके प्रतिरक्षा प्रणाली की पहचान करते हैं। इसके बाद हमने सुरक्षित और प्रभावी प्रोटीन टुकड़े खोजने के लिए प्रतिरक्षा-सूचना विज्ञान उपकरणों का उपयोग करके इन एंटीजन का विश्लेषण किया है। हमने आकार, स्थिरता और प्रतिरक्षा प्रणाली के साथ अनुकूल कारकों को ध्यान में रखते हुए एक मल्टी-पार्ट वैक्सीन बनाने के लिए इन टुकड़ों को संयोजित किया है।"

शोधकर्ताओं ने पाया कि टीका प्रतिरक्षा रिसेप्टर्स के साथ प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया करता है और इससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावी रूप से प्रोत्साहित करने की उम्मीद की जानी चाहिए। यह शोध भविष्य में इसी तरह के परजीवियों के कारण होने वाली उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारियों के खिलाफ टीके विकसित करने के लिए एक आधार प्रदान करता है। इस आशाजनक वैक्सीन की सुरक्षा और इसके प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए अभी पशु और नैदानिक ​​अध्ययन की आवश्यकता है।

इस शोध कार्य के विवरण को अमेरिका के जर्नल ऑफ सेल्युलर बायोकैमिस्ट्री में प्रकाशित किया गया है। इसके सह-लेखक डॉ. रिमनप्रीत कौर, प्रोफेसर गगनदीप सिंह, डॉ. नैना अरोड़ा, डॉ. राजीव कुमार, श्री सूरज एस. रावत और डॉ. अमित प्रसाद हैं।

 

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