कृषि में आत्मनिर्भरता के लिए रिसर्च पर खर्च बढ़ाना जरूरी - रूरल वॉयस कॉन्क्लेव में विशेषज्ञों की राय

मीडिया प्लेटफॉर्म रूरल वॉयस के सालाना समारोह ‘रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव एंड अवार्ड्स 2025’ में कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों ने परिचर्चा में अपनी यह राय दी। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार जटिल होता है तथा कृषि निर्यात में अनिश्चितता और बढ़ जाती है। जो सबसे सस्ता पैदा करेगा, वही सर्वाइव करेगा। इसलिए निर्यात-आयात को गौरव से जोड़ने का नजरिया ठीक नहीं है

कृषि में आत्मनिर्भरता के लिए रिसर्च पर खर्च बढ़ाना जरूरी - रूरल वॉयस कॉन्क्लेव में विशेषज्ञों की राय

किसानों को शोध और टेक्नोलॉजी का लाभ उपलब्ध कराने के लिए अधिक निवेश की जरूरत है। बिना रिसर्च के टेक्नोलॉजी का विकास नहीं होगा और भारतीय कृषि दूसरे देशों के आगे टिक नहीं पाएगी। श्रमिकों की समस्या को देखते हुए भी हमें ऐसी टेक्नोलॉजी की जरूरत है जिससे किसान उत्पादकता बढ़ा सकें। मीडिया प्लेटफॉर्म रूरल वॉयस के सालाना समारोह रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव एंड अवार्ड्स 2025’ में कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों ने परिचर्चा में अपनी यह राय दी। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार जटिल होता है तथा कृषि निर्यात में अनिश्चितता और बढ़ जाती है। जो सबसे सस्ता पैदा करेगा, वही सर्वाइव करेगा। इसलिए निर्यात-आयात को गौरव से जोड़ने का नजरिया ठीक नहीं है। 

रूरल वॉयस के इस कॉन्क्लेव की थीम ‘आत्मनिर्भर भारत के लिए आत्मनिर्भर किसान’ थी। कॉन्क्लेव में तीन तकनीकी सत्र थे। पहला सत्र ‘समृद्ध किसान: इनोवेशन एवं तकनीक की भूमिका’ विषय पर था। सत्र के मॉडरेटर रूरल वॉयस के एडिटर-इन-चीफ हरवीर सिंह ने पैनलिस्ट्स से सवाल किया, बार-बार कहा जा रहा है कि कृषि में आरएंडडी का बजट कृषि जीडीपी का एक प्रतिशत करने की जरूरत है। इसमें बाधा क्या है? उन्होंने विशेषज्ञों से यह भी पूछा कि क्या सरकारी संस्थान पहले से उपलब्ध क्षमता का पूरा इस्तेमाल कर पा रहे हैं।

54 हजार करोड़ की जगह सिर्फ 20 हजार करोड़ रुपये खर्चः ए.के. सिंह

ICAR-IARI के पूर्व निदेशक डॉ. ए. के. सिंह ने कहा कि अभी भारत की जीडीपी 300 लाख करोड़ रुपये है जिसमें 18 प्रतिशत के हिसाब से कृषि का योगदान लगभग 54 लाख करोड़ रुपये है। इसका एक प्रतिशत 54 हजार करोड़ रुपये आरएंडडी पर खर्च होना चाहिए, जबकि अभी सिर्फ 20 हजार करोड़ रुपये शोध और शिक्षा पर खर्च हो रहे हैं। यह अपर्याप्त है। किसानों को शोध और टेक्नोलॉजी का लाभ मिले, इसके लिए अधिक निवेश की जरूरत है।

उन्होंने कहा कि वर्ष 2024-25 में कुल खाद्यान्न उत्पादन 35.8 करोड़ टन रहा। हर साल 54 हजार करोड़ रुपये का बासमती चावल निर्यात होता है। कुल 52 अरब डॉलर के कृषि निर्यात में 10-12 अरब डॉलर बासमती चावल है। बासमती पर एमएसपी नहीं है, फिर भी किसानों को अच्छी कीमत नहीं मिलती है। छत्तीसगढ़ में तो मोटे धान की खरीद बासमती से अधिक कीमत पर हुई।

देश में सॉयल टेस्टिंग तो हो रही है लेकिन किसानों को उनकी जमीन की जरूरत के अनुसार कस्टमाइज्ड नहीं मिलता, इस सवाल पर डॉ. सिंह ने कहा कि हमें बायो फर्टिलाइजर और केमिकल फर्टिलाइजर के प्रति समन्वित दृष्टिकोण अपनाना होगा। भारत में 60 वर्षों से बायो फर्टिलाइजर पर काम चल रहा है, लेकिन इसका प्रयोग उतना नहीं बढ़ सका। उन्होंने कहा कि उत्पादन, प्रसंस्करण और वितरण जिनके हाथों में है वे उतने सक्षम नहीं है। अगर केमिकल फर्टिलाइजर बनाने वाली कंपनियों को बायो फर्टिलाइजर बनाने और वितरण की जिम्मेदारी दी जाए तो इससे क्वालिटी बायो फर्टिलाइजर की उपलब्धता बढ़ेगी।

आरएंडडी पर 10-12 प्रतिशत खर्च निजी क्षेत्र काः राजेन्द्र बरवाले

म्हाइको प्राइवेट लिमिटेड के चेयमरैन डॉ. राजेन्द्र बरवाले ने कहा, सरकार जब खर्च करती है तो उसका दृष्टिकोण अलग होता है, लेकिन निजी क्षेत्र को बैंकों को नफा-नुकसान के बारे में बताना पड़ता है। उन्हें अपना खर्च निकालने का मौका मिलना चाहिए, जिसमें आज की व्यवस्था कमजोर है। आज आरएंडडी पर 10-12 प्रतिशत खर्च निजी क्षेत्र कर रहा है। उन्होंने बाजार-आधारित प्राइसिंग व्यवस्था और शोध करने वालों को अधिकार का मुद्दा भी उठाया। 

उन्होंने कहा कि अनुसंधान के अभाव में टेक्नोलॉजी का विकास नहीं होगा। तब भारतीय कृषि दूसरे देशों के आगे टिक नहीं पाएगी। उत्पादन लागत दूसरे देशों के बराबर लाने के लिए टेक्नोलॉजी का विकास जरूरी है। उन्होंने यह भी कहा कि टेक्नोलॉजी को सिर्फ अच्छा कहने से काम नहीं चलेगा। आज किसान उसका प्रदर्शन देखना चाहता है। टेक्नोलॉजी को प्रयोगशाला से खेत तक ले जाने की जरूरत है, तभी किसान उसको अपनाएगा।

श्रमिकों की कमी की समस्या दूर करने वाली टेक्नोलॉजी चाहिएः मृण्मय चौधरी

सवाना सीड्स के निदेशक (मार्केटिंग) मृण्मय चौधरी ने कहा कि धान में रोपाई और खरपतवार मैनेजमेंट के दौरान श्रमिकों की उपलब्धता की समस्या गंभीर होती जा रही है। श्रमिक नहीं मिलेंगे तो किसान कैसे काम करेंगे। हमें ऐसी टेक्नोलॉजी की जरूरत है जिससे किसान उत्पादकता बढ़ा सकें। इस दिशा में काम हो रहा है, लेकिन बहुत कुछ करने की जरूरत है।

परिचर्चा के दौरान एक किसान श्रोता ने ड्रोन की व्यावहारिकता का मसला उठाया। उन्होंने कहा कि जिस कीटनाशक दवा को 100 या 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़कना होता है, ड्रोन में उसे सिर्फ 10 या 20 लीटर पानी में मिलाना पड़ता है। इस समस्या से सहमति जताते हुए कृषि वैज्ञानिक डॉ. ए.के. सिंह ने कहा कि अभी ड्रोन स्पेसिफिक दवा नहीं आई है। इसके फॉर्मूलेशन पर अनुसंधान चल रहा है।

दूसरा सत्र ‘अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं आत्मनिर्भरता’ विषय पर 

कॉन्क्लेव का दूसरा सत्र ‘अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं आत्मनिर्भरता’ विषय पर था, जिसके मॉडरेटर नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर बिराज पटनायक थे। परिचर्चा की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि वैश्विक कृषि निर्यात में भारत का हिस्सा 2.5 प्रतिशत है। अभी कृषि निर्यात 52 अरब डॉलर है। इसे 2030 तक 100 अरब डॉलर ले जाने का लक्ष्य है। उन्होंने पैनलिस्ट्स से जानना चाहा कि ऐसे समय जब पिछले एक साल में, खास कर डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रेड की स्थिति बदली है। ऐसे में भारत को क्या करने की जरूरत है।

निर्यात-आयात को गौरव से जोड़ने का नजरिया ठीक नहींः सिराज चौधरी

Agvaya LLP के पार्टनर सिराज ए. चौधरी ने कहा कि भारत अनेक फसलों में आत्मनिर्भर है। निर्यात में बासमती, बफेलो मीट और कॉटन प्रमुख हैं। दलहन-तिलहन में हम अभी आयात पर काफी हद तक निर्भर हैं। उन्होंने कहा कि दलहन में आत्मनिर्भरता हासिल करनी है तो किसानों को हमें दूसरी फसलों से ज्यादा दाम देने पड़ेंगे। उन्होंने कहा कि हमने निर्यात-आयात को गौरव से जोड़ रखा है, यह नजरिया ठीक नहीं। अनेक बड़े देश अनेक चीजों का आयात करते हैं और अपनी सरप्लस फसल का निर्यात करते हैं। चौधरी ने निर्यात के लिए ब्रांड बिल्डिंग को भी जरूरी बताया, लेकिन कहा कि इसके लिए निजी और सरकारी क्षेत्र को मिल कर काम करना पड़ेगा। 

फसलों की प्रोडक्टिविटी बढ़ाने की जरूरतः संजय गाखर

MCX लिमिटेड के वाइस प्रेसिडेंट (बिजनेस डेवलपमेंट) संजय गाखर ने कहा कि जो सबसे सस्ता पैदा करेगा, वही सर्वाइव करेगा। उन्होंने कहा कि जिन फसलों में हमारी प्रोडक्टिविटी कम है, उसे बढ़ाने की जरूरत है। यह पूछने पर कि जब-तब निर्यात पर अंकुश लगाने से निजी क्षेत्र को किस तरह की अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ता है, गाखर ने कहा कि निजी और कोऑपरेटिव दोनों साथ चलेंगे।

कृषि निर्यात में क्वालिटी की समस्याः डी.एन. ठाकुर

सहकार भारती के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. डी.एन. ठाकुर ने कहा, बासमती, मरीन प्रोडक्ट और बागवानी में हम भरोसेमंद निर्यातक बन गए हैं, लेकिन बाकी में ऐसा नहीं है। भारत के कृषि निर्यात में क्वालिटी की समस्या प्रमुख है। इसके लिए कृषि क्षेत्र में सिस्टम अप्रोच अपनाने की जरूरत है। अमेरिका के साथ एफटीए पर बातचीत में भारत के पास क्या विकल्प हैं, इस सवाल पर ठाकुर ने कहा कि पहले घर बचाना जरूरी है। समझौते में अपने किसानों का हित पहले देखना होगा। 

जल्दी फैसले लेने की व्यवस्था होः डी.के. सिंह

कोऑपरेटिव इलेक्शन अथॉरिटी (सीईए) के चेयरपर्सन और पूर्व एपीडा चेयरमैन देवेंद्र कुमार सिंह ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार जटिल होता है, उसमें अनिश्चितता होती है। कृषि निर्यात में अनिश्चितता और बढ़ जाती है। किसान की भागीदारी होने के कारण उसमें राजनीति भी जुड़ जाती है। ऐसा सिर्फ भारत में नहीं, दूसरे देशों में भी होता है। 

उन्होंने कहा कि भारत में किसी नतीजे पर पहुंचने का तरीका काफी जटिल है, जिसे दूसरे देश पसंद नहीं करते। सरकार फल-सब्जी निर्यात पर जोर दे रही है। इनका उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव है। कोल्ड चेन की कमी है। खेत से पोर्ट तक इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने की जरूरत है। जो देश आयात कर रहा है वहां की परिस्थितियों को भी ध्यान रखने की जरूरत है।

‘सक्षम नीति एवं प्रभावी क्रियान्वयन’ पर तीसरा सत्र

तीसरे सत्र का विषय ‘सक्षम नीति एवं प्रभावी क्रियान्वयन’ था जिसे मॉडरेट किया पूर्व कृषि एवं खाद्य सचिव टी. नंदकुमार ने। उन्होंने कहा कि किसान को ज्यादा विकल्प और आजादी मिलनी चाहिए। किसानों को मोलभाव की स्किल सीखने के साथ मार्केट के बारे में जानकारी हासिल करनी पड़ेगी। उन्होंने पैनलिस्ट्स से सवाल किया कि नीतियों को जमीन पर कैसे उतारा जा सकता है और किसी नीति के अमल के मामले में सरकारी क्षेत्र, निजी क्षेत्र से क्या सीख सकता है।

नीतियों पर अमल के लिए इंटरमीडियरी संस्थाएं जरूरीः हर्ष भनवाला

एमसीएक्स (MCX) के चेयरमैन और नाबार्ड (NABARD) के पूर्व चेयरमैन डॉ. हर्ष भनवाला ने कहा कि भारत में कृषि बहुत डाइवर्सिफाइड है। तापमान और बारिश का अंतर अलग-अलग क्षेत्रों में बहुत है। इसलिए कृषि एक जैसी नहीं हो सकती। यही कारण है कि संविधान में कृषि को राज्यों का विषय रखा गया है। लेकिन बाजार और फाइनेंस के मामले केंद्र सरकार तय करती है, तो कृषि से जुड़ी नीति राज्य सरकारें तय करती हैं। 

उन्होंने कहा कि किसान तक नीतियों को पहुंचाने के लिए इंटरमीडियरी संस्थाएं चाहिए। ये कॉरपोरेट या प्राइवेट हो सकते हैं। क्रियान्वयन की मॉनिटरिंग जरूरी है। आज कई संस्थाएं एक ही नीति को लागू करने में जुटी हैं। क्या बहु-एजेंसी व्यवस्था सहायक है? क्रियान्वयन में लोगों कि भागीदारी जरूरी है। इसमें कोऑपरेटिव की अहम भूमिका है। अलग क्षेत्रों की जरूरतें अलग हैं, इसलिए नीतियां अलग होनी चाहिए। नीतियों में लचीलापन जरूरी है। भनवाला ने किसान आयोग के गठन का सुझाव दिया, भले ही वे सरकार से अलग राय दें।

जीएसटी की तर्ज पर कृषि परिषद का गठन होः रोशन लाल टामक

डीसीएम श्रीराम लिमिटेड के सीईओ एवं कार्यकारी निदेशक (शुगर डिवीजन) रोशन लाल टामक ने जीएसटी की तर्ज पर राज्यों को साथ मिलाकर कृषि परिषद के गठन का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र में एफिसिएंसी है क्योंकि जवाबदेही तय है। फैसले भी तेज लिए जाते हैं। सरकारी क्षेत्र में ऐसा नहीं होता। इसके लिए डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल किया जा सकता है। किसानों तक डिजिटल लिटरेसी पहुंचाने से जवाबदेही तय होगी और काम भी तेज होगा।

टामक ने कहा कि हमारी ज्यादातर नीति उत्पादन आधारित हैं। आज हम कई उपज में सरप्लस की स्थिति में हैं। हमारी नीति ऐसी हो कि हम खपत भी सुनिश्चित कर सकें। तभी किसान को पूरा लाभ मिलेगा, सही कीमत मिलेगी। उन्होंने सरकारी नीतियों के अमल में निजी क्षेत्र को भी नोडल एजेंसी बनाने का सुझाव दिया, क्योंकि निजी कंपनियां अपने क्षेत्र में किसानों से सीधी जुड़ी होती हैं।

कृषि प्रधान देश होने के बावजूद कृषि नीति का अभावः संतोष शुक्ला

इफ्को-एमसी के सीओओ संतोष कुमार शुक्ला ने सहकारिता की जरूरत बताई। उन्होंने कहा, आज 45 प्रतिशत रोजगार कृषि में है, लेकिन जीडीपी में योगदान 18 प्रतिशत है। कृषि से जुड़े सभी पक्षों को एक प्लेटफॉर्म पर लाने की जरूरत है। शुक्ला ने कहा कि भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन यहां कृषि नीति नहीं है। उन्होंने कहा कि पुराने कानूनों को ओवरहॉल करने की जरूरत है और किसान से लेकर रिसर्च संस्थानों तक, सबको इसमें शामिल किया जाना चाहिए। 

उन्होंने कहा कि देश में 30 करोड़ लोग सहकारिता से जुड़े हैं। तीन-चार साल में सहकारिता का विकास तेजी से बढ़ा है। तीन साल में करीब 60 स्कीम बनी हैं। कंप्यूटराइजेशन और मॉडल लॉ इनमें अहम हैं। उन्होंने कहा कि कृषि और सहकारिता दोनों राज्यों के विषय हैं। लेकिन एकरूपता नहीं होने के कारण किसी संस्था को हर राज्य में अलग-अलग रजिस्ट्रेशन करने की जरूरत पड़ती है। इसके समाधान के लिए उन्होंने जीएसटी काउंसिल की तर्ज पर एक अथॉरिटी गठित करने का सुझाव दिया।

गवर्नेंस सुधारने के लिए किसान नेताओं को भी बदलना पड़ेगाः अजय जाखड़

भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ ने कहा कि किसानों की हालत सुधारने के लिए नीति पहली जरूरत है। लेकिन देश या किसी राज्य में कृषि नीति नहीं है। ज्यादातर राज्यों में उच्च कृषि शिक्षा को रेगुलेट करने का कोई कानून नहीं है। किसानों से जुड़े बिल तैयार करते वक्त किसानों की राय को शामिल नहीं किया जाता है।

जाखड़ ने कहा कि गवर्नेंस सुधारने के लिए किसान संस्थाओं के नेताओं को भी बदलना पड़ेगा। उन्हें सोचने का तरीका और अपनी मांगें बदलनी पड़ेंगी। अगर किसी मुद्दे पर सरकार किसान संगठनों और प्रतिनिधियों को चर्चा के लिए बुलाती है तो उस बातचीत के रिकार्ड पर जोर देने की जरूरत है और बैठक में उठे मुद्दों को सरकार को किसान संगठनों और विभाग को भेजने की शर्त तय करनी होगी। किसान संस्थाओं को आरबीआई जैसी संस्थाओं से मिलना चाहिए ताकि नीति बनाने में उनकी बात सुनी जाए।

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