महंगाई रोकने की रणनीति में उपभोक्ता हितों के सामने किसानों के हित पड़े कमजोर

केंद्र में सत्तारुढ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार 2024 लोक सभा चुनावों में महंगाई को मुद्दा बनने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। मोदी के पहले कार्यकाल 2014 से 2019 में 2019 के लोक सभा चुनावों में जाने के समय महंगाई नियंत्रण में थी। लेकिन मोदी के दूसरे कार्यकाल में सरकार जब 2024 के चुनावों में जा रही है तो महंगाई के मोर्चे पर स्थिति 2019 जैसी नहीं है। जहां खुदरा महंगाई दर पर नियंत्रण एक बड़ी चुनौती बनी हुई है वहीं खाद्यान्न महंगाई दर लगातार दो अंकों में बनी हुई है। नवंबर के ताजा आंकड़ों में तो दालों की खुदरा महंगाई दर 20 फीसदी को पार कर गई है। ऐसे में महंगाई को नियंत्रण में लाने के लिए अपनाई जा रही नीतियों में उपभोक्ता हितों के संरक्षण के चलते किसानों के हित कमजोर पड़ गये हैं

महंगाई रोकने की रणनीति में उपभोक्ता हितों के सामने किसानों के हित पड़े कमजोर

केंद्र में सत्तारुढ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार 2024 लोक सभा चुनावों में महंगाई को मुद्दा बनने से रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। मोदी के पहले कार्यकाल 2014 से 2019 में 2019 के लोक सभा चुनावों में जाने के समय महंगाई नियंत्रण में थी। लेकिन मोदी के दूसरे कार्यकाल में सरकार जब 2024 के चुनावों में जा रही है तो महंगाई के मोर्चे पर स्थिति 2019 जैसी नहीं है। जहां खुदरा महंगाई दर पर नियंत्रण एक बड़ी चुनौती बनी हुई है वहीं खाद्यान्न महंगाई दर लगातार दो अंकों में बनी हुई है। नवंबर के ताजा आंकड़ों में तो दालों की खुदरा महंगाई दर 20 फीसदी को पार कर गई है। ऐसे में महंगाई को नियंत्रण में लाने के लिए अपनाई जा रही नीतियों में उपभोक्ता हितों के संरक्षण के चलते किसानों के हित कमजोर पड़ गये हैं।

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में खुदरा महंगाई दर (सीपीआई) का औसत 4.3 फीसदी था जबकि दूसरे कार्यकाल में नवंबर, 2023 तक यह 5.8 फीसदी रही है। वहीं जहां पहले कार्यकाल में खाद्य महंगाई दर खुदरा महंगाई दर से कम थी जबकि दूसरे कार्यकाल में खाद्य महंगाई दर का औसत नवंबर, 2023 तक की एक साल की अवधि में 6.4 फीसदी रही है।

रूरल वॉयस के साथ एक अनौपचारिक बातचीत में सरकार में नीतिगत मामलों के एक वरिष्ठ एक्सपर्ट ने कहा था कि सरकार कोई भी फैसला उत्पादक और उपभोक्ता हितों के बीच संतुलन बनाकर लेती है और जरूरत पड़ने पर उपभोक्ता हितों का पलड़ा भारी रहता है। इस बात को समझने के लिए सरकार द्वारा पिछले दो साल में कृषि उत्पादों के आयात और निर्यात से जुड़े फैसलों को देखने की जरूरत है। मसलन यूक्रेन और रूस से बीच युद्ध शुरू होने के बाद सरकार गेहूं, चावल, चीनी, खाद्य तेल, दालों और प्याज को लेकर बड़े फैसले किये। इस फैसलों के पीछे घरेलू बाजार में आपूर्ति बढ़ाना मुख्य मकसद रहा है ताकि खाद्य उत्पादों की घरेलू कीमतों को बढ़ने से रोका जा सके। इसके लिए जहां आयात में बढ़ोतरी के लिए शुल्क दरों में कटौती और मुक्त आयात की अनुमति जैसे फैसले लिये गये वहीं दूसरी ओर निर्यात को हतोत्साहित करने के लिए निर्यात पर प्रतिबंध, निर्यात शुल्क में बढ़ोतरी और न्यूनतम निर्यात मूल्य में बढ़ोतरी जैसे कदम उठाये गये।

साल 2020 के अंत में पॉम ऑयल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी बढ़ोतरी की स्थिति से निपटने के लिए क्रूड पॉम पर सीमा शुल्क में कटौती की। उसके बाद सोयाबीन और सुरजमुखी तेल पर यह कटौती करते हुए इन पर सीमा शुल्क शून्य कर दिया। वहीं रिफाइंड तेल पर भी सीमा शुल्क को घटाकर 12.5 फीसदी कर दिया। यूक्रेन और रुस युद्ध के दौरान खाद्य तेलों की कीमतों में भारी बढ़ोतरी हुई थी और घेरलू बाजार में लगभग सभी खाद्य तेलों की कीमतें 200 रुपये प्रति लीटर को पार कर गई थी। सरसों तेल की कीमत को 300 रुपये प्रति लीटर के करीब चली गई थी। सीमा शुल्क दरों में कटौती के चलते अभी क्रूड ऑयल पर 5.5 फीसदी का प्रभावी सीमा शुल्क लागू है। वहीं रिफाइंड तेल पर सीमा शुल्क की दर 13.75 फीसदी है। सरकार ने रियायती सीमा शुल्क दरों पर खाद्य तेलों का आयात जारी रखा है जबकि इस साल सरसों किसानों को बड़े स्तर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम दाम पर सरसों बेचनी पड़ी। चालू रबी बुआई सीजन में देश के सबसे बड़े सरसों उत्पादक राज्य राजस्थान में सरसों के क्षेत्रफल में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। देश में खाद्य तेलों का आयात खपत के करीब 65 फीसदी तक पहुंच गया है।

वहीं दालों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए लगातार सीमा शुल्क दरों कमी की गई और अधिकांश दालों के आयात को मुक्त श्रेणी में डाल दिया गया है जिसे 31 मार्च, 2025 तक बढ़ाने का आदेश दिसंबर, 203 में ही जारी किया गया ताकि आयातकों को भरोसा रहे कि वह बिना किसी चिंता के अगले साल तक के आयात सौदे कर सकते हैं। इसके पहले 15 मई, 2021 को उड़द और अरहर के आयात पर मात्रात्मक प्रतिबंधों (क्यूआर) को समाप्त किया गया। यानी उड़द, अरहर और मसूर का शुल्क मुक्त आयात बिना किसी मात्रात्मक प्रतिबंध के 31 मार्च, 2025 तक किया जा सकेगा। पीली मटर और सफेद मटर के आयात पर भी मात्रात्मक प्रतिबंध समाप्त कर दिया गया है इसके साथ ही इन पर 50 फीसदी सीमा शुल्क और न्यूनतम 200 रुपये की आयात कीमत की शर्त भी समाप्त कर दिया गया है। अब केवल मूंग और चना के आयात पर ही 40 से 60 फीसदी का सीमा शुल्क और मात्रात्मक प्रतिबंध लागू हैं। लेकिन इन कोशिशों के बीच नवंबर, 2023 में दालों की खुदरा महंगाई दर 20 फीसदी को पार कर गई थी।

इसके पहले सरकार ने मई, 2022 में गेहूं क निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था और जून, 2023 में घरेलू मार्केट में गेहूं के लिए स्टॉक लिमिट लगा दी गई थी। पिछले दिनों स्टॉक लिमिट में कटौती की गई ताकि कीमतों पर लगाम लगाई जा सके। दिलचस्प बात यह है कि पिछले सरकार रिकॉर्ड गेहूं उत्पादन के आंकड़े जारी कर रही थी जिसे बाद में कम किया गया है और रबी 2022-23 में रिकार्ड उत्पादन का दावा किया गया जिसे बाद में कम किया गया क्योंकि सरकारी खरीद और बाजार परिस्थिति दूसरी ही सचाई बयां कर रही थी। वहीं चावल की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए जहां पिछले साल ब्रोकन राइस का निर्यात बंद किया गया। वहीं 25 फीसदी सीमा शुल्क के साथ पारबॉयल्ड गैर बासमती चावल के ही निर्यात की अब अनुमति है जबकि बासमती के निर्यात पर 950 डॉलर प्रति टन का न्यूनतम निर्यात मूल्य  (एमईपी) लागू है। इसके अलावा पिछले साल पहले चीनी के निर्यात को रेस्ट्रिक्टेड लिस्ट में डाला गया जिसे अब 31 अक्तूबर, 20124 तक बढ़ा दिया गया है और इसके निर्यात का कोई कोटा जारी नहीं कर व्हवहारिक रूप से इसके निर्यात को प्रतिबंधित कर दिया गया है। इसके साथ ही चालू पेराई सीजन 2023-24 में चीनी उत्पादन के करीब 290 लाख टन रह जाने के अनुमानों के बीच दिसंबर, 2023 में आदेश  जारी कर गन्ने के रस-जूस से सीधे एथेनॉल बनाने पर रोक लगाने का फैसला लागू कर गया। चालू सीजन में करीब 45 लाख टन चीनी का उपयोग एथेनॉल बनाने में होना था लेकिन अब इसे 17 लाख टन सीमित कर दिया गया। इस फैसले पर चीनी उद्योग ने कहा कि इसके चलते किसानों को गन्ना मूल्य भुगतान में देरी होगी और सीजन लंबा चलेगा। वहीं प्याज के निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है।

लेकिन मोदी-दो के उलट मोदी-एक में नीतियां उत्पादकों के हितों के लिए बन रही थी मतलब किसानों को आयात से संरक्षण दिया जा रहा था। इसकी वजह घरेलू उत्पादन अधिक होने से अधिक स्टॉक थे और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि उत्पादों की कीमतें कम थी। मोदी –एक के दौरान चीनी निर्यात पर 10 हजार रुपये प्रति टन से अधिक तक की सब्सिडी दी और देश से चीनी का निर्यात 2021-22 में 110 लाख टन तक के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया। यही नहीं 2022-23 में भारत चावल के वैश्विक बाजार में 40 फीसदी हिस्सेदारी के साथ सबड़े बड़ा निर्यातक देश बन गया। गेहूं का निर्यात 2021-22 में 70 लाख टन तक पहुंच गया था। एमएसपी पर अधिक खऱीद होने से केंद्रीय पूल में भारी खाद्यान्न स्टॉक के चलते ही सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत कोविड के दौरान एनएफएसए के अतिरिक्त पांच किलो खाद्यान्न मुफ्त में 80 करोड़ लोगों को दिया। 30 जून, 2017 के पहले दालों पर शून्य आयात शल्क की सुविधा को समाप्त कर दिया और अरहर व मसूर पर 10 फीसदी सीमा शुल्क लगा दिया था। चना और मसूर पर 2017 के अंत में सीमा शुल्क को बढ़ाकर 30 फीसदी कर दिया गया और चना व सफेद मटर पर सीमा शुल्क को बढ़ाकर 50 फीसदी करने के ससाथ ही दालों के आयात पर मात्रात्मक प्रतिबंध भी लगाये गये। यह वह समय था जब सरकार ने देश में दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए एमएसपी में भारी बढ़ोतरी के साथ सरकारी खऱीद की नीति अपनाई जिसकी सिफारिश दालों का आयात करने पर बनी मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन की अध्यक्षता वाली समिति ने की थी। इसके बाद मार्च, 208 में चना और काबुली चना पर आयात शुल्क को बढ़ाकर 60 फीसदी और 40 फीसदी कर दिया गया। वहीं अप्रैल, 2018 में पीली मटर और सफेद मटर पर 200 रुपये प्रति किलो के न्यूनतम आयात मूल्य की शर्त लागू की गई। जिससे इनका आयात बंद हो गया।

वहीं खाद्य तेलों पर भी सीमा शुल्क में  बढ़ोतरी कर क्रूड सोयाबीन व सुरजमुखी पर 35 फीसदी और क्रूड पॉम पर 44 फीसदी कर दी गई। यह कदम सितंबर, 2026 से जून 2018 के बीच उठाये गये।

लेकिन  अब स्थिति बदल गई और उसका जिक्र खबर के पहले हिस्से में किया गया। चुनाव सामने है और सरकार की कृषि उत्पादों की कीमतों को नियंत्रित रखने की रणनीति जारी रहेगी। यानि  किसानों के हितों की बजाय उपभोक्ता हितों के संरक्षण की नीति जा रहेगी। इसके साथ ही खरीफ के उत्पादन के आंकड़ों और रबी की संभावनाओ को देखते हुए खाद्य उत्पादों के मामले में सरकार को उदार आयात नीति जारी रखेगी क्योंकि उत्पादन में सुधार की संभावना बहुत बेहतर नहीं है। उत्पादन गिरने के चलते किसान को दोहरी मार का सामना करना पड़ रहा है कमजोर उत्पादन से उसकी आय कम हुई और सरकार वैश्विक बाजार की ऊंची कीमतों का फायदा उनको लेने नहीं देगी। समुन्नति एग्रो के डायरेक्टर प्रवेश शर्मा ने रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव में एक संबोधन में कहा था कि घरेलू किसानों को अंतरराष्ट्रीय कीमतो का फायदा नहीं मिलने से एक तरीके से उनके ऊपर 15 फीसदी का परोक्ष कर लादा गया है।

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