प्याज पर निर्यात शुल्क से किसानों एवं व्यापारियों की बढ़ी मुश्किलें

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव जीतना पड़ता है। लोगों को सस्ता भोजन चाहिए मगर जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्षी दलों को सरकार को घेरने का मौका मिल जाता है। चूंकि हुक्मरान ऐसा नहीं चाहते इसलिए हंगामा शुरू होने से पहले ही कुछ फैसले ले लिए जाते हैं। महंगे प्याज ने सरकारें गिराई हैं लेकिन सस्ते प्याज से कभी सरकारें नहीं गिरी हैं। यदि प्याज के मुद्दे पर किसान संगठित होकर सरकार का विरोध करेंगे तो सरकार किसान विरोधी फैसले लेने से पहले दस बार सोचेगी

प्याज पर निर्यात शुल्क से किसानों एवं व्यापारियों की बढ़ी मुश्किलें
घरेलू बाजार में कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए प्याज निर्यात पर सरकार ने लगाया 40 फीसदी शुल्क।

केंद्र सरकार द्वारा प्याज पर 40 फीसदी निर्यात शुल्क लगाए जाने पर महाराष्ट्र में प्याज उत्पादकों और व्यापारियों ने विरोध शुरू कर दिया। व्यापारियों ने जहां कृषि उपज मंडियों में प्याज की नीलामी रोक दी, वहीं आंदोलनकारी किसानों ने जगह-जगह सड़कें जाम कर दी। करीब दो-तीन साल बाद प्याज किसानों को उनकी उपज के वाजिब दाम मिलने लगे थे। इस साल रबी की प्याज की कटाई से पहले बेमौसम भारी बारिश के कारण फसल खराब हो गई  और प्याज की बड़ी मात्रा भंडारण योग्य नहीं रह गई। इस कारण किसानों को उस समय कम दाम पर प्याज बेचना पड़ा।

इस महीने जब प्याज के दाम बढ़ने लगे और भंडारित स्टॉक की बेहतर कीमत मिलने की उम्मीद बढ़ी तो केंद्र सरकार ने जल्दबाजी में फैसला लेते हुए निर्यात शुल्क बढ़ा दिया। जो प्याज 2500-3000 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा था, निर्यात शुल्क लगाए जाने के बाद वह गिरकर 1700-1800 रुपये प्रति क्विंटल पर आ गया। इससे किसानों में असंतोष भड़कना स्वाभाविक था क्योंकि इसकी वजह से किसानों के कई काम और सपने ध्वस्त हो गए, जैसे कर्ज चुकाना, बेटी की शादी, बच्चों की पढ़ाई, घर का काम-काज आदि प्याज की अच्छी कीमत मिलने से ही पूरा होना था। नासिक जिले के हजारों किसानों की कृषि भूमि बैंकों द्वारा कर्ज वसूली के लिए नीलाम होने की कगार पर है। केंद्र सरकार की उपभोक्ताओं के हित में और किसानों की शोषणकारी नीति के कारण ऐसा हो रहा है।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्याज निर्यातक देश है। भारत ने कई बार प्याज की घरेलू कीमतों को नियंत्रित करने के लिए इसी तरह से अचानक निर्यात पर प्रतिबंध लगाए हैं या न्यूनतम निर्यात मूल्य तय किया है या फिर निर्यात शुल्क लगाया है। अचानक लिए गए ऐसे फैसलों के कारण निर्यातक अपनी पिछली प्रतिबद्धताओं को पूरा नहीं कर पाते। बंदरगाहों पर या देश की सीमाओं पर निर्यात के लिए भेजे गए प्याज के वाहन फंस जाते हैं, रास्ते में प्याज सड़ जाता है और इससे लागत बहुत बढ़ जाती है।

प्याज को निर्यात के लिए वातानुकूलित कंटेनरों में बंदरगाहों पर भेजना पड़ता है। अचानक लिए गए ऐसे फैसलों से बंदरगाहों पर कंटेनर को ठंडा रखने के लिए बिजली की लागत बढ़ जाती है जो रोजाना 5,000-6,000 रुपये है। इसके अलावा, ट्रक के लिए प्रत्येक दिन 10,000 रुपये अतिरिक्त देने पड़ते हैं क्योंकि उसे कई दिनों तक इंतजार करते रहना पड़ता है। इस बार व्यापारियों ने अपनी जेब से 40 फीसदी शुल्क चुकाकर प्याज निर्यात किया। फिर भी खेप लोड करने की अनुमति के इंतजार में बंदरगाहों पर 800 टन प्याज खराब हो गया। प्याज व्यापारी किसानों को कम कीमत देकर अपने घाटे की तो भरपाई कर लेंगे और अंततः किसानों को ही नुकसान उठाना पड़ेगा।

जिस दिन निर्यात शुल्क में वृद्धि की घोषणा की गई उस दिन पुणे में प्याज की खुदरा कीमत 35 रुपये प्रति किलो थी। यह दर बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन मीडिया द्वारा शुरू किए गए आकलन ''टमाटर के बाद अब प्याज भी आम लोगों को रुलाएगा'' से सरकार घबरा गई  जिसके चलते यह फैसला लेना पड़ा।

2020 के तीन कृषि कानून पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त समिति में मैं भी था। समिति में काम करते समय प्याज के आंकड़ों को देखते हुए यह पता चला कि एक किलो प्याज के लिए उपभोक्ताओं द्वारा चुकाई गई रकम का केवल 30 फीसदी (29.60 फीसदी) ही किसानों तक पहुंचता है। उस कृषि कानून में प्याज को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया गया था लेकिन उसमें एक क्लॉज था कि अगर कीमत 100 फीसदी बढ़ गई तो प्याज को फिर से आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल कर लिया जाएगा और सभी प्रतिबंध दोबारा लगा दिए जाएंगे। उसमें प्रावधान था कि कीमतों में वृद्धि की गणना के लिए पिछले पांच वर्षों के प्याज के खुदरा बिक्री मूल्य के औसत मूल्य को ध्यान में रखा जाएगा।

खाद्य और उपभोक्ता मामले मंत्रालय के अधिकारी जब समिति के समक्ष चर्चा करने आए, तो मैंने पूछा कि पिछले पांच वर्षों में प्याज का औसत बिक्री मूल्य क्या है? उन्होंने कहा 25 रुपये प्रति किलो। इसका 30 फीसदी यानी आठ रुपये ही किसान को मिलेंगे!! जबकि प्याज की उत्पादन लागत 20 रुपये प्रति किलो है। उस कानून के प्रावधानों के अनुसार 100 फीसदी वृद्धि यानी यदि कीमत 50 रुपये किलो है तो फिर से निर्यात प्रतिबंध, स्टॉक पर सीमा, न्यूनतम निर्यात मूल्य, निर्यात शुल्क लगाने और आयात आदि किया जा सकेगा।

जब उपभोक्ता प्याज के लिए प्रति किलो 50 रुपये का भुगतान करता है, तो किसान को केवल 16 रुपये मिलते हैं। यह उत्पादन लागत की भरपाई करने के लिए पर्याप्त नहीं है। हमारी समिति ने प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम से स्थायी रूप से हटाने की सिफारिश की और कहा कि यदि इसे इसमें बरकरार रखना है, तो खुदरा कीमत में 200 फीसदी की वृद्धि होने पर ही इसे फिर से लागू करें। मगर किसानों का दुर्भाग्य है कि सरकार ने हमारी सिफारिश पर ध्यान नहीं दिया और कानून वापस ले लिए गए।

प्याज पर निर्यात शुल्क लगाने के विरोध में आंदोलन शुरू होते ही महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस को पार्टी की छवि बचाने के लिए कदम उठाना पड़ा। वह उस समय जापान गए हुए थे और उन्होंने जापान से ही केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल से संपर्क किया और नेफेड के माध्यम से 2,410 रुपये प्रति क्विंटल की दर पर प्याज खरीदने का फैसला किया। मिनट भर के अंदर जापान से दिल्ली तक संदेश भेज दिया गया, लेकिन एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी प्याज खरीद का आदेश दिल्ली से नासिक नहीं पहुंचा। नेफेड द्वारा प्याज की खरीद अभी शुरू नहीं हुई है लेकिन कीमतों में 700-800 रुपये की गिरावट आ चुकी है। आगे भी दाम में गिरावट की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।

केंद्र सरकार द्वारा कीमत 2410 रुपये प्रति क्विंटल तय करने के पीछे क्या तर्क है यह तो पता नहीं, खासतौर से तब जब खुले बाजार में प्याज उत्पादकों को 30-35 रुपये प्रति किलो कीमत मिलने की संभावना है, लेकिन व्यापारियों को यह संदेश गया कि वे इससे अधिक कीमत पर प्याज न खरीदें। प्याज का खरीद मूल्य घोषित करने का सरकार के पास कोई कारण नहीं था। अगर सरकार लोगों को सस्ता प्याज मुहैया कराना चाहती है तो खुले बाजार से मौजूदा कीमत पर प्याज खरीदना चाहिए था और फिर उसे उस कीमत पर बेचना चाहिए जिस कीमत पर जरूरतमंद लोग खरीद सकें।

इससे साफ है कि सरकार की यह चाल सिर्फ प्याज की कीमतें कम करने के लिए है। यदि सरकार इसे प्याज का एमएसपी कहती है, तो जब खुले बाजार में प्याज का भाव गिरकर 500 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच जाता है, तो इसे नेफेड के माध्यम से 2410 रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीदा जाना चाहिए। मगर जब कीमतें घटती हैं, तो सरकार खुले बाजार से तत्कालीन दर पर प्याज खरीदती है। नेफेड के जरिये प्याज खरीद में बड़ा घोटाला हुआ है। नेफेड द्वारा प्याज खरीद की जानकारी को अत्यंत गुप्त रखने का और क्या कारण हो सकता है? सरकार सिर्फ निर्यात शुल्क लगाने तक ही नहीं रुकी है, बल्कि अफगानिस्तान से प्याज आयात करने की अनुमति भी व्यापारियों को दे दी है। मगर प्याज आयात करने में व्यापारियों को घाटा होने के कारण बड़ी मात्रा में आयात नहीं हुआ है।

भारत से कई देशों को प्याज का निर्यात किया जाता है। एक समय प्याज के निर्यात बाजार में भारत की हिस्सेदारी करीब 40 फीसदी थी। सरकार द्वारा अचानक प्याज निर्यात पर रोक लगाने के फैसलों के कारण कई देशों ने भारत से मुंह मोड़ लिया है। अब प्याज निर्यात में भारत की हिस्सेदारी घटकर मात्र 8 फीसदी रह गई है। भारत से सबसे ज्यादा प्याज का निर्यात बांग्लादेश को किया जाता है। कुल प्याज निर्यात में बांग्लादेश की हिस्सेदारी 26 फीसदी है। भारत ने जब अक्टूबर 2020 में अचानक निर्यात पर प्रतिबंध लगाया, तो बांग्लादेश की प्रधानमंत्री ने भारत की सीमा पर खड़े प्याज के ट्रकों को सीमा पार कर बांग्लादेश भेजने का अनुरोध किया, लेकिन भारत सरकार ने इससे साफ इनकार कर दिया गया। इसके बाद बांग्लादेश ने प्याज की जगह भारत से प्याज के बीज आयात किए और अपने किसानों को प्याज उगाने के लिए प्रोत्साहित किया।

इस बार अचानक निर्यात शुल्क लगाए जाने से निर्यात पर एक तरह से प्रतिबंध लग गया है।  अब बांग्लादेश ने नौ अन्य देशों से प्याज आयात करने का फैसला किया है। इसका मतलब है कि हम एक प्रमुख आयातक देश को हमेशा के लिए खो देंगे। इससे पहले जब निर्यात पर प्रतिबंध लगाया गया था तो जापान और अमेरिका ने विश्व व्यापार संगठन में भारत की व्यापार नीति की शिकायत की थी। किसी भी देश को अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए विदेशी मुद्रा अर्जित करने की आवश्यकता होती है। क्या हमें प्याज का निर्यात करके डॉलर नहीं मिल रहा है? आज सिर्फ प्याज ही नहीं, उन सभी कृषि उत्पादों पर प्रतिबंध है जिनका भारत निर्यात कर सकता है। चावल, गेहूं, चीनी, तिलहन और कुछ दालों के निर्यात पर सरकार ने प्रतिबंध लगा रखा है, जबकि आयात धड़ल्ले से किया जा रहा है। सरकार का यह फैसला किसानों के लिए घातक है जो अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख को खत्म कर देगा।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव जीतना पड़ता है। लोगों को सस्ता भोजन चाहिए मगर जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्षी दलों को सरकार को घेरने का मौका मिल जाता है। चूंकि हुक्मरान ऐसा नहीं चाहते इसलिए हंगामा शुरू होने से पहले ही कुछ फैसले ले लिए जाते हैं। महंगे प्याज ने सरकारें गिराई हैं लेकिन सस्ते प्याज से कभी सरकारें नहीं गिरी हैं। यदि प्याज के मुद्दे पर किसान संगठित होकर सरकार का विरोध करेंगे तो सरकार किसान विरोधी फैसले लेने से पहले दस बार सोचेगी।

अपने विशिष्ट स्वाद के कारण भारतीय प्याज की दुनिया भर में अच्छी मांग है। इसका लाभ उठाते हुए प्याज के साथ-साथ सभी कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात को लेकर एक स्पष्ट दीर्घकालिक नीति बनाई जानी चाहिए। इससे भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्थिरता हासिल करने में मदद मिलेगी। यदि सरकार निर्यात पर प्रतिबंध या स्टॉक लिमिट लगाना चाहती है, यदि घरेलू उपलब्धता में कमी के संकेत हैं, तो सरकार को कम से कम निम्नलिखित काम करना चाहिए:

1) इस संबंध में संबंधित देशों, व्यापारियों और किसानों को कम से कम डेढ़ से दो महीने पहले सूचना दी जानी चाहिए। तत्काल फैसला लागू करने की कवायद को हमेशा के लिए बंद कर देना चाहिए।

2) यदि संभव हो तो सरकार को प्याज के व्यापार में हस्तक्षेप हमेशा के लिए बंद कर देना चाहिए। अगर प्याज की कीमत 200 फीसदी से ज्यादा बढ़ती है तो जरूरत पड़ने पर ही सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए।

3) प्याज की खेती और उत्पादन के बारे में जानकारी इकट्ठा करने की एक विश्वसनीय प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए और वह जानकारी व्यापारियों और किसानों को आसानी से उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

4) प्याज भंडारण प्रौद्योगिकी में अनुसंधान के लिए प्रोत्साहन और धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

5) प्याज के प्रसंस्करण और भंडारण के लिए उन्नत तकनीक का उपयोग करने की आवश्यकता है। लोगों को डिहाइड्रेट या स्लाइस्ड और फ्रोजेन प्याज का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रसंस्करण उद्योग के लिए विदेशी निवेश का स्वागत किया जाना चाहिए तथा इस उद्योग को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जानी चाहिए। उपलब्धता में कमी के समय में इस प्रसंस्कृत प्याज का उपयोग किया जा सकता है और किसानों को नुकसान पहुंचाए बिना महंगाई को नियंत्रण में रखा जा सकता है।

प्याज के कारोबार में सरकारी हस्तक्षेप रोकने मात्र से बड़ा फर्क आ सकता है। इसके लिए कृषि वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने की नीति लागू करने वाली पार्टियों को सत्ता से हटया जाना चाहिए और उस पार्टी को सत्ता में लाया जाना चाहिए जो कृषि वस्तुओं के व्यापार में किसी भी हस्तक्षेप की गारंटी नहीं देती है।

(अनिल घनवत शेतकारी संगठन की राजनीतिक शाखा स्वतंत्र भारत पार्टी के अध्यक्ष हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)

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