एफटीए, ग्रामीण भारत और किसान

भारत जिन देशों के साथ बातचीत कर रहा है वहां ना तो ग्रामीण आबादी अधिक है ना ही छोटे किसान जिनकी भारत की तरह उन्हें चिंता करनी पड़े। 2011 की जनगणना के अनुसार 83.3 करोड़ भारतीय ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। यह देश की कुल आबादी के दो-तिहाई से भी अधिक है। देश में किसानों की वास्तविक संख्या को लेकर बहस जरूर है, फिर भी 2011 की जनगणना के आधार पर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का दावा है कि भारत की 54.6% आबादी कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है। इसलिए व्यापार नीति में यह सुनिश्चित होना चाहिए कि मुक्त व्यापार समझौते से यहां के बहुसंख्य लोगों को नुकसान ना हो

एफटीए, ग्रामीण भारत और किसान

भारत कई विकसित देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए बातचीत कर रहा है। यह भारत के नजरिए में बड़ा बदलाव दर्शाता है क्योंकि पहले भारत एफटीए करने में सावधानी पूर्वक कदम उठाता था। पहले भारत सरकार विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के व्यापार नियमों के विपरीत द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने में झिझकती थी, जबकि अब वह झिझक खत्म हो गई है। इन समझौतों में कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रावधान होते हैं। इसलिए अब भारत को अपने से काफी अधिक ताकतवर ट्रेडिंग पार्टनर की मांगों को स्वीकार करना पड़ेगा, जबकि पहले वह मजबूत बौद्धिक संपदा अधिकार और सस्टेनेबिलिटी चैप्टर जैसी मांगों का विरोध करता रहा है।
भारत जिन देशों के साथ बातचीत कर रहा है वहां ना तो ग्रामीण आबादी अधिक है ना ही छोटे किसान जिनकी भारत की तरह उन्हें चिंता करनी पड़े। 2011 की जनगणना के अनुसार 83.3 करोड़ भारतीय ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। यह देश की कुल आबादी के दो-तिहाई से भी अधिक है। देश में किसानों की वास्तविक संख्या को लेकर बहस जरूर है, फिर भी 2011 की जनगणना के आधार पर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय का दावा है कि भारत की 54.6% आबादी कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है। इसलिए व्यापार नीति में यह सुनिश्चित होना चाहिए कि मुक्त व्यापार समझौते से यहां के बहुसंख्य लोगों को नुकसान ना हो।
ऐसा कहा जा रहा है कि विदेशी बाजारों में भारत के कृषि उत्पादों की पहुंच बढ़ने से भारत के कृषि क्षेत्र को फायदा होगा। कृषि निर्यात नीति 2018 में इस आशय को स्पष्ट रूप से बताया गया है। हालांकि पॉलिसी में यह भी स्वीकार किया गया है कि बाजार में पहुंच का फायदा तभी मिलेगा जब उसके साथ इंफ्रास्ट्रक्चर और संस्थागत समर्थन हो, पैकेजिंग और ट्रांसपोर्ट जैसी सुविधाएं आंतरिक उत्पादन प्रणाली के साथ जुड़ें। पॉलिसी में यह भी माना गया है कि नॉन-टैरिफ बैरियर और सख्त क्वालिटी फाइटोसैनिटरी स्टैंडर्ड बाजार पहुंच कम करने अथवा रोकने के आम तरीके बनते जा रहे हैं। इसलिए सिर्फ व्यापार समझौते पर दस्तखत करने का मतलब यह नहीं कि छोटे किसानों और कृषि मजदूरों को उसका फायदा मिलने लगेगा। बल्कि इन छोटे किसानों के लिए संभावित लागत और फायदे का पहले ही आकलन किया जाना चाहिए। निर्यात के लिए कृषि उत्पादन के तौर-तरीके में बदलाव का पारिस्थितिकी और समाज पर क्या असर होगा, इसका मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए।
इन सबके अतिरिक्त, समझौते में जो लिखा गया है उसकी मॉनिटरिंग की भी व्यवस्था होनी चाहिए। हाल में भारत ने जो मुक्त व्यापार समझौते किए हैं उनमें सबसे नया संयुक्त अरब अमीरात के साथ व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (सीईपीए) है। दोनों पक्षों ने 18 फरवरी 2022 को समझौते पर दस्तखत किए थे और यह 1 मई 2022 से लागू हुआ है। समझौते के चैप्टर 4 में कहा गया है कि जिन एसपीएस उपायों पर आपसी सहमति हुई है वह भारत और अमीरात दोनों पर लागू होंगे। लेकिन अब लगता है संयुक्त अरब अमीरात कई कीटनाशकों और फूड कमोडिटी के लिए यूरोपियन यूनियन के कीटनाशक से संबंधित 0.01 पीपीएम एमआरएल मानदंड को लागू कर रहा है। इससे भारत के कृषि निर्यात के कंसाइनमेंट खारिज हो सकते हैं।
इसी तरह ऑस्ट्रेलिया के साथ 2 अप्रैल 2022 को आर्थिक सहयोग एवं व्यापार समझौता (ईसीटीए) पर दस्तखत किए गए। ऑस्ट्रेलिया की संसद ने इसी साल 22 नवंबर को उसे स्वीकृति दी। ऑस्ट्रेलिया-भारत ईसीटीए 29 दिसंबर 2022 से लागू होगा। ग्रेन ट्रेड ऑस्ट्रेलिया (जीटीए) प्राइवेट लिमिटेड ने इस समझौते का स्वागत किया है। यह ऑस्ट्रेलिया में कमर्शियल अनाज उद्योग का फोकल प्वाइंट है। जीटीए ने कहा है कि नजदीकी, आबादी और भारतीय उपभोक्ताओं की बढ़ती क्रय शक्ति ऑस्ट्रेलिया के कृषि निर्यात के लिए नए अवसर खोलेगी, खासकर अनाज के लिए।
बाजार पहुंच के मामले में जीटीए ने ऑस्ट्रेलिया सरकार से आग्रह किया है कि वह टैरिफ मुक्त बाजार पहुंच की मांग करे। अगर ऐसा ना हो सका तो कम से कम ऑस्ट्रेलियाई अनाज के लिए टैरिफ मुक्त कोटा और मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) का दर्जा मांगे। ऑस्ट्रेलिया अपने यहां से दालें, वाइन और बागवानी उत्पादों का भी भारत को निर्यात बढ़ाना चाहता है। मुक्त व्यापार समझौते से ऑस्ट्रेलियाई भेड़ों के मांस और ऊल का निर्यात भी आसान हो जाएगा। इस समझौते से भारत के डेयरी सेक्टर को बाहर रखा गया है। हालांकि भारत ने मवेशियों को किसी भी तरह की टैरिफ में कमी की प्रतिबद्धता के ‘एक्सक्लूजन लिस्ट’ में रखा है। ऑस्ट्रेलिया ईसीटीए के इस रूप को अंतरिम मान रहा है और उसे उम्मीद है कि भविष्य में व्यापक समझौते पर सहमति बनेगी।
भारत कनाडा सरकार के साथ भी व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता (सीईपीए) पर बातचीत कर रहा है। कनाडा से भारत को 2021 में कृषि उत्पादों में सबसे अधिक छिलका युक्त मसूर दाल का निर्यात हुआ। कनाडा ने इनका 51.04 करोड़ कनाडाई डॉलर का निर्यात किया। कनाडियन एग्री फूड ट्रेड अलायंस (सीएएफटीए-काफ्टा) कृषि और एग्री-फूड उत्पादों के लिए भारत को एक बड़े निर्यात बाजार के रूप में देखता है। अभी भारत कनाडा से मसूर के आयात पर 30% टैरिफ लगाता है। काफ्टा को उम्मीद है कि सीईपीए से टैरिफ खत्म करने में मदद मिलेगी। इससे 5 वर्षों में कनाडा से इनका निर्यात 147% बढ़ सकता है। जहां तक भारत की बात है, तो भारत सरकार ने कह रखा है कि देश में दालों का उत्पादन बढ़ाया जाएगा ताकि आयात पर निर्भरता कम हो सके।
यहां एक और महत्वपूर्ण एफटीए का उल्लेख करने की जरूरत है, और वह है इंग्लैंड के साथ। इंग्लैंड के नए प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के साथ अभी यह मुद्दा बातचीत की मेज पर है। ब्रेक्जिट के बाद इंग्लैंड का व्यापार बढ़ाने के लिए उनसे पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी इसे समान प्राथमिकता दी थी। यूकेआईबीसी चुनिंदा सेक्टर में ही टैरिफ घटाने का समर्थन करती है। इनमें अल्कोहलिक स्पिरिट, खाद्य और हेल्थ केयर सेक्टर शामिल हैं। 5 सितंबर तक भारत और इंग्लैंड के ट्रेड वार्ताकार प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते के 26 चैप्टर में से 19 पर बातचीत पूरी कर चुके थे। बौद्धिक संपदा और अल्कोहल उद्योग को शामिल करना अभी विवाद का बिंदु बना हुआ है।
यूरोपियन यूनियन के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर 2007 से बातचीत चल रही थी। उसे 2013 में रोक दिया गया था, लेकिन अब फिर उसे रिवाइव किया जा रहा है। इसकी तीसरे दौर की वार्ता नई दिल्ली में 28 नवंबर से 9 दिसंबर 2022 तक हुई। इस एफटीए से यूरोपियन यूनियन में दी जाने वाली कृषि सब्सिडी को लेकर भारत की दीर्घकालिक चिंताओं का कोई समाधान नहीं होगा। दूसरी तरफ यह भारत के छोटे डेयरी उत्पादकों के लिए जोखिम भरा हो सकता है। इसके अलावा बौद्धिक संपदा को लेकर जो मांगे हैं, जैसे यूपीओवी-1991 को स्वीकार करना, उनसे किसानों के लिए पीपीवी एंड एफआर एक्ट के तहत बीज चुनने की आजादी जोखिम में पड़ सकती है। यूरोपियन यूनियन ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) पर अलग समझौता चाहता है जबकि भारत यूरोपियन यूनियन के कृषि उत्पादों, जैसे इटली से आने वाले हैम को पहले ही जीआई सुरक्षा दे रहा है। जीआई पर यूरोपियन यूनियन और भारत के बीच विशेष समझौते के लिए बातचीत ब्रसेल्स में 10 से 12 अक्टूबर तक हुई। तीसरे दौर की वार्ता 12 और 13 दिसंबर को 2022 को हुई।
‘ट्रांसपेरेंसी पॉलिसी इन डीजी ट्रेड’ के कारण यूरोपीय कमीशन मुक्त व्यापार समझौते के लिए समय-समय पर वैध टेक्स्ट और बातचीत के सुझाव की सिफारिशें जारी करता रहता है, ताकि सभी संबंधित पक्षों को आसानी हो। भारत और यूरोपियन यूनियन के बीच एफटीए के लिए यूनियन ने जो टेक्स्ट जारी किया है उसे यहां पढ़ा जा सकता है https://policy.trade.ec.europa.eu/eu-trade-relationships-country-and-region/countries-and-regions/india/eu-india-agreement/documents_en  लेकिन भारत के प्रस्ताव सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं।
मुक्त व्यापार समझौते में जाने की प्रक्रिया पर भी किसान समूहों समेत आम नागरिकों को ध्यान देने की जरूरत है। आमतौर पर इस तरह की बातचीत पारदर्शी नहीं होती और उनमें सभी पक्षों को शामिल भी नहीं किया जाता है। आधिकारिक बातचीत का ड्राफ्ट गोपनीय रहता है। अक्सर बड़े बिजनेस और सीआईआई जैसी कॉर्पोरेट बॉडी की सलाह ली जाती है। इस प्रक्रिया में किसान समूहों के साथ सलाह-मशविरा नहीं किया जाता है। संसद के दोनों सदनों में भी इस पर विस्तृत चर्चा नहीं होती। कृषि निर्यात नीति में राज्य सरकारों को अधिक से अधिक शामिल करने की बात कही गई है, लेकिन वास्तविकता यह है कि किसी भी एफटीए की वार्ता में उनकी सलाह ही नहीं ली जाती है। भारत के संविधान में अनेक विषय राज्यों की सूची अथवा समवर्ती सूची में हैं। इसके बावजूद राज्य सरकारों की सहभागिता बेहद सीमित होती है। इसलिए समझौते की शर्तों के अलावा एफटीए में जाने की प्रक्रिया को भी गंभीरता पूर्वक देखने की जरूरत है। खासकर किसान समूह और उन लोगों के लिए जो कृषि खाद्य प्रणाली में सस्टेनेबिलिटी को लेकर चिंतित हैं।
इनके अलावा भारत बहु-देशीय इंडो-पैसिफिक आर्थिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) में भी शामिल है। यह समझौता पारंपरिक व्यापार और निवेश मुद्दों से इतर है। इसका प्रस्ताव अमेरिका लेकर आया था और वही इसे आगे बढ़ा रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इसे लांच किया। इसमें इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के 14 देशों को एक साथ लाने की बात है ताकि इस क्षेत्र में चीन के प्रभाव को संतुलित किया जा सके। यह बातचीत भी गोपनीय तरीके से हो रही है ताकि अमेरिकी कॉरपोरेट हितों को आगे बढ़ाया जा सके। ईपीएफओ की पहली बातचीत ऑस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन में 10 से 15 दिसंबर तक हुई। भारत ने फिलहाल अभी अपने आप को आईपीईएफ के ट्रेड पिलर से बाहर रखा है, लेकिन तीन अन्य महत्वपूर्ण पिलर मे वह शामिल है। इनमें सप्लाई चैन, क्लीन इकोनॉमी और फेयर इकोनॉमी शामिल हैं। इसका भारत की मैक्रोइकोनॉमिक पॉलिसी पर भी बड़ा प्रभाव होगा और घरेलू नीति के लिए जगह सीमित हो जाएगी।
हाल में हुए मुक्त व्यापार समझौतों और आने वाले दिनों में होने वाले ऐसे समझौतों का कृषि पर कई तरीके से प्रभाव पड़ेगा। नई पीढ़ी के मुक्त व्यापार समझौते में कई अलग तरह के मुद्दे भी शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए, वित्तीय सेवाओं पर कई चैप्टर हैं जो भविष्य में ग्रामीण क्षेत्रों में दिए जाने वाले कर्ज को प्रभावित कर सकते हैं। एफटीए में व्यापार की मात्रा बढ़ाने की भी बात है। इसका मतलब है कि मैन्युफैक्चर्ड और कृषि उत्पादों का अधिक मात्रा में आयात किया जाएगा। इससे कृषि तथा उन घरेलू उद्योगों पर विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है जिनमें बड़ी संख्या में श्रमिक कार्य करते हैं। यह खासकर एग्रो प्रोसेसिंग और डेयरी जैसे सेक्टर में देखने को मिल सकता है। दूसरी तरफ बड़े मानक बैरियर के चलते इस बात की संभावना कम ही है कि भारत अपने निर्यात को ज्यादा बढ़ाने में सक्षम होगा।
इनके अलावा यूरोपियन यूनियन, अमेरिका और इंग्लैंड इन एफटीए में सरकारी खरीद में उदारीकरण अपनाने को भी बढ़ावा दे रहे हैं। इससे सरकार की तरफ से की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं की खरीद, कंस्ट्रक्शन और अन्य सार्वजनिक कार्यों में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बोली लगाने का मौका मिल जाएगा। यह भारतीय रेलवे जैसे सेक्टर में दिख सकता है। सिद्धांत के तौर पर देखा जाए तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में भी ऐसा हो सकता है। सरकारी खरीद में किसी भी तरह का उदारीकरण भारत की एमएसएमई, महिलाओं के नेतृत्व वाले छोटे बिजनेस, खादी और ग्रामीण उद्योग को प्रभावित कर सकते हैं। इन क्षेत्रों में करोड़ों की संख्या में लोग काम करते हैं।
अंत में, दवाओं, वैक्सीन और टेस्ट में विदेशी कंपनियों को पहुंच मिलना नकारात्मक हो सकता है। कोविड-19 महामारी के दौरान इसकी जरूरत काफी शिद्दत से महसूस की गई थी। इन मामलों में ट्रेड पार्टनर डब्ल्यूटीओ के ट्रिप्स प्लस मानकों के मुताबिक बौद्धिक संपदा अधिकार लागू करने की मांग करेंगे। इससे बहुराष्ट्रीय पेटेंट होल्डर कंपनियों को बाजार में अधिक अधिकार मिल जाएंगे। दूसरी तरफ, भारत की जेनेरिक मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों के लिए टेक्नोलॉजी तक पहुंच कम हो जाएगी जिसका असर उनकी उत्पादन क्षमता पर होगा। इसका रोजगार पर तो विपरीत प्रभाव पड़ेगा ही, जेनेरिक दवाओं का उत्पादन कम होने के साथ दवाओं की कीमत भी बढ़ जाएगी।
अर्थशास्त्र के पारंपरिक सिद्धांत भले ही कहते हों कि व्यापार नीतियों को उदार बनाने से अर्थव्यवस्था को खोलने वाले देशों को फायदा होता है, लेकिन इसका कुछ देशों पर विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है, खासकर गरीबों पर। भारत के सामने विकास की चुनौतियां कुछ अलग तरह की हैं। जिन विकसित देशों के साथ भारत एफटीए कर रहा है उनके सामने यह चुनौतियां नहीं हैं। व्यापार में उदारीकरण अलग-अलग देशों और समूहों को अलग तरीके से प्रभावित करता है। कृषि नीति निर्माताओं और ट्रेड वार्ताकारों को पूरक नीतियों पर भी गौर करना चाहिए ताकि एफटीए से होने वाले विपरीत प्रभावों को कम किया जा सके, खासकर कमजोर वर्ग के लिए।

(लेखिका नई दिल्ली में लीगल रिसर्चर और नीति विश्लेषक हैं। भारत के 1995 में डब्लूटीओ का सदस्य बनने के समय से वे व्यापार नियमों पर नजर रखती रही हैं। उनका फोकस समुदाय और संरक्षण पर रहा है)

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