सर्विस, कृषि और मैन्युफैक्चरिंग में इंटीग्रेटेड अप्रोच से ही कोऑपरेटिव का विकास संभव: सतीश मराठे

भारतीय रिजर्व बैंक के डायरेक्टर सतीश मराठे ने भारत के संदर्भ में फ्रांस, जर्मनी और नीदरलैंड्स के कोऑपरेटिव आंदोलन का अध्ययन करने का सुझाव दिया। कृषि क्षेत्र के लिए फ्रांस और नीदरलैंड तथा मैन्युफैक्चरिंग के लिए जर्मनी के मॉडल का अध्ययन किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस तरह अंतरराष्ट्रीय अनुभवों का इस्तेमाल भारत में कोऑपरेटिव के विकास में किया जा सकता है

सर्विस, कृषि और मैन्युफैक्चरिंग में इंटीग्रेटेड अप्रोच से ही कोऑपरेटिव का विकास संभव: सतीश मराठे

रिजर्व बैंक के डायरेक्टर और सहकार भारती के संस्थापक सदस्य सतीश मराठे ने कहा है कि कोऑपरेटिव को अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्र सर्विस सेक्टर, कृषि और मैन्युफैक्चरिंग में लाना होगा। इंटीग्रेटेड नजरिया अपनाने से ही उनका विकास हो सकता है। उन्होंने भारत के संदर्भ में फ्रांस, जर्मनी और नीदरलैंड्स के कोऑपरेटिव आंदोलन का अध्ययन करने का सुझाव दिया। कृषि क्षेत्र के लिए फ्रांस और नीदरलैंड तथा मैन्युफैक्चरिंग के लिए जर्मनी के मॉडल का अध्ययन किया जा सकता है। इस तरह अंतरराष्ट्रीय अनुभवों का इस्तेमाल भारत में कोऑपरेटिव के विकास में किया जा सकता है। वे रूरल वॉयस और सहकार भारती की तरफ से आयोजित ‘सहकार से समृद्धिः रास्ते अनेक’ विषय पर आयोजित परिचर्चा के एक सत्र में बोल रहे थे। इस सत्र का विषय था ‘सहकारिता में वैश्विक अनुभव का भारत कैसे फायदा उठाए’। 

उन्होंने कहा कि कोऑपरेटिव सेक्टर को अतीत में दो बड़े झटके लगे। पहला 1967 में जब योजना आयोग ने कोऑपरेटिव को बढ़ावा देने के साथ ये शब्द जोड़ दिए - यदि संभव हो। इससे कोऑपरेटिव को प्राथमिकता देने की बात 1967 में ही समाप्त हो गई। दूसरा धक्का 1991 में लगा जब कोऑपरेटिव सेक्टर को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। देश को आर्थिक सुधारों और उदार उदारीकरण की जरूरत थी। इस प्रक्रिया में सार्वजनिक क्षेत्र की रत्न कंपनियों और निजी क्षेत्र को बढ़ावा तो दिया गया लेकिन कोऑपरेटिव को भुला दिया गया।

उन्होंने कहा कि कोऑपरेटिव को सभी देशों में ओनरशिप के एक अलग रूप के रूप में स्वीकार किया गया है। विकसित देशों में इन्हें आर्थिक या बिजनेस एंटरप्राइज के रूप में माना जाता है जबकि भारत में ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत में भी कोऑपरेटिव मुनाफे में हैं लेकिन इन संस्थानों का मकसद मुनाफा कमाना नहीं। हम जानते हैं कि सामाजिक पूंजी का सबसे ज्यादा निर्माण कोऑपरेटिव के माध्यम से ही हुआ है। इन मुद्दों पर किसी भी पार्टी की सरकार ने विचार नहीं किया, जो बड़ी अड़चन है। इन मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि दूसरे देशों में कोऑपरेटिव के हर रूप को मान्यता दी गई है, चाहे वह कॉर्पोरेट के रूप में हो एलएलपी के रूप में हो या किसी अन्य रूप में। भारत में भी ऐसा किया जा सकता है।

उन्होंने कोऑपरेटिव और बैंकिंग के बीच इंगेजमेंट बढ़ाने की जरूरत बताई। विकसित देशों में ऐसी व्यवस्था है। भारत में ऐसा करने के लिए निवेश नियमों में बदलाव की जरूरत पड़ेगी। उन्होंने कहा कि भारत में विकास क्रेडिट की उपलब्धता पर निर्भर है। अपनी पूंजी किसी के पास भी सीमित होती है जबकि निवेश की जरूरत हर सेक्टर में है। कोऑपरेटिव में निवेश के लिए उनका बैंकों और वित्तीय संस्थानों के साथ जुड़ाव जरूरी है। सेबी को भी इन्हें पूंजी बाजार में जाने की अनुमति देनी चाहिए। फ्रांस में कोऑपरेटिव 'एक व्यक्ति एक वोट' की व्यवस्था को बरकरार रखते हुए पूंजी बाजार से पैसा जुटा सकते हैं। विकसित देशों में कोऑपरेटिव के लिए पूंजी जुटाने के कई रास्ते हैं जबकि भारत में इसका अभाव है। उन्होंने कहा कि दीर्घकाल में ब्याज मुक्त धन के बिना कोऑपरेटिव बड़ा असर नहीं डाल सकते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि कोऑपरेटिव के रोज का कामकाज देखने वाले मैनेजमेंट और उनकी ओनरशिप दोनों को अलग करना जरूरी है। बोर्ड को रोज का कामकाज नहीं देखना चाहिए। इसके लिए इंडोनेशिया के मॉडल का अध्ययन किया जा सकता है। इन संस्थाओं को 100 फीसदी स्वामित्व वाली कंपनी बनाने की अनुमति भी मिलनी चाहिए। सरकार के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि वह रेगुलेशन तो करे लेकिन कोऑपरेटिव का माइक्रोमैनेजमेंट ना करे। कोऑपरेटिव को सरकारी मदद साझीदार की तरह होनी चाहिए। जब संस्था अपने पैरों पर खड़ी हो जाए तो सरकार को उससे बाहर निकल जाना चाहिए। 

उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें जो कानून बनाती हैं उसका लक्ष्य कोऑपरेटिव के लिए बिजनेस का वातावरण बेहतर बनाना होना चाहिए ना कि उन पर नियंत्रण करना। सभी देशों में कॉपरेटिव के लिए मजबूत रेगुलेशन और सुपरविजन की व्यवस्था है। लेकिन उनका माइक्रोमैनेजमेंट नहीं किया जाता है। उन्हें कामकाज की पूरी आजादी होती है।

मराठे के अनुसार बहुत से नए सेक्टर में कोऑपरेटिव की पहल की आवश्यकता है। कंज्यूमर कोऑपरेटिव भी इनमें एक है। बीमा और फाइनेंशियल सेक्टर जैसे क्षेत्रों में कॉपरेटिव को आना चाहिए। उन्होंने कहा कि ई-कॉमर्स का जिस तेजी से विस्तार हो रहा है उसे देखते हुए कंज्यूमर कोऑपरेटिव को मजबूत करने की जरूरत है।

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