अरावली क्षेत्र को विनाश से बचाने के लिए जन अभियान का ऐलान
पर्यावरण और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अरावली के विनाश से उत्तर पश्चिम भारत में मरुस्थलीकरण, भूजल संकट, जैव विविधता को नुकसान के साथ-साथ लोगों की आजीविका पर गंभीर संकट को लेकर आगाह किया।
दिल्ली-एनसीआर, हरियाणा और राजस्थान के नागरिक समाज समूहों ने गुरुवार को जयपुर में अरावली विरासत जन अभियान की शुरुआत की। अभियान का उद्देश्य अरावली पर्वत श्रृंखला को खनन और पर्यावरणीय विनाश से बचाना है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की नई परिभाषा स्वीकार किए जाने के बाद चिंता बढ़ गई है, क्योंकि इस परिभाषा से अरावली की 90% से अधिक पहाड़ियां संरक्षण से बाहर हो सकती हैं। पर्यावरण और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इससे उत्तर पश्चिम भारत में मरुस्थलीकरण, भूजल संकट, जैव विविधता हानि और लाखों लोगों की आजीविका पर गंभीर असर पड़ सकता है।
इस अवसर पर आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में ‘पीपल फॉर अरावली’ की संस्थापक सदस्य नीलम अहलूवालिया ने बताया कि कई पर्यावरणविदों, नागरिक समूहों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं, वकीलों और नागारिकों ने मिलकर 'अरावली विरासत जन अभियान' शुरू किया है। इसका उद्देश्य विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक अरावली को अत्यधिक खनन और विनाश से बचाना है। इस अभियान को शुरू करने के लिए 'अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस' को चुना, क्योंकि 11 दिसंबर को वर्ष 2003 से हर साल पहाड़ों के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करने के दिन के रूप में मनाया जाता रहा है।
यह पहल सर्वोच्च न्यायालय के 20 नवंबर 2025 के फैसले के बाद शुरू की गई है, जिसके लागू होने पर उत्तर पश्चिम भारत का मरुस्थलीकरण रोधक और पर्यावरण के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र नष्ट होने तथा लाखों लोगों की खाद्य व जल सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का खतरा है।
'अरावली विरासत जन अभियान' की ओर से जारी विज्ञप्ति के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने खनन के संबंध में 'अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं' की परिभाषा को लेकर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा की गई सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है। नई परिभाषा के अनुसार, किसी भू-आकृति को अरावली का हिस्सा तभी माना जाएगा जब उसकी ऊंचाई, भू-आकृति की ढलानों और आसपास के क्षेत्रों सहित, स्थानीय भू-भाग से कम से कम 100 मीटर हो। यानी समतल जमीन से 100 मीटर तक की ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली नहीं माना जाएगा और अरावली को मिलने वाला संरक्षण नहीं मिलेगा। ऐसे में वहां खनन और अन्य गतिविधियों की राह आसान हो जाएगी जो पूरे क्षेत्र के लिए विनाशकारी साबित होगी।
भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) के एक आकलन के मुताबिक, राजस्थान के 15 जिलों में स्थित अरावली पर्वत श्रृंखला की 12,081 मानचित्रित पहाड़ियों में से केवल 1048 पहाड़ियां ही 100 मीटर की ऊंचाई के मानदंड को पूरा करती हैं। इसका मतलब यह है कि 90% से अधिक क्षेत्र जो अरावली माना जाता था, अब संरक्षण से बाहर हो जाएगा और खनन की राह आसान हो जाएगी। अरावली का बड़ा हिस्सा 100 मीटर की परिभाषा को पूरा नहीं करता है।
पीपल यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव ने कहा, “अरावली विरासत जन अभियान मांग करता है कि सर्वोच्च न्यायालय 20 नवंबर 2025 के उस फैसले को वापस ले, जिसमें अरावली पर्वतमाला की नई, एकसमान परिभाषा को स्वीकार किया गया था। यह निर्णय उत्तर पश्चिम भारत के मरुस्थलीकरण के एकमात्र अवरोधक, महत्वपूर्ण जल पुनर्भरण क्षेत्रों, प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रों और वन्यजीव आवासों को भारी क्षति पहुंचा सकता है।
कविता श्रीवास्तव ने कहा कि हम यह भी मांग करते हैं कि सरकार पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के नेतृत्व वाली समिति द्वारा दी गई अरावली की एकसमान परिभाषा को रद्द करे, ताकि भारत की पारिस्थितिक, भूवैज्ञानिक और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा की जा सके। उन्होंने गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के 692 किमी क्षेत्र में फैली अरावली पर्वतमाला को 'महत्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्र' घोषित करने की भी मांग की है।
पर्यावरण कार्यकर्ता कैलाश मीणा ने कहा, “अरावली पर्वतमाला उत्तर पश्चिम भारत के लिए एक महत्वपूर्ण जल पुनर्भरण क्षेत्र है और इस क्षेत्र की जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इसे हर कीमत पर बचाना आवश्यक है। अरावली के नीचे स्थित जलभंडार आपस में जुड़े हुए हैं और विस्फोट और ड्रिलिंग कार्यों के कारण पहाड़ियों के टूटने से इस पैटर्न में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी जलभंडारों को नुकसान पहुंचा सकती है। अरावली पट्टी में कई खनन क्षेत्रों में भूजल स्तर 1000-2000 फीट तक गिर गया है, जिससे पीने और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अधिक पहाड़ियों के खनन से यह स्थिति और भी खराब हो जाएगी।”
राजस्थान किसान मजदूर नौजवान सभा के समन्वयक वीरेंद्र मोर ने कहा, “राजस्थान के उत्तर पूर्वी जिलों, विशेष रूप से अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, जयपुर, दौसा और सवाई माधोपुर के लिए, अरावली पर्वत श्रृंखला केवल एक भू-आकृति नहीं है, बल्कि जल के लिए हमारी जीवनरेखा है और किसानों की आजीविका सीधे इस पर निर्भर करती है। अरावली क्षेत्र में बढ़ते खनन और पहाड़ियों के अवैज्ञानिक वर्गीकरण से गंभीर पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न होगा, जिससे पूरे उत्तर पूर्वी राजस्थान की पारिस्थितिकी गंभीर खतरे में पड़ जाएगी।
अरावली क्षेत्र में खनन के कारण पहले ही कई पहाड़ियां और उनके साथ-साथ पशु चरागाह भी नष्ट हो चुके हैं। अरावली क्षेत्र के जिन गांवों में खनन बड़े पैमाने पर हो रहा है, वहां पशुधन की संख्या में भारी गिरावट आई है, जिससे लोगों की पारंपरिक आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। दक्षिण हरियाणा और राजस्थान में अरावली क्षेत्र में कृषि उत्पादकता पहले से ही कम हो गई है, जिसका कारण अत्यधिक खनन के कारण पानी की कमी और फसलों पर पत्थर तोड़ने वाली मशीनों से निकलने वाली धूल की परत है। अब अरावली पर्वतमाला की 90% से अधिक पहाड़ियों के खनन के लिए खोले जाने से यह स्थिति और भी खराब हो जाएगी।
खनन के लिए और अधिक पहाड़ियों को खोले जाने से लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ेगा और चिकित्सा खर्चों में भारी वृद्धि होगी। गुजरात, राजस्थान और हरियाणा के अरावली क्षेत्र में रहने वाले कई लोग इससे प्रभावित होंगे। वे त्वचा, यकृत या गुर्दे से संबंधित विभिन्न समस्याओं या फेफड़ों की बीमारियों जैसे अस्थमा, सीओपीडी, तपेदिक और जानलेवा बीमारी - सिलिकोसिस से पीड़ित हैं।
अरावली क्षेत्र में पत्थर तोड़ने वाली मशीनें लगातार चलती रहती हैं, जिससे हवा में सिलिका की धूल फैलती है और कई वायुजनित बीमारियां फैलती हैं। भारी विस्फोटों में इस्तेमाल होने वाले रसायन धरती में गहराई तक प्रवेश करते हैं, भूजल स्रोतों और सतही जल निकायों को प्रदूषित करते हैं और जलजनित बीमारियों को फैलाते हैं। कई मामलों में, असुरक्षित खनन कार्यों के कारण भूस्खलन या भारी पत्थर आवासीय क्षेत्रों और कृषि क्षेत्रों में गिर जाते हैं, जिससे लोग घायल हो जाते हैं और कभी-कभी उनकी मृत्यु भी हो जाती है।

Join the RuralVoice whatsapp group















