ग्लाइफोसेट की बिक्री से नियंत्रण हटाने की किसान संगठनों ने की मांग, जब तक पर्याप्त पीसीओ न हों बहाल रहे पुरानी व्यवस्था

किसानों का कहना है कि सरकार को इसका प्रभावी विकल्प भी मुहैया कराना चाहिए क्योंकि अगर खरपतवारनाशक का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो फसलों की लागत 3-16 हजार रुपये प्रति एकड़ बढ़ जाएगी। ग्लाइफोसेट से कैंसर होने और अमेरिका में इसके खिलाफ एक लाख से ज्यादा मुकदमा चलने का हवाला देते हुए स्वदेशी जागरण मंच ने इसके इस्तेमाल और बिक्री पर पूरी तरह से रोक लगाने की मांग की थी। सरकार ने इसकी बिक्री को नियंत्रित करने के लिए अधिसूचना जारी की थी

ग्लाइफोसेट की बिक्री से नियंत्रण हटाने की किसान संगठनों ने की मांग, जब तक पर्याप्त पीसीओ न हों बहाल रहे पुरानी व्यवस्था

खरपतवारनाशी ग्लाइफोसेट की बिक्री को नियंत्रित करने के केंद्र सरकार के फैसले से किसान परेशान हैं। उनकी मांग है कि जब तक पर्याप्त संख्या में सक्षम पीसीओ (पेस्ट कंट्रोल ऑपरेटर्स) की व्यवस्था न हो जाए तब तक बिक्री की पुरानी व्यवस्था को ही बहाल किया जाए। अभी देश में पीसीओ की संख्या बहुत कम है, खासकर ग्रामीण इलाकों में तो उनकी मौजूदगी नगण्य है। ऐसे में किसान कहां से इसे खरीदेंगे, उन्हें पता ही नहीं है। किसानों का कहना है कि सरकार को इसका प्रभावी विकल्प भी मुहैया कराना चाहिए क्योंकि अगर खरपतवारनाशक का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो फसलों की लागत 3-16 हजार रुपये प्रति एकड़ बढ़ जाएगी। ग्लाइफोसेट को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताते हुए  इससे कैंसर होने जैसे खतरों और अमेरिका में इसके खिलाफ एक लाख से ज्यादा मुकदमा चलने का हवाला देते हुए स्वेदेशी जागरण मंच ने इसके इस्तेमाल और बिक्री पर पूरी तरह से रोक लगाने की मांग की थी। सरकार ने पूरी तरह से रोक तो नहीं लगाई लेकिन सिर्फ पीसीओ के जरिये ही इसकी बिक्री करने की अधिसूचना पिछले साल अक्टूबर में जारी कर इसे नियंत्रित कर दिया था।       

भारत सहित दुनिया के 160 देशों में ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल हो रहा है, जबकि 35 देशों में यह प्रतिबंधित है। देश में भी केंद्र सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने से पहले ही केरल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र की सरकारों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया था। यह सस्‍ता और प्रभावी केमिकल है। देश के किसान बड़ी मात्रा में पिछले कई वर्षों से लगातार इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे न सिर्फ श्रम लागत बचती है बल्कि समय की भी बचत होती है। हालांकि, इससे कैंसर होने का खतरा बताया जा रहा है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ करीब 1.40 लाख मुकदमें चल रहे हैं। स्वदेशी जागरण मंच का भी यही कहना है कि इससे किसानों और कृषि भूमि के स्वास्थ्य को खतरा है लेकिन अभी तक किसी भारतीय संस्था ने न तो इसकी जांच की है और न ही सरकार की अधिसूचना में इसे प्रतिबंधित करने के पीछे कोई ठोस वजह बताई गई है। बिक्री नियंत्रित होने और पीसीओ की संख्या बहुत कम होने से अगली फसल की तैयारी में लगे बहुसंख्यक किसानों को परेशानी उठानी पड़ रही है। साथ ही बिना पीसीओ के इसे खरीदने वाले किसानों पर एफआईआर दर्ज हो रही है लेकिन इसे बेचने वालों या कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है।   

अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने इस संबंध में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को चिट्ठी लिखकर किसानों के खिलाफ हो रही कार्रवाइयां रोकने की मांग की है। अपने पत्र में उन्होंने कहा है कि पर्याप्त संख्या में सक्षम पीसीओ की व्यवस्था किए बिना और इसका कोई समकक्ष प्रभावी एवं सुरक्षित विकल्प किसानों को मुहैया कराये बिना ही प्रतिबंध लगा दिया गया है। उन्होंने पत्र में सरकार पर आरोप लगाया है कि ऐसा मालूम होता है कि शायद सरकार ने कुछ खास लोगों, संस्थाओं, कंपनियों को उपकृत व लाभान्वित करने के लिए यह नीति लागू की है। इसे बेचने वाली कंपनियां दावा भी करती हैं कि यह उत्पाद पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है लेकिन ये तो जांच का विषय है। रूरल वॉयस से बातचीत में राजाराम त्रिपाठी ने कहा, “अगर यह असुरक्षित है तो सरकार को इसकी जांच आईसीआर या सीएसआईआर जैसी किसी भारतीय संस्था से करानी चाहिए थी। उसकी रिपोर्ट के आधार पर ही फैसला लिया जाना चाहिए। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में दिए गए तर्कों के आधार पर भारत में प्रतिबंध लगाने का फैसला कर लिया गया। जब तक सक्षम और प्रभावी पीसीओ की पर्याप्त व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक सरकार को पुरानी व्यवस्था ही लागू रखनी चाहिए। अभी तो ग्रामीण इलाकों में पीसीओ की मौजूदगी ही नहीं है। अगर किसान इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे तो प्रति एकड़ 3-16 हजार रुपये तक लागत बढ़ जाएगी। किसान पहले से ही कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। सरकार की ऐसी कार्रवाई से केवल किसानों का उत्पीड़न बढ़ रहा है।”

वहीं इस बारे में बात करने पर इसकी बिक्री का मुखर विरोध करने वाले संगठन स्वदेशी जागरण मंच के संयोजक अश्विनी महाजन ने रूरल वॉयस से कहा, “यह सरकार का दायित्व है कि वह किसानों को यह जानकारी दे कि इसके खतरे क्या हैं और इसके विकल्प क्या हैं। अमेरिका में इसके खिलाफ 1.40 लाख मुकदमें चल रहे हैं और इसका इस्तेमाल करने वालों को कैंसर होने का खतरा काफी बढ़ गया है। इसके चलते पूरी दुनिया में प्रतिबंध लगाने के कदम उठाए जा रहे हैं। देश के छह राज्यों में पहले से इस पर प्रतिबंध लगा हुआ है। किसान संगठनों की राय के आधार पर ही हमने सरकार से इस पर रोक लगाने की मांग की थी क्योंकि बहुत बड़ी संख्या में किसान इससे प्रभावित हो रहे थे और उन्हें कैंसर हो रहा था। किसानों को इसके इस्तेमाल की सही जानकारी नहीं होती और न ही कंपनियां इस बारे में उन्हें पर्याप्त जानकारी देती हैं। इसलिए सरकार का ये कदम किसानों के हित में है।” इसे खरीदने वाले किसानों के खिलाफ कार्रवाई को अश्विनी महाजन भी सही नहीं मानते। उनका कहना है कि किसानों के खिलाफ मामला नहीं बनाया जाना चाहिए बल्कि बेचने वालों या कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।

महाजन यह भी कहते हैं, “नियमतः ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल चाय बागानों और गैर फसली इलाकों में ही हो सकता है। ये इसी के लिए पंजीकृत हैं। यह तो खेती में इस्तेमाल करने के लिए है ही नहीं। चूंकि इसकी बिक्री पर प्रतिबंध नहीं था इसलिए किसान इसका इस्तेमाल कर रहे थे। किसानों के लिए तो यह पहले भी नहीं था। अब चाय बागानों में भी पीसीओ के जरिये ही इसका इस्तेमाल होगा। यह ठीक नहीं है कि कंपनियां किसानों को बरगलाएं जिससे जमीन और उनका दोनों का स्वास्थ्य खराब हो।”

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