अमेरिकी टैरिफ पर बातचीत की प्रक्रिया फिर शुरू, क्या टैरिफ भारतीय कृषि में बदलाव लाएंगे?
भारत के किसान देश के कार्यबल का 40 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा हैं। उनके लिए इस टैरिफ के परिणाम तटीय समुद्री खाद्य के हब से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों के चावल उत्पादक क्षेत्र तक को प्रभावित कर सकते हैं। इससे कीमतों में गिरावट, आय में कमी और ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरियां कम हो सकती हैं।

जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने फरवरी में अपनी तथाकथित ‘निष्पक्ष (फेयर) और पारस्परिक (रेसिप्रोकल)’ टैरिफ योजना शुरू करने के लिए मेमोरेंडम पर हस्ताक्षर किए, तो भारतीय नीति निर्माताओं को डर था कि इसका सबसे बड़ा खमियाजा कृषि क्षेत्र को भुगतना पड़ेगा। छह महीने बाद ये आशंकाएं सच साबित हो रही हैं। भारतीय कृषि उत्पादों पर टैरिफ अब 50 प्रतिशत तक हो गया है, जिससे झींगा, चावल, फल और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का निर्यात अचानक खतरे में पड़ गया है। ये उत्पाद अमेरिका के साथ भारत के 3.4 अरब डॉलर के कृषि सरप्लस का मुख्य हिस्सा रहे हैं।
भारत के किसान देश के कार्यबल का 40 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा हैं। उनके लिए इस टैरिफ के परिणाम तटीय समुद्री खाद्य के हब से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों के चावल उत्पादक क्षेत्र तक को प्रभावित कर सकते हैं। इससे कीमतों में गिरावट, आय में कमी और ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरियां कम हो सकती हैं। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (इक्रियर) की एक नई रिपोर्ट में इसे लेकर चेतावनी दी गई है, "अमेरिका को भारत का कृषि निर्यात तेजी से कम हो सकता है और ट्रेड सरप्लस समाप्त हो सकता है।"
सिकुड़ता अमेरिकी बाजार
अनेक वर्षों से भारतीय कृषि उत्पाद अपेक्षाकृत कम टैरिफ पर अमेरिकी बाजार को निर्यात किए जाते रहे हैं। अमेरिका को भारत का सबसे बड़ा कृषि निर्यात झींगे (श्रिंप) का रहा है, और इस पर कोई शुल्क नहीं लगता था। चावल, शहद और पौधों के अर्क पर भी टैरिफ की दर न्यूनतम रही है।
लेकिन पारस्परिक शुल्क (रेसिप्रोकल टैरिफ) की नीति ने इस समीकरण को बदल दिया है। वियतनाम और थाईलैंड ने अमेरिका के साथ कम व्यापार बाधाओं वाले और सक्रिय मुक्त व्यापार समझौते किए हैं। ये देश समुद्री खाद्य और चावल के बाजार में भारत की हिस्सेदारी हथियाने की अच्छी स्थिति में हैं। यहां तक कि झींगा के क्षेत्र में उभरता हुआ प्रतिस्पर्धी बांग्लादेश भी भारत की स्थिति में अचानक आई कमी से लाभान्वित हो सकता है।
राजनीतिक गतिरोध
टैरिफ का टकराव आर्थिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक भी है। अमेरिकी अधिकारी लंबे समय से भारत से डेयरी, पोल्ट्री और आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों पर बाधाएं कम करने की मांग कर रहे हैं। ये ऐसे क्षेत्र हैं जिनका भारत सांस्कृतिक और छोटे किसानों के आधार पर कड़ा संरक्षण करता है। उदाहरण के लिए, भारत के डेयरी नियम पशु-जनित चारा खाने वाले मवेशियों के उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगाते हैं। यह अमेरिकी निर्यातकों के लिए एक बड़ी बाधा है।
ऐसे मामलों में झुकना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राजनीतिक रूप से मुश्किल होगा, जिनकी एनडीए सरकार ने कृषि संरक्षण के वादों के इर्द-गिर्द अपना ग्रामीण आधार तैयार किया है। इसलिए भारतीय अधिकारी झींगा निर्यातकों और चावल किसानों के लिए राहत पैकेज का संकेत दे रहे हैं, तो साथ ही आत्मनिर्भरता के नारे पर और जोर दे रहे हैं।
व्यापक आर्थिक दांव
कई अध्ययनों में यह अनुमान लगाया गया है कि ट्रम्प के टैरिफ बढ़ाने से विभिन्न क्षेत्रों में लगभग 48 अरब डॉलर मूल्य के भारतीय निर्यात प्रभावित हो सकते हैं। अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि भारत की जीडीपी वृद्धि दर में इससे 0.2 से 0.5 प्रतिशत की गिरावट आएगी। कमजोर रुपया और बढ़ती उधारी लागत इस दबाव को और बढ़ा सकती है।
कृषि के लिए जोखिम तत्काल हैं। घरेलू स्तर पर अधिक आपूर्ति चावल, कपास और मेवे की कीमतों को कम कर सकती है। इससे उस क्षेत्र की आय कम हो जाएगी जो पहले से ही बढ़ते कर्ज बोझ और जलवायु परिवर्तन के झटकों का सामना कर रहा है।
एक निर्णायक क्षण
भारत अपने किसानों को उच्च शुल्कों के माध्यम से संरक्षित करता रहा है। कृषि क्षेत्र में आयात शुल्क औसतन 39 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका में यह 5 प्रतिशत है। भारत का यह मॉडल इसे इसी प्रकार के प्रतिशोधी शुल्क के प्रति संवेदनशील बना रहा है। इक्रियर की रिपोर्ट में कहा गया है, "भारत टैरिफ से अनिश्चित काल तक खुद को बचा नहीं सकता।" इसमें उत्पादकता-संचालित प्रतिस्पर्धात्मकता की ओर बढ़ने का आग्रह किया गया है।
इसके लिए कठिन बदलावों की आवश्यकता होगी- प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों और डेयरी जैसे उत्पादों पर शुल्क को धीरे-धीरे कम करना, कृषि अनुसंधान एवं विकास (जिस पर आज कृषि-जीडीपी का 0.5 प्रतिशत से भी कम खर्च होता है) में निवेश करना, अपशिष्ट को कम करने तथा विदेशों के कड़े स्वच्छता मानकों को पूरा करने के लिए आधुनिक आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण करना।
भारत पर बाजारों में विविधता लाने का भी दबाव है। व्यापार मामलों के अधिकारी यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और अफ्रीकी देशों के साथ बातचीत को प्राथमिकता दे रहे हैं ताकि अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता कम की जा सके।
व्यापक तस्वीर
टैरिफ की लड़ाई भारत की आर्थिक रणनीति में एक बड़े तनाव को रेखांकित करती है: क्या वह छोटे किसानों की रक्षा करने के साथ खुद को एक निर्यात महाशक्ति के रूप में पेश कर सकता है? फिलहाल नई दिल्ली में राजनीतिक हवाएं अवज्ञा के पक्ष में हैं। लेकिन सुधारों के बिना भारत के सामने वैश्विक कृषि में अपने से बेहतर प्रतिस्पर्धियों से पीछे छूट जाने का खतरा है।
ट्रंप के लिए ये टैरिफ व्यापार घाटा कम करने के लिए ‘अमेरिका फर्स्ट’ अभियान का हिस्सा हैं। अमेरिका का व्यापार घाटा पिछले साल 918 अरब डॉलर था, जिसमें भारत का योगदान 45.7 अरब डॉलर का था। मोदी के लिए ये टैरिफ इस बात की परीक्षा बन गए हैं कि क्या ‘आत्मनिर्भर भारत’ वैश्विक बाजार के दबावों का सामना कर सकता है।
आने वाले महीनों में पता चलेगा कि क्या भारत की कृषि अर्थव्यवस्था हालात के अनुकूल हो पाएगी, या क्या अमेरिकी टैरिफ उसे और अधिक गहन मूल्यांकन के लिए बाध्य करेंगे।
(लेखक प्रेट्र ऑफ इंडिया के पूर्व एडिटर-ईस्ट हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)