एथेनॉल फैक्ट्री विरोध: अगली महापंचायत के लिए 7 जनवरी के दिन और संगरिया के मायने

हनुमानगढ़ में एथेनॉल फैक्ट्री के खिलाफ चल रहे आंदोलन में अगली महापंचायत के लिए 7 जनवरी की तारीख और संगरिया कस्बे को ही क्यों चुना गया? इसे संयोग नहीं, बल्कि सोची-समझी रणनीति माना जा रहा है। इसके पीछे इलाके के ऐतिहासिक किसान आंदोलन की स्मृति जुड़ी हुई हैं।

एथेनॉल फैक्ट्री विरोध: अगली महापंचायत के लिए 7 जनवरी के दिन और संगरिया के मायने
संगरिया में किसान शहीद स्मारक पर श्रद्धासुमन अर्पित करते लोग। फाइल फोटो।

राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के राठीखेड़ा गांव में प्रस्तावित एथेनॉल फैक्ट्री को लेकर चल रहा किसान आंदोलन अब एक निर्णायक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है। जिला मुख्यालय पर हुई हालिया महापंचायत के बाद यह आंदोलन सिर्फ एक स्थानीय विरोध भर नहीं रह गया, बल्कि उसने पूरे इलाके के किसान आंदोलन के इतिहास और स्मृतियों को फिर से जीवित कर दिया है। किसानों ने साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक सरकार फैक्ट्री से जुड़ा एमओयू निरस्त नहीं करती, तब तक आंदोलन वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। दूसरी ओर, सरकार ने जांच समिति के गठन की घोषणा कर फिलहाल समय हासिल करने की रणनीति अपनाई है। ऐसे में आने वाले बीस दिन इस पूरे विवाद की दिशा और दशा तय करने वाले माने जा रहे हैं।

महापंचायत के तुरंत बाद किसान संगठनों ने आंदोलन को चरणबद्ध ढंग से आगे बढ़ाने की रणनीति बना ली है। सरकार को बीस दिन का स्पष्ट अल्टीमेटम दिया गया है और 7 जनवरी को संगरिया में अगली महा पंचायत बुलाने का ऐलान कर दिया गया है। किसान नेताओं का कहना है कि यदि इस अवधि में सरकार की ओर से कोई ठोस और निर्णायक फैसला नहीं आया, तो आंदोलन को जिले और राज्य स्तर से आगे ले जाकर व्यापक रूप दिया जाएगा।

सवाल उठता है कि अगली महापंचायत के लिए 7 जनवरी की तारीख और संगरिया कस्बे को ही क्यों चुना गया? जानकार इसे संयोग नहीं, बल्कि सोची-समझी रणनीति बताते हैं। इसके पीछे इलाके के सबसे बड़े और ऐतिहासिक किसान आंदोलन की स्मृति जुड़ी हुई है। यही वह धरती है, जहां पचास से अधिक वर्ष पहले किसानों ने अपनी जमीन और अधिकारों के लिए खून बहाया था।

दरअसल, 1960 के दशक के अंत में श्रीगंगानगर जिले, जिसका हिस्सा उस समय हनुमानगढ़ क्षेत्र भी था, में भूमि नीलामी और सिंचाई शुल्क जैसे मुद्दों को लेकर एक बड़ा किसान आंदोलन खड़ा हुआ था। नहरी इलाके की उपजाऊ जमीनें सरकार द्वारा नीलामी के जरिए पैसे वाले लोगों को दी जा रही थीं, जबकि किसानों और भूमिहीनों की मांग थी कि इन जमीनों का आवंटन उन्हें किया जाए, जो वर्षों से यहां खेती और मजदूरी कर रहे हैं। इसी आंदोलन के दौरान 7 जनवरी 1970 को संगरिया में पुलिस ने किसानों पर गोलियां चला दीं, जिसमें छह किसानों की मौके पर ही मौत हो गई।  

संगरिया में 7 जनवरी 1970 को पुलिस की गोली से शहीद हुए किसानों का स्मारक। फाइल फोटो

संगरिया में गोली लगने से उस दिन अमरपुरा जालू खाट के देवेन्द्र सिंह, नाथवाना के केसराराम, रतनपुरा के रूड़ सिंह, चौटाला गांव के हरियाणा पुलिस के एक सिपाही रामपहर राम, संगरिया के चंदूराम और एक अन्य की मौत हो गई। उसी दिन भादरा कस्बे में फायरिंग में किसान आंदोलन से जुड़े दो छात्र शहीद हुए, जबकि पड़ोसी जिले चूरू में भी एक किसान की जान चली गई। यह पूरा इलाका उस दिन गोलियों की आवाज से दहल उठा था।

इस व्यापक आंदोलन की चिंगारी को भड़काने में अनूपगढ़ की घटना ने आग में घी डालने का काम किया। 3 अक्टूबर 1969 को अनूपगढ़ में सरकारी भूमि की नीलामी प्रस्तावित की गई थी। इसके विरोध में किसानों और भूमिहीनों ने संगठित होकर आंदोलन शुरू किया। माकपा नेता शोपत सिंह मक्कासर और हेतराम बेनीवाल के नेतृत्व में किसानों का एक जत्था रेलगाड़ी से अनूपगढ़ पहुंचा। आउटर पर रेल रोक दी गई और किसान नीलामी स्थल की ओर बढ़ चले। उधर, रायसिंहनगर से कॉमरेड योगेंद्र हांडा के नेतृत्व में दूसरा दल वैकल्पिक रास्ते से अनूपगढ़ पहुंच गया।

नीलामी का विरोध कर रहे किसानों और पुलिस के बीच टकराव हुआ। पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया, जिसमें कॉमरेड योगेंद्र हांडा गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके बाद योगेंद्र हांडा, शोपत सिंह, हेतराम बेनीवाल सहित सैकड़ों किसानों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। लाठीचार्ज के अगले ही दिन आंदोलन को नई दिशा देने के लिए चौधरी कुम्भाराम और प्रो. केदार अनूपगढ़ पहुंचे। उन्होंने आंदोलन की कमान संभालते हुए ऐलान किया कि जब तक नीलामी रद्द नहीं होती, तब तक हर गांव से रोजाना एक किसान या भूमिहीन स्वेच्छा से गिरफ्तारी देगा।

संगरिया के पूर्व विधायक हेतराम बेनीवाल ने राजस्थान के जाने-माने माकपा नेता, कई बार विधायक और सांसद रहे कॉमरेड शोपत सिंह के जीवन पर लिखी अपनी  पुस्तक ‘संघर्षों के जननायक शोपत सिंह’ में संगरिया गोलीकांड का विस्तार से वर्णन किया है। वे लिखते हैं कि उस दौर में वे स्वयं, कॉमरेड शोपत सिंह और कॉमरेड हरिराम एक सांसद के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले थे। उनसे मांग की गई कि भूमि नीलामी बंद कर भूमिहीनों को जमीन का आवंटन किया जाए। प्रधानमंत्री ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया को नीलामी रोकने के निर्देश दिए। इसके अगले ही दिन राजस्थान सरकार ने नीलामी कार्यक्रम रद्द कर दिया, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि अब उस भूमि का क्या किया जाएगा। इसी अस्पष्टता के चलते आंदोलन जारी रहा।

संघर्ष समिति की कुल 31 मांगें थीं। सत्याग्रह के तहत गिरफ्तारी देने का सिलसिला तेज हो गया। हालात ऐसे बने कि पूरे राजस्थान की जेलें एक सप्ताह के भीतर भर गईं। दो बार जेलें खाली कराने के बावजूद जब जनता ने गिरफ्तारी देना बंद नहीं किया, तो प्रशासन ने पुलिस को सख्ती के आदेश दे दिए।

आज भी 7 जनवरी को संगरिया में किसान शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। शहीद किसानों की स्मृति में श्रद्धासुमन अर्पित किए जाते हैं। इस तारीख के साथ किसानों का गहरा भावनात्मक रिश्ता है। 1970 के बाद यह पहला मौका है जब किसी बड़े किसान आंदोलन के तहत एक बार फिर 7 जनवरी को संगरिया में किसानों का विशाल हुजूम उमड़ने जा रहा है। यही वजह है कि राठीखेड़ा की एथेनॉल फैक्ट्री के खिलाफ चल रहा आंदोलन केवल वर्तमान का संघर्ष नहीं, बल्कि अतीत से जुड़ी उस विरासत की पुनरावृत्ति बनता जा रहा है, जिसमें किसान अपने हक के लिए संघर्ष करते रहे हैं।



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