73वें संविधान संशोधन के 30 वर्षों के कार्यान्वयन के बाद क्या है पंचायतों की स्थिति

73वें संवैधानिक संशोधन को लागू हुए 30 साल हो चुके हैं, लेकिन पंचायतें अब भी कमजोर बनी हुई हैं, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर केवल 43.89% अधिकार हस्तांतरण (devolution) हुआ है। अधिकांश राज्य पर्याप्त कार्य, धनराशि और कर्मियों का हस्तांतरण करने में नाकाम रहे, जिससे पंचायतों की स्वायत्तता प्रभावित हुई है। कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में प्रगति की अच्छी उम्मीद दिखती है, लेकिन कई राज्य और केंद्र शासित प्रदेश काफी पीछे हैं। संरचनात्मक कमजोरियां, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और नौकरशाही के प्रतिरोध ने उनके सशक्तीकरण में बाधा डाली है।

73वें संविधान संशोधन के 30 वर्षों के कार्यान्वयन के बाद क्या है पंचायतों की स्थिति

पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिए हुए, अर्थात 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 के बाद 30 वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है। इस संशोधन के तहत पंचायती संस्थाओं (panchayat) को स्वशासी निकायों के रूप में स्थापित किया गया था। इसका अर्थ है कि उन्हें स्वायत्त संस्थाओं की तरह कार्य करना चाहिए, जिनके कार्य स्पष्ट रूप से परिभाषित हों, उन्हें कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन और योग्य मानव संसाधन उपलब्ध हों, ताकि वे निर्धारित समय-सीमा में अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकें।

इन संस्थाओं को देशभर में सक्रिय और जीवंत संस्थाओं के रूप में कार्य करना चाहिए था। लेकिन जब इनका आकलन और मूल्यांकन वास्तविक अधिकारों (devolution) के रूप में किया गया, तो सामने आया कि ये संस्थाएं इतनी कमजोर और कुपोषित हैं कि ये गांवों में अपने अपेक्षित कार्यों को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं। इसका मुख्य कारण अधिकारों और स्वायत्तता का अभाव।

हालांकि इस निराशाजनक तस्वीर में कुछ उम्मीद की किरणें भी दिखाई देती हैं। जैसे कर्नाटक (72.23%), केरल (70.59%) और तमिलनाडु (68.38%) जैसे राज्यों में पंचायती संस्थाओं को सौंपे गए अधिकार अपेक्षित 100% के बहुत करीब हैं। यह लेख विभिन्न राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में अधिकारों के हस्तांतरण की तस्वीर प्रस्तुत करता है और यह भी बताता है कि यह स्थिति क्यों है।

इस संदर्भ में यह अध्ययन करना प्रासंगिक हो जाता है कि इन संस्थाओं को कार्यों, वित्त, कार्मिक और अन्य संबंधित विषयों के रूप में किस हद तक सशक्त बनाया गया है। इस दिशा में वर्ष 2024 में भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय ने भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली द्वारा किए गए "राज्यों में पंचायतों को अधिकारों के हस्तांतरण की स्थिति" विषय पर अध्ययन की सहायता से पंचायतों की स्थिति का मूल्यांकन किया गया।

पंचायतों को अधिकार हस्तांतरण को छह आयामों को शामिल करते हुए एक डिवोल्यूशन इंडेक्स के माध्यम से मापा गया, जिनमें शामिल हैं:
(i) रूपरेखा (Framework - D1)
(ii) कार्य (Functions - D2)
(iii) वित्त (Finances - D3)
(iv) कार्मिक (Functionaries - D4)
(v) क्षमता निर्माण (Capacity Building - D5)
(vi) उत्तरदायित्व (Accountability - D6)

प्रत्येक आयाम को भिन्न-भिन्न भार (वेटेज) दिया गया है। रूपरेखा को 10 प्रतिशत और वित्त को 30 प्रतिशत, जबकि अन्य प्रत्येक को 15 प्रतिशत भार दिया गया है। आइए देखें कि पंचायतें स्थानीय शासन की स्वायत्त संस्थाएं बनने की दिशा में कितनी आगे बढ़ी हैं।

आगे बढ़ने से पहले पाठकों को यह अवगत कराना जरूरी है कि विभिन्न आयामों में उप-सूचकांक (sub-indices) क्या हैं। अधिकारों के हस्तांतरण से संबंधित आंकड़ों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है - सामान्य वर्ग के राज्य, उत्तर-पूर्वी/पर्वतीय राज्य और केंद्र शासित प्रदेश।

‘फ्रेमवर्क’ आयाम (D1) का संबंध 73वें संविधान संशोधन अधिनियम में दिए गए संवैधानिक प्रावधानों से है, जिनका कार्यान्वयन अनिवार्य प्रकृति का है। राज्यों को इन प्रावधानों को अनिवार्य रूप से लागू करना होता है। ये प्रावधान निम्नलिखित हैं:
(i) नियमित रूप से पंचायत चुनाव कराना,
(ii) पंचायतों में महिलाओं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों और पदों का आरक्षण,
(iii) राज्य वित्त आयोग का गठन,
(iv) नियमित अंतराल पर राज्य चुनाव आयोग का गठन,
(v) जिला योजना समिति की स्थापना।

अध्ययन से पता चलता है कि इस विधायी ढांचे का राष्ट्रीय स्तर पर औसत स्कोर 54.29 प्रतिशत है, जबकि इसे 100 प्रतिशत होना चाहिए क्योंकि संविधान में इस आयाम को लागू न करने का कोई विकल्प नहीं दिया गया है। राज्यों में केरल इस आयाम में 83.56 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है, जबकि पुदुचेरी मात्र 9.31 प्रतिशत के साथ सबसे नीचे है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनिवार्य प्रावधानों को पूरी तरह लागू नहीं कर पाया है।

‘कार्य’ आयाम (D2) में पंचायतों को हस्तांतरित गतिविधियां, गतिविधियों की मैपिंग, व्यय आवंटन, पंचायतों की विभिन्न कार्यों में भागीदारी और प्रमुख योजनाओं के कार्यान्वयन में पंचायतों की भूमिका शामिल है। यह चिंताजनक है कि पंचायतों को कार्यों के हस्तांतरण का राष्ट्रीय औसत स्कोर मात्र 29.9 प्रतिशत है। राज्यों की स्थिति देखें तो तमिलनाडु इस मामले में 60.24 प्रतिशत के साथ सबसे ऊपर है, जबकि गोवा मात्र 6.63 प्रतिशत के साथ सबसे नीचे है।

‘वित्तीय’ आयाम (D3) के तहत 15वें वित्त आयोग द्वारा पंचायतों को दिया गया अनुदान, राज्य वित्त आयोग द्वारा पंचायतों को दिया गया अनुदान, पंचायतों को राजस्व वसूलने और लगाने का अधिकार, पंचायतों की अपनी निधियां तथा पंचायतों द्वारा वित्त, लेखा और बजट के लिए किए गए प्रयास शामिल हैं। इस आयाम पर राष्ट्रीय स्तर पर कुल मिलाकर मात्र 37.04 प्रतिशत ही विकेंद्रीकरण हुआ है। राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में कर्नाटक सबसे ऊपर (70.65) है, जबकि लक्षद्वीप सबसे नीचे (3.99) पर है।

‘कार्मिक’ आयाम (D4) में पंचायतों की भौतिक संरचना, पंचायतों की ई-कनेक्टिविटी और पंचायतों के स्वीकृत एवं कार्यरत अधिकारी शामिल हैं। इस आयाम पर राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति केवल 50.96 प्रतिशत है। राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में तमिलनाडु सबसे आगे (84.29) है, जबकि पंजाब सबसे पीछे (8.20) है।

‘क्षमता निर्माण’ (D5) आयाम में पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों और अधिकारियों को दी जाने वाली प्रशिक्षण गतिविधियां और प्रशिक्षण संस्थानों की व्यवस्था शामिल है। इस संबंध में अध्ययन से पता चलता है कि राष्ट्रीय औसत केवल 54.63 प्रतिशत है। राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में यह आंकड़ा तेलंगाना राज्य में सबसे अधिक 86.19 प्रतिशत और दादरा एवं नगर हवेली और दमन और दीव में सबसे कम 8.57 प्रतिशत है।

‘जवाबदेही’ (D6) आयाम में पंचायतों का लेखा-जोखा और लेखा परीक्षण, सामाजिक ऑडिट, ग्राम सभा की कार्यप्रणाली, पारदर्शिता और एंटीकरप्शन, तथा पंचायतों का मूल्यांकन एवं प्रोत्साहन शामिल हैं। इस आयाम के अध्ययन से पता चलता है कि राष्ट्रीय औसत मात्र 47.51 प्रतिशत है, जो 50 अंक तक भी नहीं पहुंच पाया। राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को देखें तो कर्नाटक में यह आंकड़ा सबसे अधिक 81.33 प्रतिशत, इसके बाद केरल में 81.18 प्रतिशत है, जबकि लद्दाख में यह सबसे कम 27.43 प्रतिशत दर्ज किया गया है।

सभी आयामों (पंचायतों को कुल सशक्तीकरण या समग्र सशक्तीकरण सूचकांक) के योग से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर मात्र 43.89 प्रतिशत सशक्तीकरण ही देश में हासिल हुआ है। यह आंकड़ा पंचायतों को अधिकार सौंपने की खराब स्थिति को दर्शाता है। संविधान में शामिल किए जाने के 30 वर्षों बाद भी पंचायतें सरकारों की दया पर ही निर्भर हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पंचायतें अपने स्तर पर स्थानीय सरकारों के रूप में उभर नहीं पाई हैं। हालांकि, कर्नाटक ने सबसे अच्छा प्रदर्शन करते हुए 72.23 प्रतिशत सशक्तीकरण प्राप्त किया है, जबकि केरल और तमिलनाडु ने भी उसके निकट परिणाम दर्ज किए हैं। इसके विपरीत, सबसे कम सशक्तीकरण (13.62 प्रतिशत) दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव में दर्ज किया गया है।

अध्ययन से पता चलता है कि सामान्य श्रेणी के 18 राज्यों में से केवल 13 (72.22%) राज्यों ने पंचायतों को 50 प्रतिशत या उससे अधिक अधिकार हस्तांतरित किए हैं। उत्तरी/पर्वतीय राज्यों की बात करें तो 10 राज्यों में से केवल दो राज्य हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा ने 50 प्रतिशत से अधिक अधिकार हासिल किए हैं। केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे अधिक अधिकार हस्तांतरण केवल 27.85 प्रतिशत है। दूसरे शब्दों में, सभी केंद्र शासित प्रदेशों में पंचायतों को अधिकार देने का स्तर राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है।
 
संविधान के अनुच्छेद 243जी में कहा गया है, "संविधान के प्रावधानों के अधीन, किसी राज्य की विधायिका कानून द्वारा पंचायतों को ऐसे अधिकार और शक्तियां दे सकती है जो उन्हें स्वशासन संस्थान के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक हों, और ऐसा कानून पंचायतों को उचित स्तर पर शक्तियां और जिम्मेदारियां सौंपने के प्रावधान कर सकता है, जिन पर निर्धारित शर्तें लागू हों, जो निम्नलिखित विषयों से संबंधित हों -
(क) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाओं का निर्माण;
(ख) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाओं का क्रियान्वयन, जिनका दायित्व उन्हें सौंपा गया हो, जिसमें ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध मामलों से संबंधित योजनाएं भी शामिल हों।"

संविधान के अनुच्छेद 243जी की रौशनी में इस अध्ययन के परिणामों की समीक्षा करें तो पता चलता है कि पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाने की दिशा में बहुत कम उपलब्धि हासिल हुई है। इस स्थिति के लिए केंद्र और राज्य दोनों जिम्मेदार हैं। तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जी. वेंकटस्वामी ने 1 दिसंबर 1992 को संसद में संविधान (73वां संशोधन) विधेयक प्रस्तुत करते समय स्वीकार किया था- "यह केंद्र और राज्यों दोनों पर दायित्व डालता है कि वे ग्राम पंचायतों की स्थापना और पोषण करें ताकि उन्हें प्रभावी, स्वशासी संस्था बनाया जा सके।"

यहां उल्लेखनीय है कि अशोक मेहता समिति ने तीन दशक पहले पंचायती राज संस्थाओं के बारे में क्या कहा था। ब्यूरोक्रेसी और राजनेताओं ने पंचायतों के अ-सशक्तीकरण में सक्रिय भूमिका निभाई है। ब्यूरोक्रेसी को लगा कि उन्हें पंचायतों के प्रति जवाबदेह होने की बजाय राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। वे चुने हुए प्रतिनिधियों की निगरानी में काम करने के लिए खुद को ढालना नहीं चाहते थे। राजनीतिक नेता भी पंचायतों के प्रति असहज थे क्योंकि वे पंचायतों के सशक्त होने को अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लिए खतरा मानते थे।

इस समस्या का समाधान ग्रामीणों में उनके अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति जागरूकता लाने में निहित है, ताकि वे ग्रामीण स्थानीय सरकारों को सशक्त बना सकें। लेखक ने फील्ड स्तर पर देखा कि ग्रामीण अपनी ऊर्जा उन मुद्दों पर लगाते हैं जो उनके लिए अप्रासंगिक होते हैं। स्थानीय शासन के पुनरुद्धार के लिए एक सामाजिक आंदोलन शुरू करना आवश्यक है।
(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस, भारत सरकार के पूर्व अधिकारी हैं)

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