इस बार एनडीए में स्थिरता बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण होगा

केंद्रीय कक्ष में मोदी, नायडू और नीतीश के बीच दिखी केमिस्ट्री से यह माना जाना चाहिए कि उनके बीच अच्छा समन्वय होगा और हॉटलाइन जैसा संपर्क रहेगा। वे ऐसे किसी भी बड़े मुद्दे को सुलझाने में सक्षम होंगे जो गठबंधन के लिए खतरा पैदा कर सकता है। समान नागरिक संहिता या किसी अन्य कट्टर हिंदुत्व एजेंडे जैसे पेचीदा मुद्दों को पीछे रखा जा सकता है या कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सीएमपी) से बाहर रखा जा सकता है।

इस बार एनडीए में स्थिरता बरकरार रखना चुनौतीपूर्ण होगा

क्या नई बनने वाली एनडीए सरकार सुचारू तरीके से चल पाएगी? या इसे इस तरह से कहें- क्या गठबंधन के पास पांच साल तक स्थिर बने रहने के लिए एक मजबूत जमीन होगी?

पांच साल और उससे भी आगे तक साथ रहने की मंशा का पुराने संसद भवन के भव्य सेंट्रल हॉल से सीधा प्रसारण किया गया। अपने लंबे भाषण में नरेंद्र मोदी ने सुशासन को एनडीए का केंद्रीय चरित्र बताया, जिसका इतिहास अटल बिहारी वाजपेयी के युग से जुड़ा हुआ है। बेशक, यह एक बेतरतीब गठबंधन नहीं है। इसे नीतीश कुमार और एन चंद्रबाबू नायडू जैसे अनुभवी राजनेताओं ने मिल कर बनाया है। तो फिर संदेह क्यों पैदा होना चाहिए?

वैसे तो इस तरह के संदेह पैदा ही नहीं होने चाहिए। आखिरकार नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू, दोनों अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में भागीदार रहे हैं। लेकिन मोदी वाजपेयी नहीं हैं और उनसे वाजपेयी जैसा होने की उम्मीद करना बहुत ज्यादा होगा। केंद्रीय कक्ष में मोदी, नायडू और नीतीश के बीच दिखी केमिस्ट्री से यह माना जाना चाहिए कि उनके बीच अच्छा समन्वय होगा और हॉटलाइन जैसा संपर्क रहेगा। वे ऐसे किसी भी बड़े मुद्दे को सुलझाने में सक्षम होंगे जो गठबंधन के लिए खतरा पैदा कर सकता है। समान नागरिक संहिता या किसी अन्य कट्टर हिंदुत्व एजेंडे जैसे पेचीदा मुद्दों को पीछे रखा जा सकता है या कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सीएमपी) से बाहर रखा जा सकता है। हां, दोनों क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरफ से निश्चित रूप से बड़ी सौदेबाजी होगी।

सौदेबाजी दो तरह की होनी चाहिए। एक, अतीत में उतार-चढ़ाव भरे रिश्ते और भाजपा की क्षेत्रीय पार्टियों को दोस्ताना या गैर-दोस्ताना तरीके से निगलने की छवि को देखते हुए, नीतीश और नायडू दोनों ही अपने सांसदों के लिए एक तरह की सुरक्षा चाहेंगे। लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए होड़ को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दूसरा, आंध्र प्रदेश और बिहार के लिए केंद्रीय निधि से अधिकतम राशि निकालने की सौदेबाजी होगी। मोदी इसके लिए तैयार होंगे और जरूरत पड़ी तो किसी संवैधानिक बाधा को दूर करने के लिए एक कदम और आगे भी बढ़ सकते हैं। इसलिए, सौदेबाजी की बातों पर हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस तरह की त्रिशंकु संसद में गठबंधन अपरिहार्य है, भले ही इससे कुछ परस्पर विरोधी हितों को लाभ और दूसरे को नुकसान हो।

साझेदारी का सबसे मुश्किल और पेचीदा हिस्सा वह होगा जिस पर तीनों नेताओं का कोई नियंत्रण नहीं होगा। क्या वे किसी अप्रत्याशित और अप्रिय स्थिति को संभालने के लिए पर्याप्त मजबूत नहीं हैं? इसका जवाब कोई नहीं जानता और यह गठबंधन की स्थिरता के लिए चिंता का विषय होगा। इस समस्या का जन्म मोदी युग के ‘दबंग’ भाजपा अवतार में निहित है, जिसकी विचारधारा के मूल में एक ओर हिंदुत्व है और दूसरी ओर तेलुगु देशम पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति है। दोनों के पास मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा आधार है। चाहे वह नागरिक (संशोधन) अधिनियम हो या जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना, अपने दम पर पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार का पिछला संस्करण हर हाल में अपनी राह पर चलने का आदी है। जेडी(यू) के नेता पहले ही मुसलमानों के प्रति अपने रुख के बारे में बोल चुके हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि गठबंधन में किसी भी मुस्लिम विरोधी बयान की अनुमति नहीं दी जाएगी।

किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, सशस्त्र बलों के लिए विवादास्पद अग्निवीर भर्ती योजना जैसे कुछ और मुद्दे भी हैं। इनसे कांग्रेस और मोदी के अन्य विरोधियों को राजनीतिक लाभ मिला है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और यहां तक ​​कि बिहार में चुनाव परिणामों में ग्रामीण संकट स्पष्ट रूप से नजर आया और आने वाली एनडीए सरकार में इस पर विचार किया जाना चाहिए। मोदी पर नीतीश का दबाव बढ़ता दिख रहा है और किसानों की मांगें जल्दी पूरी हो सकती हैं।

कुल मिलाकर कहा जाए तो नए गठबंधन में या तो साझेदारों का कुछ हद तक धर्मनिरपेक्ष चेहरा देखने को मिलेगा, या फिर अस्थिरता का सामना करना पड़ेगा। ऐसा हुआ तो उसका खामियाजा भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ेगा।

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