पंजाब को धान से बचाने के लिए फसल विविधिकरण पर इंसेंटिव और बिजली सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने की जरूरत

पंजाब के लिए सबसे प्रमुख समस्या धान की खेती है। इससे जल स्तर गिरता जा रहा है और जैव विविधता को नुकसान हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव, बढ़ता तापमान और घटते ग्लेशियर अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं।

पंजाब को धान से बचाने के लिए फसल विविधिकरण पर इंसेंटिव और बिजली सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने की जरूरत

पंजाब को अब संभावनाओं की धरती की तरह नहीं देखा जाता। यहां के युवाओं में मायूसी साफ झलकती है। बीते कुछ वर्षों के दौरान, खासकर अच्छे आशय लेकिन गलत तरीके से लाए गए कृषि कानून के खिलाफ आंदोलन के बाद, ग्रामीण पंजाब थोड़ा बदला हुआ महसूस होता है, जबकि दूसरों को लगता है कि इस प्रदेश को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी जा रही है। कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन करने वालों को एक तरह से बहिष्कृत करने के मकसद से सोशल मीडिया के माध्यम से जो हमले हुए, उससे यह वैचारिक भेद और बढ़ा है। इससे एक दूसरे से जुड़े मुद्दे - पंजाब की इकोलॉजिकल सस्टेनेबिलिटी और भारत की खाद्य सुरक्षा - का स्थायी समाधान दूर की कौड़ी लगने लगी है।

पंजाब के लिए सबसे प्रमुख समस्या धान की खेती है। इससे जल स्तर गिरता जा रहा है और जैव विविधता को नुकसान हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव, बढ़ता तापमान और घटते ग्लेशियर अस्तित्व के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। धान के खेत में लगने वाले मानव कार्य दिवस अन्य फसलों की तुलना में आधे से कम होते हैं। यह बात दीवार पर लिखी इबारत की तरह स्पष्ट है कि संपन्नता के लिए पंजाब को आर्थिक विविधीकरण की जरूरत है। विशेषज्ञ लगातार कहते आ रहे हैं कि अन्य फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देना किसानों के लिए इन्सेंटिव की तरह होगा ताकि वे धान की खेती छोड़कर अन्य फसल अपनाएं। लेकिन सामान्य तर्क यह है कि धान पर रिटर्न अन्य फसलों से ज्यादा है, और धान की फसल को मौसम से होने वाला नुकसान भी कम होता है।

पंजाब भारत के खाद्य भंडार में लगभग 30% का योगदान करता है, जबकि देश की सिर्फ 1.52 प्रतिशत जमीन यहां है। लेकिन इस प्रक्रिया में भूजल का स्तर काफी नीचे चला गया है। एक दशक के भीतर 153 ब्लॉक में से 80 ब्लॉक ऐसे हैं जो कृषि उत्पादन के लिए भूजल निकालने के लिहाज से अव्यवहार्य होते जा रहे हैं। दूसरी बात यह है कि पंजाब एक दशक तक सीमा पार से फैलाए गए आतंकवाद के कारण अब भी सहमा हुआ है। राज्य अभी तक आर्थिक और भावनात्मक रूप से उससे उबर नहीं पाया है।

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो आजादी के पहले से सशस्त्र बलों में इस प्रदेश का बड़ा योगदान रहा है। पंजाब को लगता है कि इसके बलिदानों और कठिन परिश्रम का पर्याप्त पुरस्कार उसे नहीं मिल रहा है। दिल्ली में सर्दियों की शुरुआत में प्रदूषण बढ़ने के कारण पंजाब के किसानों और शहरी मध्य वर्ग के बीच दोषारोपण भी बढ़ने लगा है। दुर्भाग्यवश यह शहरी मध्य वर्ग नया नैतिक बहुमत बन गया है। पंजाब के किसानों को लगता है कि फसलों के अवशेष नहीं जलाने के लिए उन्हें कंपेन्सेशन दिया जाना चाहिए, जबकि दूसरे लोग ‘प्रदूषण फैलाने वाला ही भुगतान करे’ के सिद्धांत की बात करते हैं।

पंजाब के किसानों को हर साल लगभग 9000 करोड़ रुपए की मुफ्त बिजली मिलती है, जिसका भुगतान राज्य सरकार की तरफ से किया जाता है। केंद्र सरकार की एजेंसियां हर साल प्रदेश के किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर 60000 करोड़ रुपए से अधिक का गेहूं और धान खरीदती हैं। यह औसत उत्पादन लागत से लगभग 50 से प्रतिशत अधिक बैठता है। यह एमएस स्वामीनाथन के सी2 प्लस 50% फॉर्मूला नाम से लोकप्रिय है।

इसके अतिरिक्त किसान जो भी गेहूं और धान बेचने के लिए मंडियों में लाते हैं, सरकार उन्हें पूरा खरीदती है और तत्काल उसका भुगतान भी किया जाता है। सी2 प्लस 50 फॉर्मूला वाली कीमत तथा असीमित खरीद की सुविधा अन्य फसलों के लिए अथवा अन्य राज्यों (हरियाणा को छोड़कर) के किसानों को नहीं मिलती है। इसी का नतीजा है कि पंजाब के किसान परिवार की औसत मासिक आय पूरे भारत के औसत का ढाई गुना है।

पंजाब को लेकर केंद्र की दो चिंताएं थीं। एक तो पंजाब के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की बेचैनी सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद के फलने-फूलने की अच्छी जमीन बन गई थी। दूसरा, भारत को खाद्य सुरक्षा के लिए पंजाब के अनाज की जरूरत थी। लेकिन आज स्थिति यह है कि राज्य आर्थिक रूप से दिवालिया होने के करीब है। राजनीतिक इच्छा शक्ति, दूरदर्शिता और क्षमता का अभाव है। राजनीतिक नेतृत्व कठिन फैसले लेने से बचता है। दुख की बात यह है कि ऐसे बदलाव, जिनमें राज्य को आंशिक खर्च ही करना है, उन पर भी चर्चा नहीं होती है। पंजाब में धान की खेती ऐसा नशा है जिसे केंद्र सरकार दशकों से देती आ रही है और राज्य अब इसका आदी हो चुका है। यहां के किसानों को इससे दूर करना अब मुश्किल हो गया है। ऐसी विषम परिस्थितियों में बदलाव के लिए केंद्र सरकार को विविधीकरण का खर्च वहन करना पड़ेगा। मेरा प्रस्ताव है कि राज्य 8 साल के एक पैकेज की मांग करे, जो सतत बदलाव के लिए हो तथा राजनीतिक रूप से भी व्यवहार्य हो।

इस पैकेज में ये बातें होनी चाहिएः

क) बिना मीटर के बिजली की सप्लाई बंद की जाए, ख) मुफ्त बिजली उन्हीं परिवारों को मिले जिनके पास 7.5 एकड़ या उससे कम जमीन है, ग) मुफ्त बिजली प्रति परिवार एक ट्यूबवेल कनेक्शन तक सीमित हो, घ) सस्ती बिजली सिर्फ उन्हें दी जाए जो ड्रिप सिंचाई या अन्य उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, ङ) बाजार समितियों (मंडी) के चुनाव कराए जाएं, च) राज्य के संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल हो, छ) विज्ञापनों पर पाबंदी लगे, जिन पर मेरे अनुमान के मुताबिक सरकार रोजाना दो करोड़ रुपए खर्च कर रही है, ज) इन कदमों से जो बचत होगी उसका इस्तेमाल i) फल एवं सब्जी मार्केट इंफ्रास्ट्रक्चर तथा मंडी बनाने में किया जाए ii) कृषि अनुसंधान एवं एक्सटेंशन सर्विसेज पर खर्च दोगुना किया जाए iii) शिक्षा, स्वास्थ्य और इस तरह के अन्य क्षेत्रों में निवेश के जरिए मानव क्षमता सुधारी जाए।

कुछ काम केंद्र सरकार के लिए भी हैंः 

क) न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान की खरीद प्रति परिवार पांच एकड़ जमीन तक सीमित की जाए, ख) धान के वैकल्पिक फसलों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर हो, इसके लिए पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी और आईसीएआर ब्लॉक स्तर पर उत्पादन की योजना बनाएं, ग) धान की जगह दूसरी फसल लगाने के लिए 100% प्रीमियम भुगतान किया जाए, घ) धान की जगह अन्य फसलों की खेती के इच्छुक ऐसे परिवार जो पीएम किसान के पात्र हैं, उन्हें पांच एकड़ तक प्रति एकड़ 12000 रुपए दिए जाएं ङ) कृषि क्षेत्र में रोजगार के लिए निजी क्षेत्र को इन्सेंटिव दिया जाए ताकि वे इसमें निवेश करें, च) नदियों में पानी की उपलब्धता का नए सिरे से आकलन हो और उसके बाद विभिन्न राज्यों के बीच जल बंटवारे के मुद्दे पर निर्णय लिया जाए।

मैं जानता हूं कि ये सिफारिशें सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काफी नहीं हैं, ना ही यह सबकी उम्मीद पर खरी उतरेंगी। लेकिन दीर्घकाल में ये ज्यादातर लोगों के हित में होंगी और इसके सकारात्मक नतीजे भी आएंगे। विचारों का अपना एक जीवन काल होता है। यह पैकेज टुकड़ों में लागू करने से बात नहीं बनेगी।

(अजय वीर जाखड़, भारत कृषक समाज के चेयरमैन हैं)

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