धरती का भविष्य हमारी थाली पर निर्भर

आज की दोषपूर्ण खाद्य प्रणाली दुनिया के सबसे बड़े संकटों की वजह बन रही है। एक नई रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि पर्यावरण अनुकूल आहार और कृषि पद्धतियों की ओर बढ़ना अब अनिवार्य हो गया है। मौजूदा तौर-तरीके न केवल धरती को नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डाल रहे हैं।

धरती का भविष्य हमारी थाली पर निर्भर

इस मानव युग में जीवाश्म ईंधन ही हमारे सबसे बड़े वैश्विक संकटों का कारण नहीं है, बल्कि भोजन भी इन संकटों - चाहे वह ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का संकट हो, भूमि उपयोग में बदलाव हो, जैव विविधता को नुकसान हो या फिर मीठे पानी की कमी हो - को बढ़ा रहा है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोषक तत्वों के अत्यधिक मात्रा के बहाव का सबसे बड़ा स्रोत और दुनिया भर में यूट्रोफिकेशन (जलाशयों में पोषक तत्वों की अत्यधिक वृद्धि) को बढ़ावा देने वाला भी हमारा भोजन ही है।  

अक्टूबर 2025 की 'EAT-लैंसेट कमीशन ऑन हेल्दी, सस्टेनेबल, एंड जस्ट फूड सिस्टम्स' रिपोर्ट नए प्रमाण प्रस्तुत करती है कि बढ़ती वैश्विक आबादी का पोषण इस तरह किया जाए जो सभी के लिए उचित हो, और साथ ही धरती की सीमाओं के भीतर भी रहे। आहार संबंधी निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बाजार के संकेतों (खपत पैटर्न) और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत खरीद जैसी सरकारी नीतियों के आधार पर किसान तय करते हैं कि उन्हें क्या उगाना है।

दुर्भाग्य से, आज की दोषपूर्ण खाद्य प्रणाली धरती को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य को भी प्रभावित कर रही है। एक चौथाई से अधिक वैश्विक आबादी या तो कुपोषित है या फिर मोटापे से ग्रसित है। मौजूदा प्रणाली हर साल लगभग 1.1 करोड़ अकाल मौतों में योगदान करती है और हृदय, सांस संबंधी और अन्य पुरानी बीमारियों को बढ़ावा देती है।

पिछले एक दशक में, दुनिया ने जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से हटाने और अक्षय ऊर्जा में निवेश करने पर ध्यान केंद्रित किया है। फिर भी, जलवायु परिवर्तन में भोजन की भूमिका को नजरअंदाज किया गया है। भले ही हम जीवाश्म ईंधन पर नेट न्यूट्रैलिटी हासिल कर लें, तब भी जलवायु परिवर्तन की चुनौती बनी रहेगी। क्योंकि भोजन एक लुप्त कड़ी है और भारत की कृषि उत्पादन और उपभोग की नीतियां अक्सर इस लक्ष्य के विपरीत काम करती हैं।

पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च द्वारा परिकल्पित ईट-लैंसेट रिपोर्ट धरती की सहन-सीमाओं के भीतर एक स्वस्थ संदर्भ आहार को परिभाषित करती है। प्लैनेटरी हेल्थ डाइट (पीएचडी) की सिफारिश कुछ इस प्रकार है:

  • प्रति सप्ताह चार बार पशु प्रोटीन का सेवन - एक बार चिकन, दो बार मछली, रोजाना एक बार डेयरी उत्पाद, और प्रति सप्ताह डेढ़ अंडे।
  • रेड मीट की खपत में उल्लेखनीय कमी लाकर उसे लगभग 14 ग्राम प्रतिदिन या प्रति सप्ताह एक सर्विंग तक सीमित कर दिया जाए। यह अमेरिका और यूरोप में खपत होने वाले मांस से कई गुना कम है। भारत जैसे देशों में जहां आहार धरती की सहन-सीमाओं के भीतर आते हैं, वहां लोग इसका सेवन इसलिए कम करते हैं क्योंकि वे अधिक प्रोटीन, मांस या मुर्गे का खर्च नहीं उठा सकते।

प्लैनेटरी हेल्थ डाइट (पीएचडी) को हासिल करने के लिए आयोग के सुझाव हैं:

  • मांस और डेयरी उत्पादों की जगह धरती के अनुकूल सब्जियों, फलों-फलियों और अनाजों के लिए सब्सिडी दी जाए, जिससे ये स्वास्थ्यवर्धक और अधिक टिकाऊ विकल्प तथा किफायती बन सकें।
  • प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में कृषि क्षेत्र के विस्तार और जैव विविधता के नुकसान को रोकें।
  • भूमि और जल उत्पादकता में सुधार करें।
  • कृषि प्राथमिकताओं को पुनर्भाषित करें।
  • एकल-फसल चक्र को बढ़ावा देने वाले पांच दशकों के अनुसंधान और निवेश के बाद, अब समय आ गया है कि मिश्रित, एकीकृत कृषि प्रणालियों में समान प्रयास किए जाएं जो स्वास्थ्यवर्धक आहार और पारिस्थितिक संतुलन में सहायक हों।

विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के लिए चुनौती न केवल सस्टेनेबल इंटेसिफिकेशन के माध्यम से पारिस्थितिक और पारंपरिक कृषि का विलय करना है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि उस ज्ञान को विकासशील देशों के साथ मुफ्त में साझा किया जाए। उन क्षेत्रों में अधिक स्थिरता की आवश्यकता है जहां उपज का स्तर तो अधिकतम है, लेकिन वे मुश्किलें बढ़ाने वाले तरीकों से जूझ रहे हैं। कम पैदावार वाले क्षेत्रों को सस्टेनेबल इंटेसिफिकेशन प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

भारत का फोकस शोध के माध्यम से उत्पादकता बढ़ाने के बजाय खरीद प्रोत्साहनों के जरिए उत्पादन वृद्धि पर रहा है। पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने का एकमात्र तरीका वैश्विक खाद्य प्रणाली में बदलाव लाना है। इसमें आहार में बदलाव, कार्बन उत्सर्जन और खाद्य अपशिष्ट को आधा करना और सतत कृषि को अपनाना शामिल हैं। इसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस क्षरण को कम करना, उर्वरकों और खाद से नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन को कम करना और पशुधन से मीथेन का उत्सर्जन घटाना भी शामिल हैं। हालांकि भारत इन सभी मोर्चों पर पीछे है, और रसायनों पर इसकी बढ़ती निर्भरता संकट को और गहरा कर रही है।

पीएचडी के मूल में न्याय का सिद्धांत निहित है। यह मानता है कि किसान केवल खाद्य उत्पादक नहीं हैं, बल्कि सम्मानजनक आजीविका के हकदार भी हैं। फिर भी यह ज्वलंत प्रश्न बना हुआ है: जब खाद्य और लोकलुभावनवाद की प्रचलित राजनीति - जो खाद्य पदार्थों को सस्ता बनाए रखने के विचार पर आधारित है - कृषि उपज की कीमतों को बढ़ने से रोक रही हैं, तो किसान टिकाऊ तौर-तरीकों को कैसे अपना सकते हैं?

यदि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सब्सिडी वाले अमेरिकी अनाज खरीदने के लिए विभिन्न देशों पर दबाव बनाते  हैं, तो इससे भारत जैसे खाद्य आयातक देशों में कृषि उपज की कीमतें और कम हो जाएंगी। कम कीमतें किसानों को गरीबी की ओर धकेलेंगी, जिससे असंतुलित एकल-कृषि का चक्र चलता रहेगा। 

जलवायु परिवर्तन का समाधान राजनीतिक सीमाओं के भीतर नहीं हो सकता। दुनिया को इस बात पर पुनर्विचार करना होगा कि कृषि उपज का व्यापार कैसे किया जाए - विशेष रूप से विश्व व्यापार संगठन के ढांचे के भीतर। यह भी देखना होगा कि इसकी वास्तविक लागत उपभोक्ता की थाली में किस तरह दिखाई देती है।

(अजय वीर जाखड़, भारत कृषक समाज के चेयरमैन हैं)

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