अगली नीली क्रांति की सफलता के लिए चुनौतियों का समाधान जरूरी

समुद्र में मछली पकड़ने के विकल्प के तौर पर एक्वाकल्चर का महत्व बढ़ने के बावजूद इस क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं। यह चुनौतियां उत्पादन से लेकर हार्वेस्टिंग के बाद वैल्यू चेन तक हैं। एक्वाकल्चर की क्षमता बढ़ाने और अगले दशक में इंडस्ट्री की ग्रोथ के लिए इन चुनौतियों का समाधान करना जरूरी

अगली नीली क्रांति की सफलता के लिए चुनौतियों का समाधान जरूरी

समुद्री खाद्य पदार्थ अर्थात सीफूड प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं तथा प्रोटीन की वैश्विक डिमांड पूरी करने में अहम भूमिका निभाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार दुनिया की 20% आबादी प्रोटीन के प्राथमिक स्रोत के रूप में मछलियों पर निर्भर करती है। सीफूड विश्व खाद्य सुरक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, खासकर विकासशील देशों में जहां यह प्रोटीन तथा अन्य पोषक तत्वों के बड़े स्रोत के रूप में कार्य करते हैं। वर्ष 2020 में दुनिया में 414 अरब डॉलर की करीब 21.4 करोड़ टन मछलियों का उत्पादन हुआ। इससे मछली पकड़ने, मछली पालन, प्रोसेसिंग, मार्केटिंग जैसे क्षेत्र में करोड़ों लोगों को रोजगार भी मिला।

सीफूड सबसे अच्छा प्रोटीन जनरेटर भी है। एक किलोग्राम मछली के लिए 1.2 किलो फीड की जरूरत होती है जबकि पोल्ट्री के लिए 2 किलो और बीफ के लिए 5 किलो फीड की आवश्यकता होती है। इस तरह सीफूड ज्यादा सस्टेनेबल विकल्प भी है। बीते एक दशक में दुनिया में प्रति व्यक्ति मछलियों की खपत 3 गुना हो गई है। इससे विश्व खाद्य सुरक्षा में इसके महत्व का भी पता चलता है।

सीफूड हमें मुख्य रूप से 2 स्रोतों से मिलता है। एक है समुद्र से मछली पकड़ना और दूसरा एक्वाकल्चर। एक्वाकल्चर मछली, शेल फिश जैसे जलीय जीवों और पौधों की खेती है। यह तालाब, टैंक जैसी जगहों पर नियंत्रित वातावरण में किया जाता है। 

बीते कुछ दशकों में ज्यादा मछलियां पकड़ने और जलवायु परिवर्तन के असर से समुद्र से मछली पकड़ना कम होता जा रहा है। इस अंतर को एक्वाकल्चर के जरिए पूरा किया जा रहा है। आज हर दो में से एक मछली समुद्र के बजाय जमीन पर की जाने वाली खेती से आती है। इससे हमारे रोज के जीवन में एक्वाकल्चर के महत्व का पता चलता है। अनुमान है कि अगले एक दशक में दुनिया का 75% मछली उत्पादन एक्वाकल्चर से ही आएगा। सस्टेनेबिलिटी, समुद्री संसाधनों पर कम दबाव, नियंत्रित वातावरण तथा उत्पादन बढ़ाने में टेक्नोलॉजी के प्रयोग जैसी वजहों से ऐसा संभव हो सकेगा।

यह तथ्य आश्चर्यजनक है लेकिन सभी इससे वाकिफ नहीं हैं कि भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा एक्वाकल्चर उत्पादक, तीसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक और चौथा सबसे बड़ा सीफूड निर्यातक है। यह दुनिया के श्रिंप उत्पादन में 10% का योगदान करता है। सीफूड निर्यात से भारत को 7.7 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा की आय होती है। इसमें हर साल 10% से अधिक की ग्रोथ है और बाजार का कुल अवसर 25 अरब डॉलर का है। एक्वाकल्चर भारत में एक उभरता सेक्टर है। यह ग्रामीण तथा तटीय इलाकों में 50 लाख लोगों को आजीविका मुहैया कराता है। एक्वाकल्चर में हम कतला, रोहू, मिर्गल, तिलापिया रूपचंद जैसी प्रजाति की मछलियों और श्रिंप की खेती करते हैं। श्रिंप झींगे की तरह होते हैं लेकिन झींगा नहीं होते।

आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात, ओडिशा जैसे राज्यों में मछली उद्योग राजस्व का बड़ा स्रोत है। श्रिंप का बाजार पूरी तरह निर्यात आधारित है। इसका निर्यात मुख्य रूप से अमेरिका, जापान, चीन, वियतनाम जैसे देशों को किया जाता है।

समुद्र में मछली पकड़ने के विकल्प के तौर पर एक्वाकल्चर का महत्व बढ़ने के बावजूद इस क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं। यह चुनौतियां उत्पादन से लेकर हार्वेस्टिंग के बाद वैल्यू चेन तक हैं। एक्वाकल्चर की क्षमता बढ़ाने और अगले दशक में इंडस्ट्री की ग्रोथ के लिए इन चुनौतियों का समाधान करना जरूरी है। 

इस इंडस्ट्री की सबसे बड़ी चुनौती कम उत्पादकता और बड़े पैमाने पर बीमारी है। उदाहरण के लिए उड़ीसा में श्रिंप की औसत उत्पादकता सिर्फ 50% है। यह आंध्र प्रदेश तथा अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम है। यह अंतर पारंपरिक खेती के तौर तरीके अपनाने की वजह से है जिनके कारण उत्पादन कम होता है तथा बीमारियां भी अधिक फैलती हैं।

वैज्ञानिक पद्धति ना अपनाने से दो तरह की परेशानियां आती हैं। एक तो इससे उत्पादकता कम होती है और दूसरे टेक्नोलॉजी प्लेटफॉर्म ना होने से उत्पादन के पैरामीटर का डिजिटाइजेशन नहीं हो पाता है। यह भी उत्पादन क्षमता बढ़ाने में बाधा है।

एक्वाकल्चर का आधार 4 आवश्यक पैमाने पर आधारित है। पहला है पानी की श्रेष्ठ गुणवत्ता का प्रबंधन। एक्वाकल्चर जल आधारित उद्योग है इसलिए इसकी सफलता में पानी की गुणवत्ता को बरकरार रखना अहम होता है। दूसरा, उचित फीड मैनेजमेंट भी जरूरी है। अधिक फीड देने से उत्पादन की लागत काफी बढ़ जाती है साथ ही तालाब या टैंक का तल काफी प्रदूषित भी हो जाता है। इससे उस पानी में पलने वाले जीवों की सेहत पर असर होता है। दूसरी तरफ कम फीड देने से श्रिंप की ग्रोथ पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। तीसरा, ग्रोथ मैनेजमेंट भी आवश्यक है। इसमें मिनिरल यानी खनिज, प्रोबायोटिक तथा अन्य आवश्यक चीजों का उचित अनुपात में देना शामिल है। चौथा, रोग प्रबंधन भी अहम है। इसमें बीमारी के लक्षण को पहचानने के लिए लगातार जीवों की मॉनिटरिंग जरूरी है।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि एक्वाकल्चर के क्षेत्र में पिछले दशक में टेक्नोलॉजी का अधिक इस्तेमाल नहीं हुआ है। आज उन्नत तकनीक उपलब्ध होने के कारण किसानों की मदद के लिए समाधान भी उपलब्ध हैं। पानी की गुणवत्ता जांचने वाले सेंसर और आईओटी रियल टाइम में आंकड़े बताते हैं। ऑटो फीडर रोजाना जीवों को निश्चित मात्रा में फीड उपलब्ध कराते हैं। जीवों के विकास की निगरानी करने वाले डिवाइस उपलब्ध हैं। रिसर्कुलेटिंग एक्वाकल्चर सिस्टम की तरह वैकल्पिक उत्पादन के साधन भी मौजूद हैं।

फिर भी सवाल यह है कि क्या जमीनी स्तर पर इन टेक्नोलॉजी को अपनाया जा रहा है? क्या भारतीय इकोसिस्टम के मुताबिक उनका कस्टमाइजेशन किया गया है? इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि क्या वह टेक्नोलॉजी छोटे और सीमांत किसानों के लिए आर्थिक रूप से अफोर्डेबल है?

भारत में एक्वाकल्चर के क्षेत्र में टेक्नोलॉजी आधारित समाधान को प्रमोट करना आसान नहीं है। यह इसलिए भी चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इसमें हमें ऐसे लोगों के साथ काम करना पड़ता है जो ग्रामीण तथा तटीय इलाकों में रहते हैं, जहां आधुनिक तकनीक को लोग जल्दी स्वीकार नहीं करते। इसका एक कारण जो है उसे मैं एनसेसट्रल इंटेलिजेंस कहता हूं। इससे आशय उन मान्यताओं और परंपराओं से है जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं।

जब एक्वाकल्चर इंडस्ट्री लगातार विकसित हो रही है यह आवश्यक हो जाता है कि टेक्नोलॉजी कंपनियां आगे आएं और इस महत्वपूर्ण सेक्टर की मदद करने में अहम भूमिका निभाएं। वास्तविक अर्थों में प्रभाव डालने के लिए टेक्नोलॉजी कंपनियों को जागरूकता बढ़ाने पर फोकस करना चाहिए, किसानों को प्रशिक्षित करने के मकसद से उनकी हैंडहोल्डिंग करनी चाहिए और टेक्नोलॉजी को आसान तरीके से स्वीकार किया जाना सुनिश्चित करना चाहिए। इसके अलावा कंपनियों को ऐसे कस्टमाइज्ड सॉलूशन लाने चाहिए जिनसे इंडस्ट्री की अलग तरह की जरूरतें पूरी हों और वह सबके लिए सस्ता और सुलभ हो।

A3 = Awareness (जागरूकता) + Adoption (अपनाना) + Affordability (कम कीमत)

ऐसा करके भी हम समीकरण के सिर्फ एक पक्ष को हल कर रहे हैं। दूसरी तरफ डाटा के अभाव में वैल्यू चेन की पारदर्शिता नहीं रह जाती है। ना तो किसान अपने उपज की मांग को लेकर कोई अनुमान लगा सकते हैं ना ही सीफूड के खरीदार आपूर्ति के बारे में कोई अनुमान व्यक्त कर सकते हैं। इससे अंततः किसान अपनी उपज का उचित मूल्य पाने से वंचित रह जाएंगे। हार्वेस्टिंग के बाद की वैल्यू चेन अक्षम चैनलों के कारण बाधित हो जाती है। 

ऐसे समय जब हम एक्वाकल्चर में नई लहर के लिए तैयार हो रहे हैं, हमें इस सेक्टर की विशालता को पहचानना होगा। साथ ही वैल्यू चेन के हर कदम में प्रौद्योगिकी समाधान शामिल करने की आवश्यकता को भी महसूस करना पड़ेगा। ऐसा करके हम समस्या को समझने की अपनी क्षमता बढ़ा सकते हैं, उचित सॉफ्टवेयर मॉडल अपनाकर रियल टाइम में डाटा आधारित फैसला भी ले सकते हैं। एक्वाकनेक्ट की भूमिका यहीं पर आती है। यह एक्वाकल्चर में किसी समाधान को बड़े पैमाने पर लागू करने का रास्ता तैयार कर रहा है। इसके लिए वह सैटेलाइट रिमोट सेंसिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की नवीनतम तकनीक का इस्तेमाल करता है।

एक्वाकनेक्ट का मिशन एक्वाकल्चर वैल्यू चेन में पारदर्शिता लाना और उसे सक्षम बनाना है। इसके साथ ही यह डाटा की कमी और अक्षम चैनल की दीर्घकालिक समस्याओं का भी समाधान करता है। इन समस्याओं ने हार्वेस्टिंग के बाद की प्रक्रिया को काफी है नुकसान पहुंचाया है। अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के जरिए एक्वाकनेक्ट भारतीय एक्वाकल्चर में क्रांति लाना चाहता है।

अगले लेख में हम एक्वाकनेक्ट की टेक्नोलॉजी की चर्चा करेंगे और देखेंगे कि भारतीय एक्वाकल्चर में बदलाव लाने के लिए जमीनी स्तर पर चुनौतियां से किस तरह निपटते हैं।

( मुरुगन चिदंबरम, एक्वाकनेक्ट के डिजिटल ट्रांसफॉर्मेशन और मार्केटिंग के प्रमुख हैं)

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