आखिर प्राकृतिक खेती को क्यों बढ़ावा दे रही सरकार?

पिछले कुछ वर्षों के दौरान उर्वरक सब्सिडी का विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं कि बीते 3 वर्षों में यह एक लाख करोड़ रुपए से अधिक रही है। वर्ष 2022-23 के संशोधित आकलन में सब्सिडी की राशि अब तक के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। 2019-20 की तुलना में 2022-23 में उर्वरक सब्सिडी 177.62 प्रतिशत बढ़ गई।

आखिर प्राकृतिक खेती को क्यों बढ़ावा दे रही सरकार?

भारत ने पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराने वाले महत्वपूर्ण इनपुट के तौर पर उर्वरकों को आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के तहत आवश्यक कमोडिटी का दर्जा दे रखा है। उर्वरकों के बिना कृषि उत्पादकता बहुत कम हो जाएगी और देश की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करेगी। अगर बाजार में सरकार हस्तक्षेप न करे और वैसी स्थिति में बाजार विफल हो जाए तो भारत जैसे देश में इसका बड़ा नकारात्मक असर होगा। यहां आज भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आबादी का बड़ा हिस्सा कृषि पर निर्भर है।

उर्वरक सेक्टर में उत्पादक, उपभोक्ता और सरकार शामिल हैं। सरकारी हस्तक्षेप के माध्यम से इसे रेगुलेट करने के महत्व का पता उस स्थिति के विश्लेषण से लगाया जा सकता है जब इस सेक्टर को प्रतिस्पर्धी मान कर सरकार हस्तक्षेप ना करे। उर्वरकों के प्रत्येक उपभोक्ता को किसी ने किसी स्रोत से एक निश्चित लागत पर इसकी सप्लाई होगी। उस लागत में उत्पादन, ट्रांसपोर्ट और डिस्ट्रीब्यूशन का खर्च शामिल होगा। फर्टिलाइजर प्रोडक्ट बनाने वाले को विभिन्न कंज्यूमर को होने वाली बिक्री से समान रिटर्न मिलेगा। जिन लोगों को अभी वह फर्टिलाइजर प्रोडक्ट नहीं बचता है, उन्हें बेचने से उसे ज्यादा रिटर्न नहीं मिलेगा।

ऐसे बाजार में अगर किसी उपभोक्ता की डिमांड प्राइस, सप्लाई प्राइस से कम रहती है तो उसे सप्लाई नहीं मिलेगी। उन उत्पादकों को भी मुश्किल होगी जो उपभोक्ता की डिमांड प्राइस से अधिक कीमत पर अपने उत्पादों की सप्लाई करेंगे। ऐसी स्थिति में उत्पादक को अपनी मैन्युफैक्चरिंग इकाई बंद करने की नौबत आ सकती है। इसी तरह, वे उत्पादक जो यूनिट वेरिएबल लागत से अधिक कीमत पा रहे हैं लेकिन उन्हें उत्पादन की कुल कीमत से अधिक नहीं मिल रहा, वे भी लंबे समय में अपनी इकाई बंद करने पर मजबूर होंगे (Segura, Shetty and Mieko. 1986)। इससे बाजार विफल हो जाएगा। लेकिन अगर हस्तक्षेप की नीति से सरकार की लागत बढ़ती है तो उसका क्या?

बढ़ती फर्टिलाइजर सब्सिडी

उर्वरकों का इस्तेमाल बढ़ाने, फसलों की लागत बढ़ने से रोकने तथा कृषि को सब्सिडी देने के लिए महत्वपूर्ण है कि किसानों को उर्वरकों की आपूर्ति उचित कीमत पर की जाए। उर्वरक सब्सिडी की प्रासंगिकता ऐसे समय में ही आती है जब किसानों के लिए कीमत उर्वरक उत्पादन की औसत लागत से बहुत कम निर्धारित की जाती है। सरकार इन दोनों के बीच के अंतर को सब्सिडी के तौर पर उर्वरक निर्माता को देती है। वर्ना उर्वरक निर्माता बाजार से चले जाएंगे। मराठे समिति (1976) की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने 1976-77 से उर्वरक सब्सिडी देना शुरू किया। उस वर्ष कुल उर्वरक सब्सिडी सिर्फ 60 करोड़ रुपए थी जो 2022-23 में 225222.3 करोड़ तक पहुंच गई।

इस समय भारत यूरिया तथा गैर-यूरिया उत्पादों पर सब्सिडी देता है। यहां उर्वरक के तौर पर सबसे अधिक उत्पादन और खपत यूरिया की ही होती है। खेती में इस्तेमाल होने वाली यूरिया की कीमत सरकार तय करती है। सरकार द्वारा निर्धारित कीमत और उत्पादन लागत के बीच के अंतर की राशि सरकार यूरिया निर्माताओं/आयातकों को सब्सिडी के तौर पर देती है। गैर-यूरिया प्रोडक्ट न्यूट्रिएंट आधारित सब्सिडी (एनबीएस) के तहत आते हैं। यहां सरकार नाइट्रोजन, फास्फेट, पोटाश और सल्फर जैसे न्यूट्रिएंट की प्रति किलो के हिसाब से सब्सिडी की दर तय करती है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान उर्वरक सब्सिडी का विश्लेषण किया जाए तो हम पाते हैं कि बीते 3 वर्षों में यह एक लाख करोड़ रुपए से अधिक रही है। वर्ष 2022-23 के संशोधित आकलन में सब्सिडी की राशि अब तक के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। 2019-20 की तुलना में 2022-23 में उर्वरक सब्सिडी 177.62 प्रतिशत बढ़ गई। इस वृद्धि के दो कारण रहे- वैश्विक स्तर पर उर्वरक संकट और उर्वरक आयात पर भारत की निर्भरता। विश्व बैंक के अनुसार फर्टिलाइजर प्राइस इंडेक्स इस साल 15% बढ़ा है और दो साल पहले की तुलना में दाम तीन गुना से अधिक बढ़े हैं।

इस संकट के छह कारण हैं- वैश्विक मांग में वृद्धि, उर्वरक उत्पादन के लिए इनपुट की बढ़ी कीमत, अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में सप्लाई की कमी, घरेलू नीतियां, भू राजनीतिक जोखिम और रूस-यूक्रेन युद्ध। फसल उत्पादन वाले प्रमुख क्षेत्रों में रासायनिक उर्वरकों की मांग बढ़ी है और इनकी कीमतें बढ़ाने में इसने बड़ी भूमिका निभाई है। मक्का और सोयाबीन जैसी फसलों के लिए पोटाश और फास्फेटिक उर्वरकों की जरूरत विश्व स्तर पर बढ़ी क्योंकि इनकी खेती का रकबा बढ़ा है। इनपुट लागत बढ़ने से भी उर्वरकों की कीमतें बढ़ी हैं। फास्फेटिक उर्वरकों के मामले में देखें तो सल्फर और अमोनिया जैसे कच्चे माल के दाम कोविड-19 महामारी के प्रतिबंधों के कारण काफी बढ़ गए। दूसरी तरफ यूरिया के मामले में फीड स्टॉक लागत 2021 में रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई, खासकर एशियाई एलएनजी और पश्चिम अमेरिकी प्राकृतिक गैस की कीमतों के कारण।

इनपुट लागत बढ़ने से लेकर मौसम के विपरीत प्रभाव जैसे कारणों ने अनेक देशों के घरेलू बाजारों में उर्वरकों की सप्लाई को बाधित किया। कई देशों में उर्वरकों की उपलब्धता घटने के कारण वहां की सरकारों ने अपने यहां उपलब्धता बढ़ाने की नीतियां लागू की। उदाहरण के लिए दुनिया के सबसे बड़े उर्वरक उत्पादक और उपभोक्ता चीन ने इनके निर्यात पर रोक लगा दी। जुलाई 2021 में नेशनल डेवलपमेंट एंड रिफॉर्म कमिशन ने घरेलू बाजार में उर्वरकों की अधिक कीमत के कारण इनका निर्यात रोकने का फैसला किया। इस कदम से अंतरराष्ट्रीय बाजार में उर्वरकों की सप्लाई कम हो गई। चीन में कोयले की बढ़ती कीमतों ने भी उर्वरक उत्पादक कंपनियों को उत्पादन घटाने के लिए मजबूर किया। रूस और मिस्र ने भी अपनी नीतियों के तहत एक्सपोर्ट की सीमा निर्धारित कर दी। भू राजनीतिक स्तर पर देखें तो बेलारूस पर यूरोपियन यूनियन और अमेरिका के प्रतिबंधों के चलते पोटाश बाजार में अनिश्चित पैदा हो गई है। बेलारूस अंतरराष्ट्रीय बाजार में 20% पोटाश की सप्लाई करता है। इस तरह के प्रतिबंधों ने उर्वरकों की कीमतें बढ़ाने का काम किया। रूस और यूक्रेन के बीच तनाव ने भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में सप्लाई के साथ प्राकृतिक गैस की कीमतों को प्रभावित किया।

वैश्विक स्तर पर उर्वरक संकट ने भारत को भी प्रभावित किया है। भारत अपनी जरूरत के 25% यूरिया, 90% फास्फेटिक उर्वरक और 100% पोटाश उर्वरकों के लिए आयात पर निर्भर है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि का भारत पर बड़ा असर होता है। भारत उर्वरकों का बड़ा आयातक है, इसलिए यह खरीदार के रूप में जब भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रवेश करता है तो कीमतें बढ़ जाती हैं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में डिमांड और सप्लाई से ही कीमतें होती हैं। हालांकि भारत ने कुछ देशों के साथ लॉन्ग टर्म सप्लाई के समझौते भी किए हैं।

नीतिगत बदलाव की ओर कदम

उर्वरकों के लिए सब्सिडी की नीति अपनाने के बाद भारत में इनकी खपत तेजी से बढ़ी है। हालांकि यहां चीन, बांग्लादेश और ब्राजील जैसे देशों की तुलना में प्रति हेक्टेयर उर्वरकों की औसत खपत कम है, फिर भी हाल में भारत ने प्राकृतिक खेती पर जोर देना शुरू कर दिया है। इसकी मुख्य वजह क्या है?

बढ़ती उर्वरक सब्सिडी सरकार के लिए चिंता का विषय है। इसे नियंत्रित करने के लिए सरकार प्राकृतिक या ऑर्गेनिक खेती बढ़ाने की बात कर रही है। 16 दिसंबर 2021 को प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय कॉन्क्लेव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में देश की मिट्टी को रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों से मुक्त करने का आह्वान किया था। इसके बाद 1 जनवरी 2022 को पीएम किसान कार्यक्रम में उन्होंने किसानों से रसायन मुक्त खेती अपनाने को कहा। पिछले साल 28 मई को इफको के सेमिनार में प्रधानमंत्री ने एक बार फिर यह कहकर ऑर्गेनिक खेती बढ़ाने की बात कही कि यह नया मंत्र है और इससे उर्वरकों के लिए दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता कम होगी। प्रधानमंत्री ने देश के किसानों से यूरिया का इस्तेमाल 50% कम करने की भी बात कही ताकि मिट्टी की सेहत को सुधारा जा सके और धीरे-धीरे रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम किया जा सके।

आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में भी वैकल्पिक उर्वरकों के महत्व के साथ रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कम करने की बात कही गई है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने 2023-24 के बजट में पीएम प्रणाम (प्रोग्राम फॉर रेस्टोरेशन, अवेयरनेस, नरिशमेंट एंड एमेलियोरेशन ऑफ मदर अर्थ) नाम से नई योजना शुरू करने का प्रस्ताव रखा। इसका मकसद सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में वैकल्पिक उर्वरकों को बढ़ावा देना तथा रासायनिक उर्वरकों के संतुलित प्रयोग को प्रोत्साहित करना है। इसके लिए यूरिया की खपत घटाना जरूरी है क्योंकि भारत में सबसे अधिक इसी की खपत होती है। इस बजट में सरकार ने भारतीय प्राकृतिक खेती बायो इनपुट रिसोर्स सेंटर के माध्यम से किसानों को प्राकृतिक खेती अपनाने की बात भी कही है। जुलाई 2023 में सरकार ने ऑर्गेनिक उर्वरकों को बढ़ावा देने के लिए एक नीति की घोषणा की। इसके लिए गोबरधन (गैलवानाइजिंग ऑर्गेनिक बायो-एग्रो रिसोर्सेस धन) पहल की शुरुआत की गई है।

बिना पर्याप्त तैयारी और किसानों को जागरूक किए ऑर्गेनिक अथवा प्राकृतिक खेती पर जोर देना कृषि उत्पादन को प्रभावित कर सकता है। हम श्रीलंका में ऐसा देख चुके हैं जहां रासायनिक उर्वरकों के बजाय किसानों से अचानक ऑर्गेनिक खेती करने को कहा गया था।

(लेखक सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज-जेएनयू में डॉक्टोरल स्कॉलर हैं)

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