कपास उत्पादन सात साल से लगातार घट रहा, ग्लोबल लीडर बने रहने के लिए आरएंडडी पर खर्च बढ़ाना जरूरी

2015 से कपास के उत्पादन में लगातार गिरावट आ रही है। यह 400 लाख गांठ से घटकर 310 लाख गांठ पर आ गई है। कीटों का प्रभाव नए सिरे से बढ़ने और विपरीत जलवायु परिस्थितियों के कारण यील्ड में ठहराव आ गया। भारत की राष्ट्रीय औसत कपास उत्पादकता 433 किलो प्रति हेक्टेयर है जबकि विश्व औसत 768 किलो प्रति हेक्टेयर का है।

कपास उत्पादन सात साल से लगातार घट रहा, ग्लोबल लीडर बने रहने के लिए आरएंडडी पर खर्च बढ़ाना जरूरी
पिछले वित्त वर्ष (2022-23) में कपास निर्यात में भारी गिरावट आई है।

भारत में कपास के उत्पादन में हाल के वर्षों के दौरान गिरावट आई है। यह गिरावट वर्ष 2015 से लगातार है। इस दौरान उत्पादन सालाना 400 लाख गांठ से घटकर 310 लाख गांठ रह गया है। कीटों का प्रभाव नए सिरे से बढ़ने और विपरीत जलवायु परिस्थितियों के कारण यील्ड नहीं बढ़ रही है। विश्व औसत कपास उत्पादकता 768 किलो प्रति हेक्टेयर है, जबकि भारत का राष्ट्रीय औसत 433 किलो प्रति हेक्टेयर पर ठहर गया है। ट्रस्ट फॉर एडवांसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (TAAS) के एक शोध पत्र में कपास उत्पादन का आकलन करते हुए यह टिप्पणियां की गई हैं। इसमें कहा गया है कि कपास में जेनेटिक सुधार और अच्छे एग्रोनॉमिक प्रैक्टिस अपनाने की बहुत गुंजाइश है। वर्ष 2026 तक भारत की टेक्सटाइल इंडस्ट्री को 450 लाख गांठ कपास की जरूरत होगी। हमें कपास उत्पादन तथा इसके निर्यात में ग्लोबल लीडर बने रहने के लिए एक स्पष्ट रोडमैप की जरूरत है।

दरअसल, भारत इस सदी के पहले दशक में सिल्वर फाइबर क्रांति का गवाह रहा है। इसका श्रेय 2002 में सरकार द्वारा बीटी कॉटन की कमर्शियल खेती को मंजूरी देना है। इसका नतीजा यह हुआ कि एक दशक से भी कम समय में भारत में कपास का उत्पादन 3 गुना हो गया। यह 130 लाख गांठ से बढ़कर 2013-14 में 400 लाख गांठ तक पहुंच गया। इसके साथ ही भारत दुनिया का एक प्रमुख कपास निर्यातक भी बन गया। कपास किसानों ने बीटी टेक्नोलॉजी को तेजी से अपनाया। बढ़ती लोकप्रियता के कारण इसका रकबा 80 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 120 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया। 2002 से 2020 के दौरान बीटी कॉटन की खेती से कपास किसानों की आमदनी औसतन 181.8 डॉलर प्रति हेक्टेयर (मौजूदा एक्सचेंज रेट पर लगभग ₹15000) बढ़ी। इसके साथ ही कीटनाशकों की खपत में 36.4% की कमी आई।

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इन उपलब्धियों के बावजूद दूसरा पक्ष यह है कि कपास के क्षेत्र में बाद के वर्षों के दौरान जेनेटिक टेक्नोलॉजी में कोई बड़ी प्रगति नहीं हुई। पिंक बॉलवर्म में बीटी टॉक्सिन का प्रतिरोध विकसित होने, व्हाइट फ्लाई जैसे दूसरे कीटों के आने तथा बॉल रॉट जैसी बीमारियों और वायरस के कारण कपास के उत्पादन में बड़ी गिरावट आई है। विभिन्न कीटों, बीजों तथा मैकेनिकल तरीके से फैलने वाले कॉटन लीफ कर्ल वायरस और टोबैको स्ट्रीक वायरस कपास की खेती के लिए बड़ा खतरा बनकर उभरे हैं। दूसरी तरफ, इन कीटों को मारने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा है, जिससे प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है। कपास के खेतों में खरपतवार का प्रकोप भी एक गंभीर समस्या है। मजदूरों की कमी, मजदूरी बढ़ने और अधिक समय तक बारिश होने के कारण हाथों से खरपतवार निकालना लगातार चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।

शोध पत्र के अनुसार, 2006 में बीटी कॉटन टेक्नोलॉजी की दूसरी पीढ़ी बॉलगार्ड-2 के लांच होने के बाद कपास में किसी नई बायोटेक्नोलॉजी को मंजूरी नहीं दी गई है, जबकि अन्य देशों ने इस दिशा में काफी प्रगति की है। अगली पीढ़ी के बीजी2 आरआरएफ कॉटन के जरिए बॉलवर्म और खरपतवार को नियंत्रित करके भारत अभी की तुलना में यील्ड में अधिक बढ़ोतरी हासिल कर सकता है।

भारत में कपास का रकबा बढ़ रहा है और 2022-23 में 125 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती हुई। इसमें वह इलाका भी शामिल है जो इसकी खेती के लिए अनुकूल नहीं है। कपास की खेती का लगभग 65% इलाका, खासकर मध्य और दक्षिणी जोन, वर्षा आधारित है। इस इलाके की मिट्टी में पानी को ग्रहण करने की क्षमता कम होती है, उर्वरता कम है, साथ ही यहां के किसानों के पास सिंचाई के संसाधन भी कम हैं। इसके फलस्वरूप 72 फ़ीसदी कपास क्षेत्र कम (प्रति हेक्टेयर 300 किलो से कम) और मध्यम (370 से 455 किलो प्रति हेक्टेयर) उत्पादकता की श्रेणी में आता है।

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शोध पत्र के अनुसार चीन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया समेत ज्यादातर बड़े कपास उत्पादक देश 90x10 सेंटीमीटर दूरी (हाई डेंसिटी प्लांटिंग सिस्टम- एचडीपीएस) अथवा इससे भी कम दूरी पर पौधे लगाते हैं, जबकि भारत में पौधों के बीच की दूरी 90x60 सेंटीमीटर होती है। भारत में एचडीपीएस अभी तक प्रयोग के चरण में है। इस तरह की खेती के अनुकूल विशिष्ट किस्म के पौधों को विकसित करने तथा उन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है।

टेक्सटाइल इंडस्ट्री को भारतीय कपास में कई तरह का कचरा (कॉन्टेमिनेशन) मिलता है। इस कपास की सफाई से तुड़ाई और प्री क्लिनिंग जरूरी है। क्वालिटी हार्वेस्टिंग के लिए खेती में मैकेनाइजेशन और प्लांट कैनोपी के प्रबंधन जैसे सुझाव दिए गए हैं। इससे कचरा भी कम होगा और खेती की लागत में भी कमी आएगी। अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में स्रोत की पहचान, उचित व्यापार प्रैक्टिस, लेबलिंग, सस्टेनेबल खेती के तरीके से ऑर्गेनिक कपास का उत्पादन जैसे कदमों की मांग की जाती है। इन जरूरतों को पूरा करने से यार्न, फैब्रिक और गारमेंट जैसे प्रोडक्ट की वैल्यू बढ़ेगी और साथ ही किसानों तथा टेक्सटाइल इंडस्ट्री का मुनाफा बढ़ेगा।

इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए नई दिल्ली के पूसा कैंपस स्थित एनएएससी परिसर में एक कार्यशाला आयोजित की गई थी। कार्यशाला में एक पॉलिसी ब्रीफ भी तैयार किया गया। इसमें कहा गया कि कॉफी, चाय, रबड़, तंबाकू तथा मसालों जैसी अन्य नकदी फसलों की तरह कपास विकास बोर्ड (कॉटन डेवलपमेंट बोर्ड) का गठन किया जाना चाहिए, ताकि एक ही छतरी के नीचे पॉलिसी, विकास और व्यापार संबंधित मुद्दों का समाधान किया जा सके। पुरानी टेक्नोलॉजी मिशन ऑन कॉटन (टीएमसी 2002-10) पर तत्काल पुनर्विचार करने और इसके दूसरे चरण को लागू करने की जरूरत है। इससे कपास उत्पादकता, क्वालिटी और मार्केटिंग नेटवर्क को मजबूत किया जा सकेगा। दूसरे चरण में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और टेक्सटाइल तथा वाणिज्य मंत्रालय को भी शामिल करने की जरूरत है।

शोध पत्र के अनुसार, कपास के मामले में वैश्विक लीडर बनने के लिए अनुसंधान में अधिक निवेश करना जरूरी है। सरकार और निजी क्षेत्र के संस्थान कपास अनुसंधान एवं विकास कार्यों के लिए जितना आवंटन करते हैं, उसे दोगुना किया जाना चाहिए। एचडीपीएस वैरायटी विकसित करने के लिए अधिक निवेश करना पड़ेगा। इसके लिए बीज कंपनियों को कपास रिसर्च में निवेश करने के लिए इंसेंटिव देने की आवश्यकता है। किसानों को भी इस बात के लिए इंसेंटिव देने की जरूरत है कि वे ऐसी वैरायटी/हाइब्रिड की खेती के लिए आगे आएं जिनमें जिनिंग आउटटर्न अधिक हो। अधिक जिनिंग आउटटर्न वाली कपास के लिए अलग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की जानी चाहिए।

किसानों, कस्टम हायरिंग सेंटर, एफपीओ, आंत्रप्रेन्योर और सर्विस प्रोवाइडर्स को भी उचित इंसेंटिव दिया जाना चाहिए ताकि कपास उत्पादन में सुधार लाया जा सके और कपास किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सके। फसल सुरक्षा उद्योग को भी प्लांट ग्रोथ रेगुलेटर तथा डिफोलिएंट की सप्लाई सुनिश्चित करने की आवश्यकता है ताकि एचडीपीएस और मैकेनिकल हार्वेस्टिंग बड़े पैमाने पर हो सके।

अनुसंधान के क्षेत्र में भी कुछ कदम तत्काल उठाए जाने की जरूरत है। बेहतर लिंट यील्ड और क्वालिटी, अधिक जिनिंग आउटटर्न, मौजूदा कीटों और बीमारियों के लिए प्रतिरोध तथा एबायोटिक स्ट्रेस (सूखा, अधिक तापमान, जल जमाव, खारापन) के प्रति सहनशीलता के लिए ब्रीडिंग के प्रयास भी तेज किए जाने चाहिए। नई ब्रीडिंग टेक्नोलॉजी (जीएम समेत), जीनोम एडिटिंग और हैपलोटाइप ब्रीडिंग की दिशा में विशेष प्रयास की आवश्यकता है। ग्लोबल लीडर बने रहने के लिए मौजूदा एचटीबीटी हाइब्रिड का इस्तेमाल करने के अलावा नए आरआरएफ और बीजी3 इनोवेशन की क्षमताओं को भी खंगालने की आवश्यकता है।

बीज पर लागत कम करने के लिए हमें सार्वजनिक क्षेत्र में कपास की वैरायटी विकसित करने का काम तेज करना चाहिए। अधिक आमदनी के लिए रंगीन तथा स्पेशलिटी कॉटन वैरायटी विकसित की जानी चाहिए तथा उन्हें प्रमोट किया जाना चाहिए। 

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