डब्ल्यूटीओ के 12वें मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में भारत के लिए पीस क्लॉज से परमानेंट सलूशन तक जाने की गंभीर चुनौती

कृषि समझौते के तहत सब्सिडी प्रस्ताव पर आगे बढ़ने के पहले राजदूत पेराल्टा को कृषि सब्सिडी और वैश्विक कृषि बाजारों की दो कठोर वास्तविकताओं पर ध्यान देना चाहिए, जो वैश्विक कृषि व्यापार को विकृत करने के लिए जिम्मेदार हैं। पहली है, अधिक सब्सिडी वाले सदस्य देश अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और चीन द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी में एक समानता है, वह है इन देशों द्वारा दी जाने वाली कुल सब्सिडी का 80 फीसदी से ज्यादा "ग्रीन बॉक्स" में होना जिस पर सब्सिडी की कोई सीमा नहीं है। दूसरी वास्तविकता है अमेरिका और यूरोपीय यूनियन कृषि उत्पादों के सबसे बड़े निर्यातकों में से  एक हैं। इसका अर्थ यह है कि डब्ल्यूटीओ के यह सदस्य  देश ग्लोबल मार्केट पर कब्जा करने के लिए अपने कृषि क्षेत्र को सब्सिडी दे रहे हैं

डब्ल्यूटीओ के 12वें मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में भारत के लिए पीस क्लॉज से परमानेंट सलूशन तक जाने की गंभीर चुनौती

विश्व व्यापार संगठन  (डब्ल्यूटीओ) के 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (एमसी12) की बैठक 30 नवम्बर से लेकर 3 दिसम्बर के दौरान  स्विटजरलैंड के जेनेवा में आयोजित की जाएगी । एमसी 12 का पिछले साल कजाकिस्तान में होने वाला यह सम्मेलन  कोरोना महामारी के कारण स्थगित हो गया था ।  साढ़े सात दशक पहले अस्तित्व में आई बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के समय से ही डब्ल्यूटीओ के सदस्यों के बीच कृषि सबसे  विवादस्पद मुद्दों में से एक रहा  है। इस क्षेत्र से संबंधित लगभग सभी मुद्दों पर डब्ल्यूटीओ के सदस्य देश बहुत ज्यादा विभाजित रहे है । हालांकि कृषि से जुड़े मुद्दों पर बातचीत समिति के चेयरमैन राजदूत ग्लोरिया अब्राहम पेराल्टा द्वारा  जुलाई के अंत में  प्रारंभिक मसौदा  पेश  करने के बावजूद भी  कृषि पर औपचारिक  चर्चा कम  ही हुई  है।  इसके पीछे का मुख्य कारण यह रहा है  कि पूर्व में रहे चेयरमैन जिस तरह से बातचीत और चर्चाओं का दायरा बढ़ाने की कोशिश करते रहे हैं उनके उलट पेराल्टा ने ऐसा कोई उत्साह दिखाने की बजाय न्यूनतम एजेंडा  के विकल्प को चुना है।  उन्होंने सभी प्रमुख मुद्दों को शामिल करते हुए मंत्रिस्तरीय निर्णयों की एक  को अपनाने का प्रस्ताव दिया है। जो विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता की जटिलताओं पर विचार किए बिना देशों की जरूरतों,  चिंताओं और विकास के विभिन्न स्तरों पर विचार किये बिना कृषि पर समझौते यानि एग्रीमेंट आन एग्रीकल्चर  (एओए) में संशोधन करने की एक कोशिश है।

राजदूत पेराल्टा के दृष्टिकोण के साथ प्रमुख समस्या यह है कि वह एओए के अनुच्छेद 20 के  प्रावधानों का इस्तेमाल करते हैं  जो 1999 में लागू  हुए समझौते की स्वतः समीक्षा करने का अधिकार देता है।  डब्लूटीओ  के सदस्य देशों ने एनालसिस एण्ड इनफार्मेशन (एआईई) की प्रक्रिया शुरू की थी जिसका मकसद एओए के प्रावधानों को लागू करने के अपने अनुभवों को साझा करना है।  जो एओए की समीक्षा करने के लिए उपयोग की जा सकती हैं।

एआईई प्रक्रिया ने दोहा मंत्रिस्तरीय घोषणा के लिए प्रारंभिक तैयारी का काम किया। जिसने एओए की समीक्षा और सुधार करने के लिए सदस्यों को वार्ता के लिए अधिकृत किया। जिसे दोहा डवलमेंट एजेंडा (डीडीए) के रूप में जाना जाता है। लेकिन 16 साल की वार्ता  के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकलने के चलते  2017 में ब्यूनस आयर्स मंत्रिस्तरीय सम्मेलन (एमसी 11) में डीडीए के भविष्य को लेकर सवाल उठे थे। कुछ प्रभावशाली सदस्यो के चलते ही डीडीए का यह हश्र होता दिखता है । इसीलिए कृषि वार्ता के लिए चेयरमैन द्वारा डीडीए से पूर्व के अनुच्छेद 20 को कृषि पर वार्ता के लिए फ्रेमवर्क बनाने के कदम से साफ है डीडीए अब पुरानी बात हो गई है।  इस दृष्टि से डीडीए की अस्वीकृति स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि डब्लूटीओ का कार्य और कार्यक्रम अब से विकास के आयाम से रहित होगा। जिसके बिना अधिकांश विकासशील देश पीछे रह जाएंगे।

घरेलू सहायता पर प्रस्ताव:

एओए के अनुशासन के लिए तीन आधार स्तंभ हैं जिनमें घरेलू सहायता यानी उत्पादन-संबंधित सब्सिडी, निर्यात प्रतिस्पर्धा जिसमें निर्यात के लिए दी जाने वाली सब्सिडी और बाजार पहुंच शामिल है। इनमें  घरेलू सहायता के मामले में अनुशासन  का पालन सबसे कम प्रभावी रहा हैं। सब्सिडी पर नियंत्रण का फैसला जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ एंड ट्रेड (गैट) की 1986 की उरुग्वे दौर की वार्ता में हुआ था। इसमें  सब्सिडी पर अनुशासन का पालन करने के लिए ऐजेंडा पेश किया गया था। गैट (डब्ल्यूटीओ का पूर्व स्वरूप) के सामान्य समझौते के अनुबंध में कृषि व्यापार को प्रभावित करने वाली किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सब्सिडी को नियंत्रित करने पर सहमति हुई थी।  हालांकि, एओए के तहत किये गये अंतिम प्रावधानों में विकसित देशों द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी के एक बड़े हिस्से को कृषि व्यापार पर प्रतिकूल असर नहीं डालने वाली सब्सिडी माना गया और उनको “ग्रीन बॉक्स” के तहत शामिल किया गया। ग्रीन बॉक्स के तहत दी जाने वाली सब्सिडी की कोई सीमा तय नहीं इनमें से कुछ अधिक प्रमुख "ग्रीन बॉक्स" सब्सिडी का उपयोग मार्केंट क्लीयरी सिस्टम के रूप में किया जाता है खासतौर से अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों द्वारा ऐसा किया जाता है ।

वहीं  इनपुट सब्सिडी और एडमिनिस्टर्ड प्राइस  सिस्टम को ट्रेड डिस्टोरटिंग सब्सिडी माना जाता है। भारत इस व्यवस्था का उपयोग अपने निम्न-आय या संसाधनों  की कमी वाले उत्पादकों की सहायता के लिए करता है।  सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ को दी गई जानकारी में 99.4 फीसदी कृषि जोत को इसके तहत माना है।  दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार किसानों को अनिवार्य रूप से आजीविका और घरेलू खाद्य सुरक्षा की रक्षा के लिए सब्सिडी देती है। इस प्रकार, कृषि सब्सिडी को व्यापार विकृत या अन्यथा के रूप में वर्गीकृत करने का कोई स्पष्ट आधार नहीं है लेकिन एओए ऐसा मानता है।  विडंबना यह है कि एओए के तहत "एम्बर बॉक्स" सब्सिडी के रूप में जानी जाने वाली इस सहायता को कुल उत्पादन के मूल्य के 10 फीसदी  तक सीमित किया गया है।

घरेलू समर्थन के मुद्दे पर आगे का रास्ता सुझाते हुए कृषि वार्ता के चेयरमैन ने प्रस्ताव दिया है कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य देशों के मंत्रीस्तरीय वार्ता एमसी 12 में घरेलू सहायता पर नई व्यवस्था लागू करने का फैसला लेने के लिए नये सिरे से बात करें जिसके तहत व्यापार को प्रभावित करने वाली सभी संभावित सब्सिडी को शामिल किया जा सके।  इसमें  (एओए का अनुच्छेद 6.2) के तहत निम्न-आय या कम संसाधनों वाले उत्पादकों को मिलने वाली इनपुट सब्सिडी भी शामिल है। इस प्रावधान का फायदा भारत भी उठा रहा है। अनुच्छेद 6.2 सब्सिडी को 10 फीसदी  की व्यय सीमा के तहत लाने से भारतीय कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा ।

हम सुझाव दे सकते हैं कि आगे के प्रस्ताव पर बढ़ने के पहले राजदूत पेराल्टा को कृषि सब्सिडी और वैश्विक कृषि बाजारों की दो कठोर वास्तविकताओं पर ध्यान देना चाहिए, जो वैश्विक कृषि व्यापार को विकृत करने के लिए जिम्मेदार हैं। पहली है, अधिक सब्सिडी वाले सदस्य देश अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और चीन द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी में एक समानता है वह है इन देशों द्वारा दी जाने वाली कुल सब्सिडी का 80 फीसदी से ज्यादा "ग्रीन बॉक्स" में होना जिस पर सब्सिडी की कोई सीमा नहीं है। दूसरी वास्तविकता है, अमेरिका और यूरोपीय यूनियन कृषि उत्पादों के सबसे बड़े निर्यातकों में से  एक हैं। इसका अर्थ यह है कि डब्ल्यूटीओ के यह सदस्य  देश ग्लोबल मार्केट पर कब्जा करने के लिए अपने कृषि क्षेत्र को सब्सिडी दे रहे हैं ।

यह तर्क दिया जा सकता है कि सब्सिडी के अनुशासन में सुधार के लिए इन दो वास्तविकताओं को ध्यान में रखना चाहिए। अमेरिका द्वारा उपलब्ध कराए गए अमेरिकी कृषि विभाग (यूएसडीए) के आंकड़ों के अनुसार, साल 2020-21 में गेहूं के तीसरे सबसे बड़े निर्यातक देश के रूप में अमेरिका ने अपने उत्पादन का 54 फीसदी  निर्यात किया।  अपने 20 फीसदी उत्पादन के साथ अमेरिका  मक्का का सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा। वहीं अमेरिका ने अपने चावल उत्पादन का 41 फीसदी निर्यात किया। यूरोपीय संघ के सदस्य सबसे बड़े गेहूं निर्यातकों में शुमार है। वह अपने  उत्पादन का लगभग एक चौथाई निर्यात करते है।  इसके विपरीत सबसे बड़े चावल निर्यातक के रूप में भारत अपने उत्पादन का लगभग 10 फीसदी या उससे कम निर्यात करता है । यह  अलग बात है कि केवल 2020-21 में  चावल उत्पादन का निर्यात 16 फीसदी  पहुंच गया था । भारत भी 2020-21 में गेहूं के निर्यातक के रूप में उभरा लेकिन इसका निर्यात देश के कुल उत्पादन का 2.3 फीसदी ही था । यह आंकड़े बताते हैं कि भारतीय कृषि घरेलू बाजार उन्मुख है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका की कृषि  ग्लोबल मार्केट में निर्यात पर निर्भर है।

हमारा तर्क यह होना चाहिए कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य देश अपने कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए जितनी सब्सिडी देते हैं उसे सब्सिडी पर नियंत्रण की व्यवस्था के आधार के रूप में लिया जाना चाहिए । सब्सिडी नियंत्रण की नई व्यवस्था का घरेलू खाद्य व्यवस्था और आजीविका पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ना चाहिए।  विशेष रूप से उन देशों में जहां कि आबादी का बड़ा हिस्सा आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है।

बाजार पहुंच पर प्रस्ताव:

घरेलू समर्थन के अलावा कृषि में प्रमुख मुद्दा बाजार तक पहुंच है। एओए के इस आधार स्तंभ के मामले में  राजदूत पेराल्टा ने कुछ डब्ल्यूटीओ सदस्यों द्वारा प्रस्तुत उस प्रस्ताव पर भरोसा किया है जो पारदर्शिता और संभाव्यवता बढ़ाने की बात करता है और उसके लिए वर्तमान में लागू टैरिफ दरों" या वास्तविक टैरिफ को लागू करने की बात करता है। इस समय डब्ल्यूटीओ  के नियमों के लिए सदस्य देशों को अधिकतम टैरिफ दरें (बाउंड रेट)  तय करने का अधिकार है जो सांकेतिक होती हैं और जरूरत के मुताबिक इनका उपयोग किया जा सकता है। अधिकांश विकासशील देशों के लिए लागू (वास्तविक) टैरिफ दरें अक्सर बाउंड टैरिफ दरों से बहुत कम होती हैं और अपवाद स्वरूप ही यह देश टैरिफ दरों को उच्च स्तर तक बढ़ाते हैं।  वर्तमान में सरकारों के पास यह  एक महत्वपूर्ण नीतिगत उपाय है जो वह उपयोग कर रही हैं।  बाउंड टैरिफ दरों की जगह एप्लाइड यानी वास्तविक लागू दरों को बातचीत के केंद्र में लाने का चेयरमैन का कदम टैरिफ पर वार्ता के आधार को बदलने की कोशिश है जिसके नतीजे दूरगामी हो सकते हैं।

राजदूत पेराल्टा के विशिष्ट प्रस्ताव का उद्देश्य वास्तविक टैरिफ लगाने में ट्रांसपेरेंसी और प्रिडिक्टिबिलिटी को बढ़ाना है लेकिन विडंबना यह है कि जिस प्रस्ताव पर  यह आधारित है  उसकी सामग्री को  सार्वजनिक नहीं किया गया है । मोटे तौर पर यह प्रस्ताव उस शिपमेंट पर टैरिफ लगाने की बात करता है जिस दिन शिपमेंट ने अपनी यात्रा शुरू की थी। यह प्रस्ताव अगर लागू किया जाता है तो सीमा शुल्क अधिकारियों के लिए यह एक बुरे सपने की तरह हो सकता है जिन्हें  समान सामान या आयातित उत्पादों की प्रत्येक खेप के लिए अलग-अलग टैरिफ दरें लगानी होंगी। परिणामस्वरूप यह व्यवस्था व्यापार की प्रशासनिक लागत को कम करने की प्रवृत्ति को आसानी से उलट सकती है ।

खाद्य सुरक्षा के लिए पब्लिक स्टॉक होल्डिंग

कृषि में भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा खाद्य सुरक्षा के लिए सार्वजनिक स्टॉक होल्डिंग है। यह मुद्दा इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि एओए घरेलू खाद्य असुरक्षा की समस्या का समाधान करने के लिए सब्सिडी वाला भोजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से खाद्य भंडार बनाए रखने लिए डब्ल्यूटीओ के सदस्यों पर दो तरह की शर्तें लगाता है। पहली शर्त है सदस्य देश को खाद्य पदार्थों की खरीद करनी चाहिए और उन्हें  प्रशासित कीमतों  पर बेचना होगा।  दूसरी शर्त अगर खाद्य पदार्थों को सब्सिडी देकर प्रशासित कीमतों से कम पर बेचा जाता है जो प्रशासित कीमत और सब्सिडी वाली बिक्री कीमत के बीच के अंतर को संबंधित सदस्य देश के सब्सिडी बिल में शामिल किया जाना चाहिए। इस प्रकार एओए गरीबों को रियायती दर पर खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने को बाजार को विकृत करने वाली सब्सिडी मानता है। इसलिए खाद्य पदार्थों के सार्वजनिक स्टॉक का उपयोग करके खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को लागू करने वाले देशों को कृषि उत्पादन के मूल्य के 10 फीसदी की सब्सिडी सीमा का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं है । हमने इस लेख में उपर इस पर चर्चा की है।  

भारत सरकार द्वारा 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) को लागू करने  के बाद से पीएसएच  के प्रावधान भारत के लिए अधिक  लिए महत्वपूर्ण हो गए हैं। देश की लगभग दो-तिहाई आबादी को रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता जताने के बाद भारत ऐसी स्थिति की ओर में आ गया जहां पर उत्पादन के मूल्य के 10 फीसदी के बराबर सब्सिडी के उल्लंघन की संभावना थी। अगर सरकार सब्सिडी सीमा के उल्लंघन के बावजूद एनएफएसए को लागू करना जारी रखती तो कोई अन्य डब्ल्यूटीओ सदस्य भारत के खिलाफ विवाद शुरू कर सकता था जिसमें अगर भारत हार गया होता तो सब्सिडी वाले खाद्यान्न का वितरण तुरंत बंद करना पड़ता।

साल 2013 में भारत बातचीत के लिए एक “पीस कलॉज” जो एक अस्थायी राहत है हासिल कर पाया कि अगर एनएफएसए को लागू करते समय वह सब्सिडी की सीमा 10 फीसदी सीमा का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ कोई परिवाद दाखिल नहीं किया जा सकेगा। भारत की इस समस्या के लिए डब्ल्यूटीओ के सदस्यों को "स्थायी समाधान" (परमानेंट सलूशन) खोजना होगा । लेकिन एमसी -12 से पहले की चर्चाओं से पता चलता है कि चेयर द्वारा मसौदे में शामिल दो प्रस्तावों को लेकर  भारत के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। पहला है कि भारत जैसे विकासशील देश खाद्य सुरक्षा के उद्देश्य के लिए पब्लिक स्टॉक होल्डिंग के तहत पारंपरिक खाद्यान फसलों के उत्पादन के 15 फीसदी की सीमा तक ही सरकारी खरीद कर सकते हैं। दूसरा प्रस्ताव है कि जो देश खाद्य सुरक्षा के लिए पब्लिक स्टॉक होल्डिंग रखते हैं वह इसमें से खाद्यान्न का निर्यात नहीं कर सकती हैं। इन शर्तों का भारत पर क्या असर हो सकता है ?

खाद्यान्नों की सरकारी खरीद की सीमा तय करने का भारत के मुख्य उद्देश्यों पर गंभीर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। सरकार घरेलू खाद्य सुरक्षा और संसाधनों की कमी और कम आय वर्ग वाले किसानों को आजीविका को समर्थन देने के उद्देश्य से खाद्यान्नों की सरकारी खरीद करती है। खाद्यान्नो की खरीद की सीमा की शर्त का सीधा अर्थ है इन उद्देश्यों पर प्रतिकूल असर पड़ना। साल 2019-20 में भारत में 11.84 करोड़ टन चावल का उत्पादन हुआ। जिसमें से सरकार ने 520 लाख टन की खरीद की। सरकार द्वारा डब्ल्यूटीओ में दी गई जानकारी मुताबिक उसने 334 लाख टन चावल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की जरूरत को पूरा करने के लिए जारी किया। इस तरह से देखा जाए तो गरीबों के लिए सब्सिडी पर 340 लाख टन से अधिक चावल की जरूरत है लेकिन डब्ल्यूटीओ के प्रस्ताव के तहत भारत को लेकर 180 लाख टन चावल की ही सरकारी खऱीद करनी चाहिए।

इसी तरह के गेहूं के मामले में भारत ने 2019-20 में 340 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद की। जबकि खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग के मुताबिक 202 लाख टन गेहूं का वितरण लाभार्थियों को किया गया। किसानों और गरीबों की सहायता के लिए जरूरी इस मात्रा के उलट डब्ल्यूटीओ के मुताबिक भारत को 160 लाख टन गेहूं की ही सरकारी खऱीद करनी चाहिए। 

दूसरा प्रस्ताव जी-33, विकासशील देशों के समूह का है जिसमें भारत ने अतीत में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। वह कहता है कि खाद्य सुरक्षा स्टॉक को बनाए रखने वाले देशों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस स्टॉक का उपयोग निर्यात को बढ़ावा देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। पिछले दो वर्षों से भारत से अनाज के निर्यात में वृद्धि हुई है। अगर एमसी12 के इस प्रस्ताव से प्रेरणा लेते हुए पीएसएच के संबंध में एक स्थायी समाधान खोजता है तो यह भारत के लिए एक गंभीर चुनौती खड़ी कर सकता है।

(डॉ. बिश्वजीत धर, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं ) 

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