बदलते गांवों में हो रही बेहतर स्वास्थ्य, स्वच्छता और नौकरियों की मांग
2023 के गांव पिछली सदी के 80 या 90 के दशक जैसे नहीं हैं। गांवों में भी अब कई सारी सुविधाएं हैं, ग्रामीणों के पास भी मोबाइल फोन हैं जिस पर वे अपनी मनपसंद चीजें देखने के लिए डाटा का भरपूर इस्तेमाल करते हैं और गांव से पास के शहर जाने के लिए सड़क की बेहतर सुविधा है।
भारत का ग्रामीण परिदृश्य किसानों द्वारा खेत जोतने और अपनी आजीविका के लिए कड़ी मेहनत करने से कहीं आगे कमोबेश शहरी लोगों की समस्याओं और आकांक्षाओं के समान है। 2023 के गांव पिछली सदी के 80 या 90 के दशक जैसे नहीं हैं। गांवों में भी अब कई सारी सुविधाएं हैं, ग्रामीणों के पास भी मोबाइल फोन हैं जिस पर वे अपनी मनपसंद चीजें देखने के लिए डाटा का भरपूर इस्तेमाल करते हैं और गांव से पास के शहर जाने के लिए सड़क की बेहतर सुविधा है। मगर पानी की आपूर्ति में सुधार ने गांवों में गंदे पानी (इस्तेमाल किया हुआ) की निकासी की समस्या पैदा कर दी है। प्लास्टिक की थैलियां कीचड़ और गंदगी में इधर-उधर बिखरी रहती हैं जिसकी वजह से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ गई हैं।
नई दिल्ली में 'ग्रामीण भारत का एजेंडा' विषय पर इसी हफ्ते आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में इस तरह के मुद्दे विचार-मंथन सत्र में उभर कर सामने आए। इस मौके पर रूरल वॉयस मीडिया प्रा. लिमिटेड की त्रैमासिक पत्रिका 'रूरल वर्ल्ड' की लॉन्चिंग भी की गई।
ग्रामीण परिदृश्य में बदलाव लाने की हमेशा वकालत करने वाले पूर्व केंद्रीय कृषि सचिव टी. नंद कुमार ने कार्यक्रम के पहले सत्र में कहा, “जब विभिन्न सरकारी योजनाओं की बात आती है, तो जमीनी स्तर पर वह ठीक से लागू नहीं हो पाती हैं।” युवा आईएएस के रूप में वे बिहार के कई जिलों में जिला कलेक्टर रह चुके हैं। योजनाओं को ठीक से लागू नहीं कर पाने के लिए सरकारी संस्थानों की जवाबदेही नहीं होने पर उन्होंने चिंता जताई। उन्होंने कहा कि जिला कलेक्टर 100-150 समितयों का अध्यक्ष होता है। उस पर इतना बोझ होता है कि उसे खुद ही पता नहीं होता है कि वह किन-किन समितियों का अध्यक्ष है। इसके अलावा, बीडीओ (प्रखंड विकास अधिकारी) जिस पर योजनाओं को गांव के स्तर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी होती है, वह ''सबसे अधिक परेशान'' अधिकारी होता है। तो फिर इस समस्या का हल क्या है? उन्होंने कहा कि पंचायतों की अधिक स्वायत्तता और भागीदारी तथा सिविल सोसायटी की भागीदारी बढ़ाने से ही जमीनी स्तर तक योजनाओं का अच्छे से क्रियान्वयन किया जा सकता है।
नाबार्ड के पूर्व चेयरमैन हर्ष कुमार भानवाला ने उन गांवों में स्वच्छता की दयनीय स्थिति पर चिंता जताई जहां के लोग शहरी लोगों की तरह पैकेज्ड फूड इस्तेमाल करने के आदि हो गए हैं, लेकिन वहां ठोस कचरा या तरल कचरा प्रबंधन के बुनियादी ढांचे की कमी है। उन्होंने सुझाव दिया कि किसानों को अनियमित बिजली आपूर्ति की समस्या को दूर करने के लिए सूक्ष्म स्तर पर या क्लस्टर स्तर पर सौर प्लांट लगाए जाने चाहिए। नाबार्ड का उनका अनुभव बताता है कि इस पहल के लिए धन की कोई समस्या आड़े नहीं आएगी। उन्होंने कहा कि ज्यादातर गांवों में 400-500 बेरोजगार युवा हैं। उनके लिए गांव में ही रोजगार के अवसर पैदा करने की जरूरत है।
राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एनसीडीसी) के पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर संदीप कुमार नायक ने सहकारी समितियों को आधुनिक बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव साझा किए जिससे किसानों को मार्केटिंग और खरीद जैसे लिंकेज उपलब्ध कराए जा सकते हैं। सत्र के दौरान उनका जोर ''शासन की पारदर्शिता और सहकारी समितियों के आधुनिकीकरण'' पर था। उन्होंने कहा कि मल्टी-स्टेट कोऑपरेटिव सोसायटी जैसे विचार दूरदर्शी हैं।
सहकार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. डीएन ठाकुर ने कहा, ''ग्रामीण भारत बदल गया है लेकिन स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार और बढ़ गया है। उन्होंने स्थानीय नेतृत्व के स्वार्थी हो जाने और सामुदायिक सेवा के लिए प्रतिबद्ध लोगों की कमी पर चिंता जताई। हालांकि, सभी पैनलिस्ट ने इस बात पर सहमति जताई कि बेईमानों और भ्रष्टाचारियों की वजह से पंचायतों की शक्तियों को कम नहीं करना चाहिए। इसकी बजाय, उन्हें अधिक स्वायत्तता और बजट दिया जाना चाहिए।

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