भारतीय कृषि निर्यात को चाहिए नया दृष्टिकोण
हम जिन शीर्ष 5 देशों को कृषि उत्पादों का निर्यात करते हैं, उनमें अमेरिका, चीन, यूएई, वियतनाम और बांग्लादेश शामिल हैं। इनके बाद सऊदी अरब, मलेशिया, इराक आदि आते हैं। हमारे प्रमुख निर्यात में समुद्री उत्पाद, चावल (बासमती और अन्य), मसाले, भैंस का मांस, चीनी आदि शामिल हैं। हाल के वर्षों में समुद्री उत्पादों का निर्यात 7 से 8 अरब अमेरिकी डॉलर रहा है।

हमारे देश की 40% से अधिक आबादी की आजीविका कृषि पर निर्भर है। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका हिस्सा 18% से अधिक है। पिछले तीन वर्षों में हमारा कृषि और संबद्ध उत्पादों का निर्यात लगभग 50 अरब डॉलर रहा है। वैश्विक कृषि निर्यात में हमारी हिस्सेदारी 3% से भी कम है। चीन, जिसके पास भारत के मुकाबले कम उपजाऊ भूमि है, लगभग 100 अरब डॉलर मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात करता है। यह अंतर उस कुशलता और मूल्यवर्धन की कमी को दर्शाता है जिसे भरने की आवश्यकता है।
हम जिन शीर्ष 5 देशों को कृषि उत्पादों का निर्यात करते हैं, उनमें अमेरिका, चीन, यूएई, वियतनाम और बांग्लादेश शामिल हैं। इनके बाद सऊदी अरब, मलेशिया, इराक आदि आते हैं। हमारे प्रमुख निर्यात में समुद्री उत्पाद, चावल (बासमती और अन्य), मसाले, भैंस का मांस, चीनी आदि शामिल हैं। हाल के वर्षों में समुद्री उत्पादों का निर्यात 7 से 8 अरब अमेरिकी डॉलर रहा है। कपास का निर्यात लगभग 6.8 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। चावल (बासमती और अन्य) अब भी एक प्रमुख निर्यात कमोडिटी है। इसका हालिया निर्यात आंकड़ा 10 अरब डॉलर के आसपास है। भैंस के मांस का निर्यात अपेक्षाकृत स्थिर रहा है, जो 3.17 से 3.74 अरब डॉलर के बीच है। ताजे फल मुश्किल से शीर्ष 10 में जगह बना पाते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कृषि उत्पादों के निर्यात में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी 2014-15 में 13.7% से बढ़कर 2023-24 में 23.4% हो गई है। प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों का निर्यात 2018-19 के लगभग 6 अरब डॉलर से बढ़कर 2023-24 में 10.9 अरब डॉलर हो गया है।
हालांकि, जलवायु परिवर्तन के दबाव, घटते भूजल स्तर और वैश्विक बाजार में बदलावों को देखते हुए भारत के लिए अपनी कृषि निर्यात रणनीति को नए सिरे से परिभाषित करना आवश्यक है। वर्तमान निर्यात धान जैसी जल-प्रधान फसलों पर आधारित है। इसे धीरे-धीरे पोषण से भरपूर, आर्थिक रूप से लाभकारी और पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ विकल्पों की ओर मोड़ना होगा।
कृषि निर्यात में सतत विकास के लिए वस्तुओं का मिश्रण कैसे बदलना चाहिए?
धान का मामला
चावल दशकों से भारत का मुख्य कृषि निर्यात उत्पाद रहा है। हालांकि धान की खेती की पारिस्थितिक लागत की स्क्रूटनी अब बढ़ रही है। एक किलो धान के लिए 4,000–5,000 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। इस तरह यह पानी की कमी वाले राज्यों के लिए सस्टेनेबल नहीं रह जाता है। लगातार एक ही फसल उगाने से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी और उत्पादकता में गिरावट आती है। इसके अलावा, धान के खेत मीथेन गैस का एक प्रमुख स्रोत हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि संबंधी स्ट्रेस बढ़ने के चलते धान निर्यात पर निर्भर रहना अब दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ नहीं है। अब नीति और बाजार स्तर पर कम निवेश और अधिक उत्पादन देने वाली फसलों की ओर जाने पर आम सहमति बन रही है।
मिलेट: सुपरफूड क्रांति
मोटे अनाज (मिलेट्स) सस्टेनेबल खेती के प्रतीक बनकर उभरे हैं। 2023-24 में भारत ने 1.46 लाख टन मोटे अनाज का निर्यात किया, जिसकी कीमत 7.1 करोड़ डॉलर थी। इनमें ज्वार, रागी, बाजरा और प्रोसेस्ड मिलेट स्नैक्स प्रमुख थे (स्रोत: एपीडा)। मिलेट्स के लिए धान की तुलना में 70% कम पानी की जरूरत पड़ती है। ये कीट-प्रतिरोधी होते हैं और शुष्क मिट्टी में भी पनपते हैं। साथ ही ये ग्लूटन-मुक्त, फाइबर, मिनरल्स और प्रोटीन से भरपूर होते हैं- जो स्वास्थ्य के प्रति जागरूक वैश्विक उपभोक्ताओं के लिए आदर्श हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष घोषित करने से यूरोप, उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी एशिया जैसे नए बाजार खुले हैं। इस गति को अब ब्रांडिंग, जीआई टैगिंग और ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन के माध्यम से संस्थागत रूप देना जरूरी है।
मक्का: विविध मांग वाला उत्पाद
मक्का अब खाद्य, चारा, स्टार्च और बायोफ्यूल जैसे क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में प्रयोग किया जा रहा है। वित्त वर्ष 2023-24 में भारत ने 14.4 लाख टन मक्का निर्यात किया, जिसकी कीमत 44 करोड़ डॉलर थी। बांग्लादेश, वियतनाम और नेपाल से इसकी बहुत मांग देखी गई। इस फसल के लिए भी कम पानी की आवश्यकता होती है और यह विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में आसानी से अनुकूलित हो जाती है। कटाई के बाद सुखाने की व्यवस्था, बेहतर कृषि तकनीक और अनुबंध खेती को बढ़ावा देकर भारत की स्थिति को और सुदृढ़ किया जा सकता है।
कपास: मूल्य संवर्धन आगे बढ़ने का रास्ता
पिछले 7-8 वर्षों में भारत से कपास का निर्यात 5 से 10 अरब अमेरिकी डॉलर के बीच रहा है। हमारे किसान वैश्विक मूल्य अस्थिरता के साथ ब्राजील व अमेरिका से प्रतिस्पर्धा का भी सामना करते हैं। प्रतिस्पर्धा की क्षमता बढ़ाने के लिए भारत को कच्चे कपास के निर्यात से हटकर ऑर्गेनिक कपास, यार्न और टेक्निकल टेक्सटाइल जैसे मूल्य-संवर्धित क्षेत्रों की ओर बढ़ना होगा। ‘सस्टेनेबल इंडियन कॉटन’ ब्रांडिंग पहल से बेहतर मूल्य पाने में मदद मिल सकती है।
भैंस का मांस और पशु उत्पाद
भारत भैंस मांस का विश्व में सबसे बड़ा निर्यातक है। वित्त वर्ष 2023-24 में इसका 3.74 अरब डॉलर का निर्यात हुआ। इसके प्रमुख बाजारों में वियतनाम, मलेशिया और इंडोनेशिया शामिल हैं। भारत का मांस ओआईई (OIE) और कोडेक्स (Codex) मानकों का पालन करता है, जो इसे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाता है। एशिया में विशेष रूप से बढ़ती प्रोटीन मांग को देखते हुए, बेहतर ट्रेसेबिलिटी और लॉजिस्टिक्स के साथ भारत मांस निर्यात बढ़ा सकता है। साथ ही पशु झिल्लियों, खाल और डेयरी उत्पादों (जैसे पनीर, घी) जैसी श्रेणियां भी उभर रही हैं, जिनमें प्रीमियम उत्पादों की संभावना है।
प्रसंस्कृत खाद्य की ओर बढ़ता रुझान
वित्त वर्ष 2023-24 में प्रोसेस्ड फूड्स का भारत के कुल कृषि-निर्यात में 23% से अधिक हिस्सा था। इनका करीब 10 अरब डॉलर का निर्यात किया गया। वैश्विक बाजारों में पैकेज्ड और ब्रांडेड खाद्य पदार्थों की ओर बढ़ता रुझान अब नहीं बदलने वाला है। भारत की विविध खाद्य परंपरा, कम लागत वाली मैन्युफैक्चरिंग क्षमता और बढ़ता ऑर्गेनिक सेगमेंट एक विशिष्ट बढ़त प्रदान करता है। अमेरिका जैसे बाजारों में लगभग 50% खाद्य निर्यात प्रोसेस्ड ही होते हैं। भारत में प्रोसेस्ड निर्यात की हिस्सेदारी को 40% तक बढ़ाने की संभावनाएं हैं। प्रोसेस्ड और रेडी-टू-ईट उत्पादों के रूप में केवल झींगा (श्रिम्प) निर्यात लगभग 10 अरब डॉलर तक बढ़ सकता है।
हमें किन बातों पर ध्यान देना होगा
ग्राहक सहभागिता
हमें दुनिया के शीर्ष खाद्य आयातक देशों का विश्लेषण करना होगा, उनकी स्थानीय खरीद आवश्यकताओं तथा भारतीय उत्पादों की ताकत को ध्यान में रखते हुए दोनों के बीच कमी की पहचान करनी होगी। हमें अपने वर्तमान ग्राहक आधार से आगे जाकर यूरोप, ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े और लाभकारी बाजारों में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करानी होगी।
कुछ प्रमुख देशों को लक्षित करने के बाद हमें वहां के ग्राहकों के साथ गहराई से जुड़ने में निवेश करना चाहिए। इसके लिए एपीडा जैसी सरकारी संस्था की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति की आवश्यकता हो सकती है। भारत सरकार और उद्योग (निर्यात संगठनों, कृषि व्यापारियों, नाबार्ड जैसी संस्थाओं आदि) को मिलकर उन आयातक देशों के साथ काम करना होगा, उनकी आवश्यकताओं को समझना होगा और फिर किसानों के इकोसिस्टम को उसी के मुताबिक ढालना होगा। उदाहरण के लिए, हमें यूरोपीय संघ और अमेरिका जैसे देशों में निर्यात के लिए सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी मानकों के अनुपालन पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
उत्पाद विकास
एक बार हम आयातक की आवश्यकताओं को समझ लें, तो हमें किसान के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ उसी के अनुरूप काम करना होगा। ये नए उत्पाद (जैसे एवोकाडो), नए क्लस्टर (जैसे उत्तर-पूर्व भारत) या मौजूदा क्लस्टर में नया प्रोत्साहन (जैसे अंगूर/नासिक) हो सकते हैं। यदि हम भारत के कृषि-जलवायु क्षेत्रों की विविधता देखें, तो हम कई ऐसे उत्पाद उगाते हैं जो भारत में बहुत लोकप्रिय नहीं हैं – जैसे कि रामबूटन, ड्रैगन फ्रूट, एवोकाडो आदि। यदि हमें इन उत्पादों के लिए सही बाजार से जुड़ाव मिल जाए, तो हम बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन बढ़ा सकते हैं। उत्पाद मिश्रण ऐसा होना चाहिए कि ट्रेंड का प्रति इकाई मूल्य वर्तमान स्तर से बढ़ सके।
सप्लाई चेन की क्षमता
उत्पादन प्रक्रिया सुव्यवस्थित होने बाद अगला कदम यह सुनिश्चित करना होगा कि पूरी सप्लाई चेन में इन्फ्रास्ट्रक्चर में कहीं कमी न हो। इसमें खेत स्तर पर सौर ऊर्जा चालित कोल्ड स्टोरेज यूनिट से लेकर, कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं, पैक-हाउस, रेफ्रिजेरेटेड ट्रक, उन्नत पैकेजिंग और प्रोसेसिंग यूनिट का निर्माण आवश्यक है।
प्रसंस्कृत खाद्य वस्तुओं की ग्राहक आवश्यकताओं को देखते हुए हमें बड़े पैमाने पर प्रोसेसिंग फैक्टरियों में निवेश करना होगा। भारत की जो कृषि उत्पादन क्षमता है, उसे देखते हुए निर्यातोन्मुख प्रसंस्करण के लिए आसानी से दस मेगा फूड पार्क स्थापित किए जा सकते है। इनमें गोदाम से लेकर गुणवत्ता परीक्षण और निर्यात डॉक्यूमेंटेशन तक की एकीकृत सुविधाएं शामिल होनी चाहिए। हमें पर्याप्त परीक्षण सुविधाओं (जैसे वैश्विक मान्यताप्राप्त प्रमाणपत्रों – GAP, HACCP, ऑर्गेनिक आदि के लिए) की भी आवश्यकता है। ट्रीटमेंट फैसिलिटी (जैसे भाप उपचार) भी स्थापित की जानी चाहिए ताकि उत्पाद वैश्विक फाइटोसैनेटरी मानकों को पूरा कर सकें।
कृषि निर्यातकों की एक आम समस्या है हवाई अड्डों या समुद्री बंदरगाहों तक कनेक्टिविटी की कमी। सभी बंदरगाह कृषि निर्यात को संभालने में सक्षम नहीं हैं। सप्लाई चेन को देखते हुए खेत से लेकर ग्राहक के पास उत्पाद पहुंचने तक की हर कड़ी का गंभीर विश्लेषण जरूरी है। नए बुनियादी ढांचे में निवेश की आवश्यकता हो सकती है। परिवहन लागत पर प्रोत्साहन और सब्सिडी देकर इसे सुदृढ़ करना होगा। सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) में निवेश प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किसान उत्पादक संगठनों को अपनी यूनिट स्थापित करने के लिए सॉफ्ट लोन और अनुदान देना एक और तरीका है। निर्यात क्रेडिट गारंटी निगम (ईसीजीसी) की योजना का विस्तार किया जाना चाहिए, जिसमें कृषि निर्यात पर विशेष ध्यान हो। सरकार को वायबिलिटी गैप फंडिंग का उपयोग करके महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे में निवेश को और आकर्षक बनाना चाहिए।
विमान की जगह समुद्री मार्ग से माल ढुलाई से लागत कम होती है और प्रदूषण भी कम होता है। समुद्री मार्ग बड़ी मात्रा में सामान को लंबी दूरी तक ले जाने के लिए किफायती विकल्प है। इससे प्रति इकाई शिपिंग लागत में कमी आती है। इसके अतिरिक्त इसमें कार्बन उत्सर्जन भी कम होता है। यह वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने और सस्टेनेबल सप्लाई चेन को बढ़ावा देने के प्रयासों के अनुरूप है। इसके लिए खेत से लेकर पैकेजिंग और लॉजिस्टिक्स तक उचित प्रक्रियाएं विकसित करनी होंगी।
देश के प्रमुख कृषि उत्पादन क्षेत्रों में 50 एकीकृत निर्यात लॉजिस्टिक्स हब का विकास निर्यात को एक बड़ा प्रोत्साहन दे सकता है। इन केंद्रों में संग्रह करने, छंटाई, पैकेजिंग, प्री-कूलिंग और कस्टम क्लियरेंस जैसी एंड-टू-एंड सेवाएं उपलब्ध होनी चाहिए।
यदि इन कार्यों के लिए सरकार की ओर से किसी तकनीकी निवेश की आवश्यकता हो तो उसमें तेजी लाई जानी चाहिए। इसमें उपग्रह डेटा और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) सेंसर का उपयोग कर समय पर और सटीक कृषि परामर्श सुनिश्चित करना भी शामिल है। साथ ही एक केंद्रीय वॉर रूम की जरूरत होगी जो वैश्विक घटनाक्रम, मौसम के पैटर्न में बदलाव और खेतों में नए प्रोडक्शन ट्रेंड की रियल-टाइम जानकारी प्रदान कर सके।
जनशक्ति का विकास
हम जो भी दिशा अपनाएं, हमें पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में सचेत रूप से निवेश करना होगा। नौकरशाहों को वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठ तरीकों, खाद्य/एफएमसीजी क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के संचालन के तरीकों और अन्य सरकारों (जैसे चीन) द्वारा अपनाए गए तरीकों के बारे में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। एक्सटेंशन कर्मियों और कृषि विज्ञान केंद्र के कर्मचारियों को वैश्विक मानकों, नए तरीकों और नई विधियों को अपनाते समय मौसम की अनिश्चितता से कैसे निपटना है, इस पर प्रशिक्षण देना आवश्यक है।
स्वाभाविक रूप से, यदि ग्राहकों की तरफ से कोई नई मांग आती है, या प्रक्रियाओं या गुणवत्ता मानकों का पालन करना आवश्यक होता है, तो सबसे अधिक प्रशिक्षण किसान को देना होगा। इन सभी विभिन्न हितधारकों को नई तकनीकी संभावनाओं के बारे में भी प्रशिक्षण देने की जरूरत पड़ेगी।
निष्कर्ष: मात्रा से मूल्य की ओर
भारत की कृषि निर्यात नीति को मात्रा-आधारित से मूल्य-आधारित दृष्टिकोण की ओर लेकर जाने की जरूरत है। चावल या चीनी जैसे पारंपरिक निर्यात में धीरे-धीरे बढ़ोतरी की बजाय, हमें टिकाऊ, जलवायु-सहिष्णु और अधिक ग्रोथ वाली कमोडिटी- जैसे मोटे अनाज, मक्का, भैंस का मांस, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, कपास वैल्यू चेन और बागवानी- में निवेश करना चाहिए। निर्यात को दोगुना करना किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य में सीधे योगदान देगा। इसके अतिरिक्त देश का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी विकसित होगा।
100 अरब डॉलर के कृषि निर्यात लक्ष्य तक पहुंचना कोई दूर का सपना नहीं है। समन्वित सुधार, रणनीतिक निवेश और केवल इरादों के बजाय क्रियान्वयन पर निरंतर ध्यान केंद्रित करके हम इस सपने को वास्तविकता में बदल सकते हैं।
(सिराज ए. चौधरी अगवाया एलएलपी में पार्टनर हैं। एम. रामाकृष्णन प्राइमस पार्टनर्सके मैनेजिंग डायरेक्टर हैं)