पूंजीगत व्यय के लिए तरसता कृषि क्षेत्र, पिछले बजट में 7.5 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्च में कृषि के लिए सिर्फ 138 करोड़

कृषि क्षेत्र की संकटपूर्ण स्थिति को देखते हुए सालाना प्रति किसान 6000 रुपए की मदद निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बड़े निवेश की दरकार है। दिल्ली के कृषि भवन और साउथ ब्लॉक में बैठने वाले नीति निर्माताओं की प्राथमिकताओं में यह कहीं नहीं दिखता है

पूंजीगत व्यय के लिए तरसता कृषि क्षेत्र, पिछले बजट में 7.5 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्च में कृषि के लिए सिर्फ 138 करोड़

केंद्रीय बजट में विभिन्न मदों में राशि आवंटन से ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि उस राशि का व्यय कैसे किया जाता है। करदाता के पैसे का इस्तेमाल राजस्व मद में (सरकार के रोज के कामकाज) किया जाता है अथवा पूंजीगत खर्च (भविष्य के लिए परिसंपत्ति निर्माण) के रूप में। दुख की बात यह है कि जब बात कृषि और ग्रामीण क्षेत्र की आती है तो बजट में खर्च की क्वालिटी पर ध्यान नहीं दिया जाता है। सालों से, बजट-दर-बजट यही हो रहा है। इसका अर्थ यह है कि कृषि में कोई नया निवेश नहीं किया जा रहा है।

वर्ष 2022-23 के बजट की इसलिए प्रशंसा हुई थी कि उसमें 7.50 लाख करोड़ रुपए के पूंजीगत खर्च का प्रावधान किया गया था। यह केंद्र सरकार के कुल करीब 40 लाख करोड़ रुपए के खर्च का 20% है। निस्संदेह यह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का प्रशंसनीय कदम था। लेकिन कृषि, जिसमें उर्वरक, पशुपालन, फिशरीज और ग्रामीण क्षेत्र शामिल हैं तथा पंचायती राज के लिए केंद्रीय बजट जो कितना हिस्सा पूंजीगत खर्च के लिए रखा गया? यह संख्या बड़ी ही निराशाजनक है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन मंत्रालयों और विभागों के लिए पूंजीगत व्यय का कोई प्रावधान ही नहीं था। वर्ना 7.5 लाख करोड़ रुपए के कुल पूंजीगत व्यय में से इन मंत्रालयों और विभागों के लिए सिर्फ 138 करोड़ रुपए का प्रावधान कैसे किया जा सकता है?  इसका अर्थ है कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के संबंधित विभागों उर्वरक, पशुपालन, मत्स्यपालन,ग्रामीण विकास और पंचायती राज के लिए जो 3.83 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है वह लगभग सारा ही राजस्व व्यय के लिए और पूंजी निर्माण के लिए संसाधनों की हिस्सेदारी न के बराबर ही बचती है। 

हम सिर्फ यह उम्मीद कर सकते हैं कि 2022-23 के बजट में जो किया गया वह 2023-24 के बजट में नहीं दोहराया जाएगा। हालांकि 2024 के आम चुनावों से पहले यह आखिरी पूर्ण बजट होगा, इसलिए इसमें लोकलुभावन कदमों की घोषणा की भी अपेक्षा है। हम पीएम किसान सम्मान और मनरेगा योजना में कुछ बदलाव देख सकते हैं। कृषि क्षेत्र की संकटपूर्ण स्थिति को देखते हुए सालाना प्रति किसान 6000 रुपए की मदद निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बड़े निवेश की दरकार है। दिल्ली के कृषि भवन और साउथ ब्लॉक में बैठने वाले नीति निर्माताओं की प्राथमिकताओं में यह कहीं नहीं दिखता है।

कृषि क्षेत्र में ड्रोन और स्टार्टअप की इन दिनों काफी चर्चा है। कंपनियों को सरकार से सब्सिडी लेकर ड्रोन बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। ये ड्रोन फसलों पर कीटनाशकों तथा तरल उर्वरकों का छिड़काव करेंगे। सुनने में यह बड़ा ही अच्छा और अग्रगामी कदम लगता है, लेकिन गन्ना, गेहूं, चावल तथा अन्य अनेक फसलों के खेतों पर ड्रोन उड़ाने से पहले हमें व्यापक पायलट प्रोजेक्ट और फील्ड ट्रायल करना चाहिए। विशेषज्ञ इसकी मंशा पर सवाल नहीं उठा रहे, लेकिन उनकी चिंता यह है कि एक ऊंचाई से कीटनाशकों का छिड़काव करने पर हुए पौधों के तने अथवा जड़ तक वे कैसे पहुंचेंगे। कीट सिर्फ पत्तों पर नहीं बैठते, वे पौधों के निचले हिस्से को भी नष्ट करते हैं। इससे पहले कि गांव-गांव में किसान ड्रोन से हानिकारक रसायनों का छिड़काव शुरू करें, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तथा अन्य प्रतिष्ठित सरकारी संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों को इसके बारे में सोचना चाहिए।

कृषि क्षेत्र के लिए भी प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) का सुझाव दिया जा रहा है। अभी यह स्कीम 13 विभिन्न मैन्युफैक्चरिंग उद्योग सेक्टर के लिए घोषित की गई है। इनके लिए सरकार ने 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक के इंसेंटिव की घोषणा की है। डेयरी, फिशरीज तथा पशुपालन समेत पूरे कृषि क्षेत्र को उद्योग के लिए घोषित पीएलआई स्कीम से बड़े इंसेंटिव की जरूरत है। कम से कम मिलेट फसलों से इसकी शुरुआत की जा सकती है। सरकार संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में मिलेट फसलों को प्रमोट कर रही है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को मिलेट वर्ष घोषित किया है।

हम शहरों में कचरे के ढेर और कचरा प्रबंधन की समस्या के बारे में बहुत सुनते हैं, लेकिन गांव में कचरा प्रबंधन की पूरी तरह अनदेखी की जाती है। केंद्र और राज्य सरकारें गांव में घर-घर नल से जल पहुंचाने पर काम कर रही हैं। लेकिन गांव में सीवेज का पानी फैलता रहता है जिसमें खतरनाक प्लास्टिक का कचरा भी शामिल होता है। गैर सरकारी संगठनों और स्टार्टअप की मदद से यह समस्या अभी ग्राम स्तर पर सुधारने योग्य है। जरूरी नहीं कि स्टार्टअप में प्राइवेट इक्विटी निवेश हो अथवा उन्हें सरकार की तरफ से मदद मिले। हमें ग्राम स्तर पर ऐसे उद्यमियों की जरूरत है जो कचरे की रीसाइक्लिंग और सीवेज ट्रीटमेंट जैसे कार्य कर सकें।

जब बात बजट की आती है तो अवास्तविक और कम आवंटन से बचना चाहिए। पिछले साल बजट की घोषणा के समय अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऊर्जा और कच्चे माल की कीमतें काफी ज्यादा थीं। फिर भी उर्वरक सब्सिडी के लिए सिर्फ 1.05 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया, जो अनुमानित जरूरत से बहुत कम था। इसका नतीजा यह हुआ कि हम लगातार खाद्य और उर्वरक सब्सिडी के बजट प्रावधान से अधिक होने की चर्चा सुनते रहे। बाद में संसद को एक लाख करोड़ रुपए की सप्लीमेंट्री ग्रांट पारित करनी पड़ी। इसे बजट बनाने का अच्छा तरीका नहीं कहा जा सकता है।

उपभोक्ताओं के हाथ में पैसा देना ताकि खपत बढ़े और इंडस्ट्री द्वारा निवेश बढ़ाना ताकि उत्पादन में वृद्धि हो- भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7 फ़ीसदी से ऊपर रखने के लिए इस तरह के मंत्र दिए जा रहे हैं। इस मंत्र में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी शामिल किया जाना चाहिए, जो अभी नहीं है।

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