देश को खाद्य सुरक्षा की आत्मनिर्भरता देने वाले कृषि क्षेत्र और किसान को चाहिए आर्थिक आत्मनिर्भरता

पिछले साल देश का खाद्यान्न उत्पादन 30 करोड़ टन को पार कर गया। यह आजादी के 75 साल में देश के लिए कृषि क्षेत्र और किसानों के योगदान को दर्शाता है। खाद्य सुरक्षा किसी भी देश के लिए कितनी अहम है, वह इस साल फरवरी में यूक्रेन और रूस के युद्ध के बाद दुनिया के देशों और हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका ने भी महसूस किया है

देश को खाद्य सुरक्षा की आत्मनिर्भरता देने वाले कृषि क्षेत्र और किसान को चाहिए आर्थिक आत्मनिर्भरता

आजादी के बाद पहली जनगणना के मुताबिक 1951 में भारत की जनसंख्या 36.11 करोड़ थी। उस साल देश का खाद्यान्न उत्पादन मात्र 5.082 करोड़ टन था। साल 2021 में जनगणना तो नहीं हुई लेकिन देश की आबादी करीब 140 करोड़ आंकी जा रही है। इस तरह आजादी के बाद से देश की आबादी करीब चार गुना हो चुकी है। पहले कई दशक तक खाद्यान्न आयात पर निर्भर रहने वाले देश की आज अपनी चार गुना हो चुकी जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा देने के साथ ही दुनिया के बड़े खाद्य निर्यातकों में गिनती हो रही है। पिछले साल देश का खाद्यान्न उत्पादन 30 करोड़ टन को पार कर गया। यह आजादी के 75 साल में देश के लिए कृषि क्षेत्र और किसानों के योगदान को दर्शाता है। खाद्य सुरक्षा किसी भी देश के लिए कितनी अहम है, वह इस साल फरवरी में यूक्रेन और रूस के युद्ध के बाद दुनिया के देशों और हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका ने भी महसूस किया है। 

बात केवल खाद्यान्न उत्पादन की ही नहीं है बल्कि दूध उत्पादन से लेकर कई व्यावसायिक फसलों कपास और चीनी उत्पादन में भी हमने बड़ी सफलताएं हासिल की हैं। लेकिन यह सब बहुत आसानी से हो गया हो ऐसा नहीं है। आजादी के समय संसाधनों की बहुतायत तो नहीं थी लेकिन इन उपलब्धियों के लिए दृष्टि जरूर थी और उस पर सरकार ने नीतियां बनाकर अमल करना शुरू किया जिसके नतीजे सामने आये। मसलन 1951 में देश में सिंचित कृषि भूमि केवल 18 फीसदी थी। खाद्यान्न उत्पादकता मात्र 522 किलो प्रति हैक्टेयर थी और कुल 97.32 लाख हैक्टेयर पर खाद्यान्न उत्पादन हो रहा था। खाद्यान्न उत्पादन का रकबा 2020-21 में 129.34 लाख हैक्टेयर पर पहुंचा है लेकिन 2.386 टन प्रति हैक्टेयर की उत्पादकता से इस साल खाद्यान्न उत्पादन 30.86 करोड़ टन पर पहुंच गया। खाद्यान्न उत्पादन में लगातार वृद्धि की वजह से ही ऐसा पहली बार हुआ है कि देश में कोरोना जैसी महामारी के दौरान  किसी के भी भूखे रहने की स्थिति पैदा नहीं हुई क्योंकि सरकार के पास पर्याप्त खाद्यान्न उपलब्ध था। आजादी के पहले बंगाल में उसके बाद एक बार बिहार के अकाल के समय देश को भयावह मानवीय त्रासदी से गुजरना पड़ा था। 

यह सब बहुत आसान नहीं था। आजादी के बाद से ही सरकार ने जिस तरह कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश किया यह उसके चलते ही संभव हुआ। नेहरू के प्रधानमंत्री कार्यकाल में ही देश में पंतनगर, हैदराबाद और भुवनेश्वर में कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। कृषि विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के विकास का सिलसिला जारी रहा। कृषि में शोध और उसके लिए जरूरी ढांचागत सुविधाओं पर निवेश हुआ। इसके साथ ही भाखड़ा नांगल से लेकर हीराकुंड और नागार्जुन सागर जैसे बांधों के जरिये सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाया गया। ऐसे में छठे दशक में जब अधिक उत्पादकता वाली गेहूं और चावल की नई प्रजातियों के जरिये देश में हरित क्रांति पर काम शुरू हुआ तो पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के सिंचाई सुविधाओं वाले क्षेत्रों ने तुरंत नतीजे देने शुरू किए और देश को खाद्यान्न आत्मनिर्भरता प्रदान की। इसके बाद इसका दायरा पश्चिम बंगाल, मध्य भारत और पश्चिमी भारत के साथ देश के दूसरे हिस्सों तक पहुंचा।

कृषि शोध एवं विकास पर निवेश करने के साथ ही नई प्रजातियों के लिए किसानों को इनपुट मैटीरियल उपलब्ध कराने और सरकारी खरीद का तंत्र तैयार हुआ। सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाने पर काम हुआ और यह 1951 के 18 फीसदी से बढ़कर 2018-19 में 54.32 फीसदी पर पहुंच गई। यह बाद अलग है कि आजादी के शुरुआती दशकों में जिस तेजी से सिंचाई क्षेत्रफल बढ़ाने पर काम हुआ, हाल के दशकों में यह गति काफी धीमी रही है। मसलन साल 2014-15 में देश में सिंचित क्षेत्रफल 53.06 फीसदी था लेकिन 2018-19 तक यह 54.32 फीसदी पर ही पहुंचा है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था अस्तित्व में आई और भारतीय खाद्य नियम, सेंट्रल वेयर हाउसिंग कारपोरेशन और स्टेट वेयर हाउसिंग कारपोरेशन की स्थापना के जरिये भंडारण सुविधाएं स्थापित हुई। इनके जरिये सरकारी खरीद की व्यवस्था शुरू हुई। नई प्रजातियों के लिए सिंचाई के साथ उर्वरक जरूरी थे। इसके लिए जहां सार्वजनिक क्षेत्र में उर्वरक कारखाने स्थापित हुए, वहीं इफको जैसी सहकारी संस्था अस्तित्व में आई। कई दशकों तक प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट कोआपरेटिव सोसाइटीज ने किसानों को संस्थागत कर्ज मुहैया कराने में भूमिका निभाई। एक समय सहकारी क्षेत्र की किसानों को कर्ज में हिस्सेदारी 40 फीसदी तक थी। वहीं खाद्य सुरक्षा के इस दौर में ही कृषि उत्पाद मंडी समिति (एपीएमसी) कानून के तहत मंडियां स्थापित हुईं और इन पर निवेश हुआ। इसी दौरान देश में आपरेशन फ्लड लागू हुआ और नेशनल डेयरी डेवलपमेंट कारपोरेशन (एनडीडीबी) जैसी संस्थाएं स्थापित हुईं जिनके जरिये देश भर में अमूल मॉडल लागू कर दूध उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए काम किया गया। आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है।

यहां तक तो सब ठीक है क्योंकि इन उपलब्धियों का देश और नागरिकों को फायदा हुआ लेकिन कृषि क्षेत्र की मौजूदा स्थिति को इन उपलब्धियों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता है। हरित क्रांति वाले क्षेत्रों में उत्पादकता में स्थिरता आ गई है। कृषि क्षेत्र पर सार्वजनिक निवेश लगातार कम होता गया है। शोध पर खर्च के मामले में स्थिति काफी कमजोर है। हम दुनिया के विकसित देशों में कृषि में हो रहे तकनीकी उपयोग और शोध के मामले में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। किसान की आय लगातार कमजोर बनी हुई है और उसकी सामाजिक हैसियत काफी घटी है क्योंकि अर्थव्यवस्था के बाकी क्षेत्रों और सार्वजनिक सेवाओं में काम कर रहे लोगों और किसानों की आय के बीच अंतर तेजी से बढ़ा है। भले ही सरकार कुछ भी दावे करे लेकिन हकीकत यह है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के बीच आय और जीवन की सुविधाओं का अंतर बहुत अधिक बढ़ गया है। जिसके चलते शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की खाई बढ़ती जा रही है। 

जलवायु परिवर्तन से लेकर मिट्टी की सेहत और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आई है। जलवायु परिवर्तन का कृषि पर सबसे अधिक असर हमने 2021-22 कृषि साल में देखा है। इस साल में सितंबर, अक्तूबर, नवंबर, दिसंबर और जनवरी में  लगातार पांच माह अधिक बारिश हुई। वहीं मार्च के मध्य में अचानक तापमान में बढ़ोतरी हुई। इसका नतीजा गेहूं की फसल के उत्पादन में जबरदस्त गिरावट के रूप में दिखा वहीं सरसों की फसल दिसंबर और जनवरी की अधिक बारिश के चलते फ्लावरिंग के समय प्रभावित हुई और उसका उत्पादन भी गिरा। इसके पहले खरीफ सीजन मेंं अधिक बारिश और बाढ़ ने प्याज और टमाटर जैसी सब्जियों की फसलों को भारी नुकसान पहुंचाया। इस सबके बावजूद सरकार ने कृषि में तीन फीसदी विकास दर का दावा किया है लेकिन यह जमीनी हकीकत से दूर है।  सवाल यह है कि क्या हम जलवायु परिवर्तन के कृषि पर पड़ने वाले असर को कम करने के लिए काम कर रहे हैं इसके लिए जरूरी शोध पर निवेश बढ़ा रहे हैं, फिलहाल तो ऐसा नहीं दिख रहा है। लंबे समय से देश के कृषि वैज्ञानिक कृषि जीडीपी का एक फीसदी शोध पर निवेश करने की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन जिस तरह किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए एक गंभीर चुनौती की तरह सामने आ रहा है उसके लिए समय रहते कदम उठाने की जरूरत है। 

किसान की लागत बढ़ रही है जबकि कृषि में निवेश पर रिटर्न काफी कम होने के साथ ही सार्वजनिक निवेश की कमी के चलते कृषि क्षेत्र में पूंजी निर्माण की दर बहुत कम है। जिस तरह छठे, सातवें और आठवें दशक में देश में कृषि विपणन कि ढांचागत सुविधाओं पर निवेश हुआ वह अब लगभग बंद हो गया है। जो लोग के डिजिटल मार्केटिंग और ई-नाम जैसे विकल्पों में इसका हल देख रहे हैं उन्हें हकीकत को पहचानने की जरूरत है। इसलिए नई परिस्थितियों में सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी सबसे अहम है और इसकी भरपाई निजी निवेश से नहीं हो सकती है। कुछ चुनिंदा फसलों के मामले में निजी क्षेत्र निवेश कर सकता है लेकिन मुख्य फसलों के मामले में सार्वजनिक निवेश का कोई विकल्प नहीं है। 

देश के कृषि क्षेत्र को एक विजन की जरूरत है जिस पर समग्र रूप में काम किया जाना चाहिए। केवल कुछ फसलों के एमएसपी बढ़ाने या कीमतों में उतार-चढाव के बाद लागू होने वाले प्रतिक्रियात्मक कदम कृषि और किसानों का भविष्य नहीं सुधार सकते हैं। अब भी देश के 46 फीसदी से अधिक लोग कृषि क्षेत्र में ही रोजगार पाते हैं। आंकड़ों के मुताबिक  1951 में देश की 36.11 करोड़ आबादी में से 82.7 फीसदी ग्रामीण आबादी थी। देश में कुल में 6.99 करोड़ किसान थे। वहीं 2011 की जनगणना के मुताबिक किसानों की संख्या 11.88 करोड़ पर पहुंच गई जो जोत को छोटे होता आकार का नतीजा है। इसके बावजूद देश के अधिकांश लोग अभी भी कृषि में ही रोजगाररत हैं जबकि 2021-22  में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी 18.6 फीसदी है। वहीं  साथ ही अर्थव्यवस्था के आंकड़े साबित करते हैं कि छह फीसदी से अधिक की वृद्धि दर के बावजूद मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार वृद्धि दर एक फीसदी से भी कम है। यानी कृषि से कामगारों को औद्योगिक इकाइयों में शिफ्ट करने का ख्वाब भी अब खत्म होता जा रहा है। ऐसे में कृषि क्षेत्र के लिए एक नये विजन की जरूरत है। 

कृषि व सहयोगी क्षेत्र में ही लोगों के लिए काम के अवसर पैदा करने होंगे। जैसा कि नीति आयोग के सदस्य प्रोफेसर रमेश चंद का कहना है कि अब हमें फार्म फैक्टरी के कंसेप्ट पर काम करना होगा। आधुनिकतम तकनीक का उपयोग कर फार्म को फैक्टरी में कनवर्ट करने के आइडिया पर काम करना होगा। जब हम न्यू इंडिया के शोर में डूबे जा रहे हैं वहां हम न्यू एग्रीकल्चर पर काम क्यों नहीं कर रहे, यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। कृषि क्षेत्र में मौजूदा चुनौतियों का सामना करने के लिए एक नई दृष्टि की जरूरत है जिसके केंद्र में किसान की आर्थिक आत्मनिर्भरता हो। 

आजादी के बाद के कुछ दशकों में राजनेताओं ने दृष्टि और सोच के जरिये हरित क्रांति का सपना साकार किया और देश चार गुना आबादी की चुनौती का सामना करते हुए सही मायने में खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भरता हासिल कर सका। उसी तरह की सोच के जरिये आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर किसान का लक्ष्य हासिल करना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। उसके लिए यथास्थिति में बड़े बदलाव की जरूरत है न कि बदलाव के नाम पर कामचलाऊ फैसलों की। 

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