कृषि सब्सिडी पर डब्लूटीओ में विकासशील देशों की निष्क्रियता और इसका परिणाम

विकासशील देशों के हिमायती, वह भी खासतौर से भारत जैसे देश कृषि समझौते की अन्यायपूर्ण सब्सिडी को नए सिरे से संतुलित बनाने के प्रयासों में पीछे छूट गए जान पड़ते हैं। यही नहीं, संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में जुटे अपने किसानों के हितों की रक्षा करने में भी उनके प्रयासों में कमी झलकती है।

कृषि सब्सिडी पर डब्लूटीओ में विकासशील देशों की निष्क्रियता और इसका परिणाम

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के कृषि समझौते में एग्रीकल्चर सब्सिडी का मुद्दा सबसे विवादास्पद मुद्दों में एक रहा है। इस विषय पर विकसित और विकासशील देश एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत रहे हैं। विकासशील देशों का तर्क है कि विकसित देश बड़े पैमाने पर कृषि सब्सिडी देते हैं। इसकी मदद से कई महत्वपूर्ण फसलों के ग्लोबल बाजार में उन्होंने अपना बड़ा हिस्सा बना लिया है। इन देशों के लिए यह दोधारी तलवार की तरह हो गया है। एक तरफ तो सब्सिडी के कारण बड़े एग्री बिजनेस अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने प्रोडक्ट को डंप करते हैं, जिससे विकासशील देशों के छोटे किसान वंचित रह जाते हैं। उन्हें उन बाजारों में पहुंचने का अवसर नहीं मिल पाता है, जबकि 1995 के डब्ल्यूटीओ के उरुग्वे दौर की वार्ता में उनके लिए समान अवसरों की बात कही गई थी। दूसरी बात यह है कि सब्सिडी का इस्तेमाल करके एग्री बिजनेस विकासशील देश के बाजारों का आसानी से दोहन कर सकते हैं। इस तरह ये इन देशों के कृषक समुदाय की आजीविका को विपरीत रूप से प्रभावित करते हैं। इसका असर इन देशों की घरेलू खाद्य सुरक्षा पर पड़ सकता है।

अमेरिका में कॉटन पर जो सब्सिडी दी जाती है, उसके विपरीत प्रभावों के बारे में ब्राजील ने विश्व व्यापार संगठन की विवाद निस्तारण बॉडी के सामने अपनी बात रखी थी। ब्राजील का कहना था कि कपास किसानों को अमेरिका की तरफ से जो सब्सिडी भुगतान और गारंटी दी जा रही है, वह डब्लूटीओ के कृषि समझौते (एओए) में सब्सिडी के प्रावधानों के विपरीत है। इस सब्सिडी की वजह से बाजार में विकृति पैदा हुई और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कपास के दामों में गिरावट आई। इसके अलावा अमेरिका निर्यात सब्सिडी भी दे रहा है जबकि डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में इसकी बिल्कुल अनुमति नहीं है।

अमेरिका और ब्राजील के बीच विवाद ने विकासशील देशों को यह मौका दिया कि इस तरह की असमानता वाली सब्सिडी को दूर करने के लिए वह कृषि समझाते में संशोधन की मांग कर सकें। बेनिन, बुर्किना फासो, चाड और माली को कॉटन 4 नाम से जाना जाता है। पश्चिम अफ्रीका के ये देश विदेशी मुद्रा आय के लिए कपास निर्यात पर ही बड़े पैमाने पर निर्भर करते हैं। अमेरिकी सब्सिडी के बाद वहां पैदा हुई दुर्दशा को भी सामने लाया गया। इन सबको दोहा दौर की वार्ता में व्यापक रूप से शामिल किया गया। उसमें तय किया गया कि डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में नियम इस तरह होंगे कि विकासशील देश अपने विकास की जरूरतों को प्रभावी तरीके से लागू कर सकें। इसमें खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास भी शामिल है।

डब्ल्यूटीओ के इतिहास में पहली बार विकासशील देशों ने एक समूह के रूप में बात की ताकि संबंधित नियमों को उनके हितों की सुरक्षा को देखते हुए संशोधित किया जा सके। एक तरफ तो उन्होंने विकसित देशों की सब्सिडी कम करने का दबाव दिया ताकि ग्लोबल मार्केट में पैदा हुई विकृति को कम किया जा सके, दूसरी तरफ सब्सिडी की व्यवस्था में अतिरिक्त लचीलापन लाने की बात हुई जिससे विकासशील देश अपनी उभरती चुनौतियों, खासकर खाद्य एवं आजीविका की सुरक्षा एवं ग्रामीण विकास से निपट सकें।

लेकिन डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में इन संशोधनों के दो दशक बाद पूरा एजेंडा जेनेवा में बातचीत की मेज से बाहर चला गया लगता है। विकासशील देशों के हिमायती, वह भी खासतौर से भारत जैसे देश कृषि समझौते की अन्यायपूर्ण सब्सिडी को नए सिरे से संतुलित बनाने के प्रयासों में पीछे छूट गए जान पड़ते हैं। यही नहीं, संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में जुटे अपने किसानों के हितों की रक्षा करने में भी उनके प्रयासों में कमी झलकती है। सवाल उठता है कि इन दोनों मुद्दों पर विकासशील देशों की निष्क्रियता उनके अपने हितों को किस तरह प्रभावित कर रही है?

पहली बात तो यह कि विकासशील देशों ने विकसित देशों की तरफ से बाजार को विकृत करने वाली सब्सिडी पर लगातार निगरानी करना बंद कर दिया है, जबकि पहले वे ऐसा कर रहे थे। डब्ल्यूटीओ में अमेरिका के खिलाफ ब्राज़ील कपास पर सब्सिडी का जो मुद्दा लेकर गया था वह इसी निगरानी का परिणाम था। विकासशील देशों की तरफ से सक्रियता में कमी इस हद तक चली गई है कि उन्होंने विकसित देशों से यह कहना भी बंद कर दिया है कि वे समयबद्ध तरीके से अपने सब्सिडी नोटिफिकेशन को जमा करें। इसी नोटिफिकेशन से कृषि सब्सिडी के बारे में आवश्यक सूचनाओं की जानकारी मिलती है। डब्ल्यूटीओ पर उपलब्ध नवीनतम जानकारी के अनुसार घरेलू मदद अथवा उत्पादन से संबंधित सब्सिडी के लिए नोटिफिकेशन जमा करने में अमेरिका और यूरोपियन यूनियन दोनों भारत से 2 साल पीछे हैं।

सब्सिडी के सवाल पर विकासशील देशों की निष्क्रियता का दूसरा प्रभाव अपने किसानों को इन देशों की तरफ से दी जाने वाली मदद में दिखता है। भारत में सरकार ने सब्सिडी में बढ़ोतरी की है और हाल के वर्षों में यह बढ़ोतरी तीव्र रही है। घरेलू मदद यानी उत्पादन संबंधित सब्सिडी पर भारत के नोटिफिकेशन से पता चलता है कि सब्सिडी की राशि 43.4 अरब डॉलर से बढ़कर 2021-22 में 87.7 अरब डॉलर पर पहुंच गई है। इस तरह भारत में कृषि पर जो सब्सिडी दी जा रही है वह डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते की प्रतिबद्धताओं के तहत सरकार की अधिकतम सीमा के करीब पहुंच गई है। उदाहरण के लिए चावल के मामले में देखें तो 2021-22 में कुल उत्पादन की वैल्यू के 15% के बराबर भारत में प्राइस सपोर्ट दिया। जबकि डब्ल्यूटीओ के समझौते में कहा गया है कि यह 10% से अधिक नहीं हो सकता है। इसलिए आश्चर्य नहीं की भारत पर चावल के मामले में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घटाने का काफी दबाव है।

डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में सब्सिडी का जो आकलन किया गया है, उसमें सबसे प्रमुख मुद्दा इसकी गणना का तरीका है। रूरल वॉयस पर पिछले दिनों एक लेख (https://eng.ruralvoice.in/opinion-14/msp-in-india-targeted-using-wto-deeply-flawed-methodology.html) में मैंने इसके बारे में विस्तार से बताया था। संक्षेप में कहें तो सब्सिडी की गणना में 1986-88 की औसत अंतरराष्ट्रीय कीमत को लिया जाता है। उस कीमत में से एमएसपी को घटाकर जो आंकड़ा बनता है उसमें सरकार की खरीद की मात्रा को गुना किया जाता है। यह तरीका इसलिए गलत है क्योंकि इसमें जो अंतरराष्ट्रीय कीमत ली जाती है वह चार दशक पुरानी है। यह तरीका पूरी तरह भारत के हित के खिलाफ है। 1986-88 के बाद भारत में सालाना महंगाई (4% से अधिक) काफी रही है। इस तरह देखा जाए तो इस आधार पर सब्सिडी की गणना करना बेमतलब है। भारत के मामले में 1986-88 से 2021 के दौरान खुदरा महंगाई 970% बढ़ी है।

कुछ वर्ष पहले तक भारत कई अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर लगातार यह कहता आ रहा था कि डब्ल्यूटीओ के कृषि समझौते में सब्सिडी के नियमों में संशोधन करना जरूरी है ताकि उनके हितों की रक्षा की जा सके। विकसित देशों की सब्सिडी को नियंत्रित करने से न सिर्फ विकासशील देश ग्लोबल मार्केट में अपनी मौजूदगी बढ़ा सकेंगे, बल्कि अपने घरेलू किसानों को भी सब्सिडी वाले कृषि उत्पादों की डंपिंग से बचा सकेंगे। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि डब्ल्यूटीओ में विकासशील देशों ने अपनी आवाज उठाना क्यों बंद कर दिया है।

जहां तक भारत की बात है, तो सब्सिडी के सवाल की अनदेखी करने का तत्काल प्रभाव द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की बातचीत पर पड़ेगा। इस समय भारत यूरोपियन यूनियन के साथ बातचीत कर रहा है। इसके अलावा भारत, अमेरिका के नेतृत्व वाले इंडो पेसिफिक इकोनॉमिक्स फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) का भी हिस्सा है। यह 14 देशों की क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्था है। अमेरिका की प्रमुख आकांक्षाओं में एक टैरिफ समेत सभी तरह की व्यापार बाधाओं को हटाकर कृषि बाजार का उदारीकरण है। लेकिन न तो यूरोपियन यूनियन के साथ एफटीए, न ही आईपीईएफ के साथ बातचीत में कृषि सब्सिडी मुद्दा है।

वार्ताओं में सब्सिडी का मुद्दा शामिल न होने तथा टैरिफ में कमी का भारत के लिए क्या मतलब है? अभी भारत प्रमुख खाद्य फसलों पर ऊंचा टैरिफ लगाकर विकसित देशों की सब्सिडी को न्यूट्रलाइज कर देता है। लेकिन जब टैरिफ में कमी हो जाएगी तब भारत की कृषि अर्थव्यवस्था को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।

(डॉ. बिस्वजीत धर जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट के वाइस प्रेसिडेंट हैं)

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