यूरोप में क्यों हो रहे किसान आंदोलन, भारत से क्या समानताएं?

यूरोप के देशों में कई हफ्ते से किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। कुछ समस्याएं देश विशेष की भी हैं, लेकिन उनकी ज्यादातर समस्याएं साझा हैं। नई और प्रमुख साझा समस्या क्लाइमेट एजेंडा है, जिसमें वर्ष 2030 तक कृषि क्षेत्र में उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य तय किए गए हैं। 

यूरोप में क्यों हो रहे किसान आंदोलन, भारत से क्या समानताएं?

उपज की गिरती कीमत, फसलों की बढ़ती लागत, भारी-भरकम रेगुलेशन, ताकतवर रिटेलर, कर्ज का बोझ और सस्ता आयात। ये समस्याएं सिर्फ भारतीय किसानों की नहीं हैं। यूरोप के ज्यादातर देशों में कई हफ्ते से किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। कुछ समस्याएं देश विशेष की भी हैं, लेकिन उनकी ज्यादातर समस्याएं साझा हैं। नई और प्रमुख साझा समस्या क्लाइमेट एजेंडा है, जिसमें वर्ष 2030 तक कृषि क्षेत्र में उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य तय किए गए हैं। 

पिछले कुछ दिनों में हजारों किसान ट्रैक्टर लेकर बड़े शहरों के मध्य में पहुंच गए। उन्होंने न सिर्फ ट्रैक्टर खड़े कर जाम लगा दिया, बल्कि सड़कों पर खाद उलट दी, अंडे फेंके, सुपरमार्केट में तोड़फोड़ की और पुलिस के साथ भी भिड़ गए। किसानों के तेवर देख कर यूरोपियन यूनियन के साथ-साथ कई देशों की सरकारें भी झुकी हैं। उन्होंने कई प्रावधानों पर अमल या तो टाल दिया है या उन्हें रद्द कर दिया है।

यहां गौर करने वाली एक और बात है कि यूरोप में किसान आंदोलन को दक्षिणपंथी पार्टियों का समर्थन मिल रहा है। यूरोपीय संसद के लिए इस साल जून में होने वाले चुनाव में दक्षिणपंथी पार्टियों का पलड़ा भारी लग रहा है। यूरोपियन यूनियन की जीडीपी में खेती का हिस्सा सिर्फ 1.4% होने के बावजूद यह राजनीतिक एजेंडा में सबसे ऊपर है। किसानों का कहना है कि ब्रसेल्स ब्यूरोक्रेसी यानी अफसरों को खेती के बारे में कुछ नहीं मालूम। इसलिए किसानों की समस्याएं वे नहीं समझ पाते।

आंदोलन की जद में पूरा यूरोप 
पिछले कुछ दिनों में फ्रांस, इटली, रोमानिया, पोलैंड, ग्रीस, जर्मनी, पुर्तगाल और नीदरलैंड में किसान सड़कों पर दिखे। फ्रांस में किसानों ने सड़कें ठप करने के बाद यूक्रेन दूतावास पर मशीन से खाद की बौछार कर दी। बेल्जियम में किसानों ने यूरोप के सबसे बड़े बंदरगाहों में एक, एंटवर्प पहुंच कर कामकाज रोक दिया। जर्मनी में बर्फबारी के बीच हजारों किसानों ने पिछले महीने हैम्बर्ग, कोलोन, न्यूरेमबर्ग और म्यूनिख समेत कई शहरों में आवाजाही ठप कर दी। हर जगह किसान करीब 2000 ट्रैक्टर लेकर पहुंच गए थे। इस समय स्पेन में हजारों किसान ट्रैक्टर के साथ सड़कों पर हैं।

एक फरवरी को किसान यूरोपियन यूनियन के केंद्र ब्रसेल्स में पहुंच गए जहां यूक्रेन पर सम्मेलन चल रहा था। वहां किसानों ने संसद पर अंडे फेंके और एक साथ हॉर्न बजाए। फ्रांस के ल्योन और टॉलुसी शहरों में किसान सड़कों पर टेंट लगाकर बैठ गए और राजधानी पेरिस जाने का रास्ता बंद कर दिया। पिछले साल पूर्वी यूरोप के पोलैंड, रोमानिया और बुल्गारिया में किसानों ने यूक्रेन से सस्ते अनाज आयात के विरोध में प्रदर्शन किया था। यूरोप के किसान यूक्रेन से अनाज, चीनी और मीट के सस्ते आयात का विरोध कर रहे हैं। 

अब यह आंदोलन इंग्लैंड भी पहुंच गया है। पिछले सप्ताह वहां कई जगहों पर किसानों ने ट्रैक्टर लेकर प्रदर्शन किया। उनका कहना है कि सस्ते आयात के कारण सुपरमार्केट उन्हें लागत से कम दाम दे रहे हैं। ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, फिनलैंड और स्वीडन ही अभी तक किसान आंदोलन से अछूते हैं।

यूरोपियन ग्रीन डील बना सबसे बड़ा कारण
इंग्लैंड की लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रेनॉड फोकार्ट के अनुसार, यूरोपियन यूनियन में किसानों के प्रदर्शन के दो प्रमुख कारण हैं- जलवायु और यूक्रेन। यूनियन की नई जलवायु नीति, ‘यूरोपियन ग्रीन डील’ नाम दिया गया है, में कृषि क्षेत्र के लिए कई प्रावधान हैं। इसमें खेती में रासायनिक इनपुट का इस्तेमाल कम करना और जैव-विविधता की सुरक्षा शामिल हैं। किसानों की शिकायत है कि इससे उनकी लागत और प्रशासनिक जटिलता बढ़ेगी। 

यूरोपियन यूनियन के ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 11% हिस्सा खेती का है। उत्सर्जन कम करने के लिए यूनियन ने ‘फार्म टू फॉर्क’ नाम से नई नीति बनाई है, ताकि वर्ष 2050 तक पूरे ब्लॉक को कार्बन-न्यूट्रल किया जा सके। उत्सर्जन कम करने के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं, उनमें 2030 तक कीटनाशकों का इस्तेमाल आधा करना, उर्वरकों का इस्तेमाल 20% कम करना, खेती की कुछ जमीन परती छोड़ना या उस पर वनरोपण करना, 25% जमीन पर ऑर्गेनिक खेती करना शामिल हैं। 

यूरोपीय किसान इन नीतियों को अनुचित और आर्थिक रूप से नुकसान वाला बता रहे हैं। उनका कहना है कि हमारे ऊपर जो ‘क्लाइमेट एजेंडा 2030’ थोपा जा रहा है, उसके लिए न तो हमसे सहमति ली गई न हमने उसके लिए उन्हें वोट दिया। हम उनके झूठे वादों से थक गए हैं। किसानों ने इसे क्लाइमेट कम्युनिज्म नाम दिया है। उनका कहना है कि धरती को बचाने के नाम पर उन्हें दिवालिया किया जा रहा है। उनकी मांग पर्यावरण संबंधी नियमों को खत्म करने के साथ अफसरशाही कम करने की है। उनकी शिकायत है कि खेती उनके लिए अब फायदे का पेशा नहीं रह गई है।

सरकार के फैसलों और जमीनी हकीकत में अंतर
फरवरी 2022 में यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद यूरोपियन यूनियन के अनेक देशों में किसानों के लिए ऊर्जा, उर्वरक और ट्रांसपोर्ट का खर्च बढ़ा है। दूसरी तरफ उपभोक्ताओं के लिए महंगाई को नियंत्रित रखने के मकसद से सरकारों ने खाद्य पदार्थों के दाम घटाने के कदम उठाए हैं। यूरोस्टैट डेटा के अनुसार किसानों से खरीदी जाने वाली उपज की औसत कीमत पिछले साल नौ प्रतिशत कम हुई है। 

लैंकेस्टर यूनिवर्सिटी के प्रो. फोकार्ट के अनुसार, यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से ईयू ने यूक्रेन की अर्थव्यवस्था को मदद करने की नीति अपना रखी है। इस नीति के तहत ईयू के कृषि बाजार यूक्रेन के अनाज के लिए खुले हैं। पूर्वी यूरोप के अनेक किसानों इससे मिलने वाली प्रतिस्पर्धा की शिकायत की है।

दरअसल, यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद यूरोपियन यूनियन ने यूक्रेन को कोटा और आयात शुल्क से राहत दे दी। उसके बाद यूरोपीय देशों में यूक्रेन से कृषि उपज का आयात काफी बढ़ गया। इसका असर यह हुआ कि स्थानीय बाजारों में दाम गिर गए। पोलैंड के किसानों ने पिछले साल ही यूक्रेन को जोड़ने वाली सड़क पर यूक्रेन से आने वाले ट्रकों को रोकने के लिए अवरोध खड़े कर दिए। उसके बाद ब्रसेल्स ने पड़ोसी देशों को यूक्रेन के निर्यात पर कुछ दिनों के लिए अंकुश लगाने की घोषणा की। इसकी समय सीमा खत्म होने के बाद हंगरी, पोलैंड और स्लोवाकिया ने अपनी तरफ से बंदिशें लगा दीं। किसानों का कहना है कि यूक्रेन का अनाज एशियाई या अफ्रीकी देशों को जाना चाहिए, यूरोप को नहीं। 

फ्रांस में भी सस्ता आयात किसानों की नाराजगी की वजह बना हुआ है। वहां न्यूजीलैंड और चिली से सस्ता आयात हो रहा है। यही नहीं, इन देशों के आयात को यूरोपीय किसानों की तरह सख्त नियमों का भी सामना नहीं करना पड़ता। सिंचाई तथा अन्य नियम यूरोपियन यूनियन में ज्यादा सख्ती से लागू किए जाते हैं।
यूरोपियन यूनियन और दक्षिण अमेरिका के मर्कोसुर ट्रेडिंग ब्लॉक (अर्जेंटीना, ब्राजील, पराग्वे, युरुग्वे और बोलिविया) के बीच मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की बात चल रही है। आरोप है कि ये देश ईयू में प्रतिबंधित हॉर्मोन, एंटीबायोटिक्स और कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। इसने भी किसानों की नाराजगी बढ़ाई है। उनका कहना है कि हमें तो कड़े नियमों का पालन करना पड़ता है, लेकिन हमें जिनके साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है उनके लिए परिस्थितियां आसान होती हैं।

फ्रांस की सबसे बड़ी किसान यूनियन एफएनएसईए के प्रेसिडेंट अर्नॉड रोस्यो के अनुसार, मुद्दे अनेक हैं लेकिन इन सबका मूल एक है- सरकार के फैसलों और जमीनी हकीकत में बहुत अंतर है। इंग्लैंड में ‘सेव ब्रिटिश फार्मिंग’ अभियान चलाने वाली किसान लिज वेबस्टर के अनुसार वर्ष 2022 में खाद्य पदार्थों के मामले में इंग्लैंड की आत्मनिर्भरता 61% थी, अब यह उससे भी कम हो गई है। ब्रसेल्स स्थित किसान संगठन कोपा-कोजेका (Copa-Cogeca) ने कहा कि फार्म टू फॉर्क स्ट्रैटजी बहुत खराब तरीके से बनाई गई है, इसमें किसानों के लिए विकल्प बहुत सीमित हैं।

कुछ कारण देश विशेष के भी
किसानों की कुछ मांगें देश विशेष भी हैं। जैसे, नीदरलैंड्स में नाइट्रोजन उत्सर्जन और एनिमल फार्मिंग का मुद्दा है। जर्मनी में खेती के लिए डीजल पर टैक्स खत्म करना मुद्दा है। फ्रांस में किसानों को लगता है कि वहां ईयू के नियम अधिक सख्ती से लागू किए जाते हैं। इटली में किसान इनकम टैक्स में छूट दोबारा बहाल करने की मांग कर रहे हैं। वर्ष 2017 में शुरू की गई इस छूट की अवधि 2024 में खत्म होनी है। 

इंग्लैंड में वर्ष 2021 से ‘सस्टेनेबल फार्मिंग इन्सेंटिव’ नाम से स्कीम चलाई जा रही है। लेकिन किसानों का कहना है कि इसका मकसद खेती को सस्टेनेबल बनाना नहीं, बल्कि पर्यावरण के लक्ष्य हासिल करने के लिए खेती वाली जमीन कम करना है। गेहूं की खेती करने वाले किसानों को प्रति हेक्टेयर 450 पौंड का नुकसान हो रहा है, दूसरी ओर इन्सेंटिव के तहत जंगली फूल लगाने पर उन्हें प्रति हेक्टेयर 453 पौंड मिलने की गारंटी दी जा रही है।

किसान प्रदर्शन की शुरुआत
किसान आंदोलन की शुरुआत यूरोप में बड़ी खेती वाले देश नीदरलैंड्स से हुई। इस छोटे से देश में 11 करोड़ से ज्यादा मवेशी हैं। इसलिए वहां नाइट्रोजन उत्सर्जन भी ईयू के औसत का चार गुना है। पांच साल पहले सरकारी अधिकारियों ने इसे कम करने के लिए बड़े कदम उठाने की जरूरत बताई थी। कुछ मवेशी फार्म बंद करने का भी सुझाव दिया गया। सरकार ने मवेशियों की संख्या एक-तिहाई घटाकर 2030 तक नाइट्रोजन उत्सर्जन कम करने की योजना बनाई। उसके तत्काल बाद, अक्टूबर 2019 में देश के विभिन्न हिस्से से 2000 से ज्यादा ट्रैक्टर में भरकर किसान देश के प्रशासनिक केंद्र हेग पहुंच गए। इससे गाड़ियों की सैकड़ों किलोमीटर लंबी कतार लग गई। किसानों का नारा था ‘किसान नहीं तो खाना नहीं’। 

आंदोलन के बाद किसानों के पक्ष में फैसला
फोकार्ट के अनुसार, ईयू के स्तर पर देखें तो यूरोपियन कमीशन ने अपने कई टार्गेट और कई नीतियां फिलहाल रद्द कर दी हैं। इनमें वर्ष 2040 तक कृषि से होने वाले उत्सर्जन में 2015 की तुलना में 30% कटौती करना भी शामिल है, जिसे काफी अहम माना जा रहा है। विभिन्न देशों की सरकारों ने भी ईयू के लक्ष्य के हिसाब से अपनी प्रतिबद्धताओं को स्थगित किया है या उसमें कटौती की है।
यूरोपियन यूनियन के स्तर पर किसानों को पहली जीत  31 जनवरी को मिली जब ब्रसेल्स में मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने और जैव विविधता के लिए जमीन छोड़ने का नियम फिलहाल लागू नहीं करने का निर्णय लिया गया। यूरोपियन कमीशन ने नया प्रस्ताव रखा है जिसमें कहा गया कि यूक्रेन से कृषि आयात सीमित किया जाएगा और वर्ष 2024 में किसानों को सब्सिडी के लिए अपनी 4% जमीन परती रखने की अनिवार्यता से छूट मिलेगी। कमीशन ने कीटनाशक इस्तेमाल में कटौती की योजना भी पिछले हफ्ते टाल दी। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के प्रस्ताव में भी बदलाव किया गया है। 

जर्मनी ने पिछले महीने डीजल पर सब्सिडी कटौती के फैसले पर अमल तो फ्रांस ने डीजल पर टैक्स बढ़ाने का प्रस्ताव टाल दिया है। फ्रांस ने किसानों को 15 करोड़ यूरो की मदद की भी घोषणा की है। इसके बाद फ्रांस में कुछ जगहों पर किसानों ने आंदोलन फिलहाल रोक दिया है। फ्रांस के प्रधानमंत्री ने कहा कि मर्कोसुर देशों के किसानों पर भी सख्त नियम लागू होंगे। ग्रीस ने खेती में इस्तेमाल होने वाले डीजल पर टैक्स छूट एक साल के लिए बढ़ाने का फैसला किया है। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी पिछले हफ्ते टैक्स छूट दोबारा लागू करने पर राजी हुई हैं। हालांकि यह सिर्फ छोटे किसानों के लिए होगा। 

किसानों की नाराजगी देख नेताओं का बदला रुख
किसानों के बढ़ते रोष से यूरोप के नेताओं का रुख बदला है। यूरोपियन कमीशन की प्रेसिडेंट उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा, “खेती को ज्यादा सस्टेनेबल बनाने की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि किसान अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं। हमें उन पर अधिक भरोसा करना चाहिए।” फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और आयरलैंड के प्रधानमंत्री लियो वरेडकर ने कहा है कि मौजूदा स्वरूप में ईयू-मर्कोसुर व्यापार समझौता नहीं होना चाहिए। फ्रांस के प्रधानमंत्री गैब्रियल अट्टल ने कहा, "ये सवाल पूरे यूरोप के लिए हैंः कैसे हम ज्यादा फसल उपजाएं, लेकिन बेहतर तरीके से? हम जलवायु परिवर्तन का सामना कैसे करें? दूसरे देशों की अनुचित प्रतिस्पर्धा से कैसे निपटें?" स्पेन के कृषि मंत्री लुइस प्लानास ने कहा, “किसान चाहते हैं कि उन्हें सुना जाए, उनका सम्मान किया जाए। उन्हें लगता है कि खास तौर से ब्रसेल्स में और शहरी राजनीतिक हलके में उनका सम्मान नहीं होता।”

आगे क्या है संभावना
फोकार्ट के अनुसार, “मुझे लगता है कि यह आंदोलन जल्दी शांत हो जाएगा। यूरोपियन यूनियन के चुनाव होने वाले हैं और किसान जानते हैं कि उन्होंने बहुत कुछ हासिल कर लिया है। लेकिन मध्यम अवधि में देखें तो पूरे यूरोपियन यूनियन को जलवायु परिवर्तन में कृषि के योगदान पर विचार करना ही पड़ेगा क्योंकि यह प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत है। पर्यावरण संबंधी प्रावधानों को टालने का मतलब है समस्या को टालना, यह समाधान नहीं।”
साझा कृषि नीति (कॉमन एग्रीकल्चरल पॉलिसी- सीएपी) के तहत यूरोपियन यूनियन में हर साल करीब 55 अरब यूरो (लगभग 5 लाख करोड़ रुपये) की सब्सिडी दी जाती है। यह छह दशक से भी अधिक समय से जारी है। इस नीति में बड़े खेत और साझा स्टैंडर्ड पर जोर दिया गया है। इससे छोटे खेतों को मिलाकर बड़े खेत बनाने का चलन बढ़ा। इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि वर्ष 2005 के बाद खेतों की संख्या करीब एक-तिहाई कम हो गई। लेकिन इसका एक नेगेटिव असर यह भी हुआ कि बड़े किसानों पर कर्ज भी बड़ा हो गया। दूसरी तरफ छोटे किसानों के लिए प्रतिस्पर्धा मुश्किल हो गई।

इसका जिक्र करते हुए फोकार्ट कहते हैं, आने वाले वर्षों में अगर यूक्रेन यूरोपियन यूनियन में शामिल होता है, तो सब्सिडी की इस राशि का इस्तेमाल डी-कपलिंग में करना पड़ेगा। डी-कपलिंग में किसानों की आर्थिक मदद भी शामिल है ताकि वे अपनी जमीन की रक्षा कर सकें और खेती छोड़ दूसरा पेशा अपना सकें। यह प्रक्रिया कुछ जगहों पर शुरू भी हो गई है। इसके साथ दूसरे सेक्टर की तरह कृषि से होने वाले प्रदूषण पर भी टैक्स लगाना पड़ेगा। यूरोपियन यूनियन से अलग होने के बाद इंग्लैंड ने यह प्रक्रिया शुरू कर दी है। हालांकि ईयू में ऐसा करना राजनीतिक रूप से ज्यादा मुश्किल है। यूनियन का विस्तार करने पर तो यह लगभग असंभव हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन से किसान भी प्रभावित होते हैं और खेती का बेहतर तरीका ही इसका समाधान है।

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