ग्रामीण भारत का एजेंडाः कृषि क्षेत्र की बढ़ती मुश्किलें

पिछले दो दशकों से ग्रामीण समुदायों को परेशान करने वाले कृषि संकट की वास्तविकता प्रतिभागियों की चिंताओं, आशाओं और सपनों में स्पष्ट रूप से दिख रही थी। हालांकि, उनके द्वारा उठाए गए अधिकांश मुद्दे नए नहीं थे, फिर भी यह किसानों की धारणाओं और प्राथमिकताओं को समझने के लिए काफी हैं।  

ग्रामीण भारत का एजेंडाः कृषि क्षेत्र की बढ़ती मुश्किलें
इलस्ट्रेशनः आलोक श्रीवास्तव, सॉक्रेटस।

ग्रामीण भारत पर कोई भी चर्चा कृषि पर बातचीत के बिना पूरी नहीं हो सकती। “ग्रामीण भारत का एजेंडा” विषय पर रूरल वॉयस और सॉक्रेटस द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में ग्रामीणों के साथ हमारी बैठकों में प्रतिभागियों में से लगभग 60 फीसदी किसान थे। पिछले दो दशकों से ग्रामीण समुदायों को परेशान करने वाले कृषि संकट की वास्तविकता प्रतिभागियों की चिंताओं, आशाओं और सपनों में स्पष्ट रूप से दिख रही थी। हालांकि, उनके द्वारा उठाए गए अधिकांश मुद्दे नए नहीं थे, फिर भी यह किसानों की धारणाओं और प्राथमिकताओं को समझने के लिए काफी हैं।  

किसानों ने बताया कि केवल कृषि आय से गुजारा करना लगभग असंभव होता जा रहा है। फसलों की कीमतें लागत के अनुपात में कम हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक युवा किसान ने हमें बताया, "उर्वरक और कीटनाशक सहित हर चीज महंगी होती जा रही है, हम हर तरफ से दबाव में हैं।" उत्तर भारत की "गन्ना बेल्ट" का हिस्सा कहे जाने वाले मुजफ्फरनगर में प्रतिभागियों ने गन्ने का राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) न बढ़ने और चीनी मिलों से भुगतान में देरी को एक बड़ी समस्या के रूप में उठाया। यहां के किसानों ने कीटनाशकों, उर्वरकों, बीज और मजदूरी की लागत सहित कृषि इनपुट की बढ़ती लागत की भी शिकायत की। इस अपेक्षाकृत समृद्ध कृषि क्षेत्र में भी किसानों को खेती जारी रखने के लिए कर्ज लेने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अधिकांश किसान नहीं चाहते कि उनके बच्चे किसान बनें।

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ओडिशा के किसानों का मानना था कि फसल की कीमतें लाभकारी नहीं हैं। केंद्रपाड़ा जिले के एक किसान ने कहा, "किसानों  को मिलने वाली कम कीमत का मुख्य कारण गोदामों और कोल्ड स्टोरेज जैसी भंडारण सुविधाओं की कमी है।" अधिकांश किसानों को अपनी उपज सीधे अपने खेतों-खलिहानों पर ही स्थानीय व्यापारियों और बिचौलियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। राजस्थान के प्रतिनिधियों ने बताया कि कैसे फसल की कीमतें बीज, उर्वरक और कीटनाशकों जैसे कृषि इनपुट की बढ़ती लागत के साथ तालमेल बिठाने में वे असमर्थ हैं। शिलांग में भी हमने यही कहानी सुनी- खराब सड़क संपर्क, भंडारण सुविधाओं की कमी और देरी से भुगतान। कोयंबटूर के किसानों ने कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बहुत कम है और इसे किसानों को खुद तय करना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि तमिलनाडु में आमतौर पर उगाई जाने वाली फसलों, जैसे चाय, कॉफी, सब्जियां और मसालों का भी एमएसपी तय किया जाना चाहिए।

हमारे कई सम्मेलनों में प्रतिभागियों की धारणा थी कि अकेले एमएसपी और अच्छी कीमतें कृषि की घटती व्यवहार्यता के मुद्दे का समाधान नहीं कर सकतीं। कई जगह किसानों ने कहा कि सरकारें पीएम-किसान जैसी योजनाओं के तहत सहायता बढ़ाकर उनकी आय सुरक्षित करें। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि किसानों का मुनाफा बढ़ाने के लिए कृषि में मूल्यवर्धित उत्पादों और स्थानीय उद्योगों को सरकारों द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किसानों ने महसूस किया कि इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) और सहकारी समितियों की क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए। 

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यह बात हर जगह सामने आई कि कृषि संबंधी सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूकता की कमी जरूरतमंदों तक इनकी पहुंच में बाधक है। राजस्थान के प्रतिभागियों ने सुझाव दिया कि सरकारी योजनाओं के बारे में सभी सरकारी कार्यालयों के बाहर जानकारी प्रदर्शित की जानी चाहिए। मेघालय के किसानों ने महसूस किया कि उन्हें सरकारी योजनाओं के बारे में बेहतर जानकारी होनी चाहिए। ओडिशा के प्रतिभागी मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में देरी या कमी से निराश थे। उनका मानना था कि सरकारी नीतियों के बारे में सही जानकारी प्रसारित करने के लिए प्रत्येक गांव में जागरूकता समूह बनाए जाने चाहिए। तमिलनाडु में प्रतिभागियों ने सुझाव दिया कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में विधायकों, नीति निर्माताओं और किसान संघों की मासिक बैठक होनी चाहिए।

एक और मुद्दा लगातार सामने आया वह था रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक इस्तेमाल। इस बारे में किसानों के बीच जागरूकता का स्तर भी काफी अधिक था। राजस्थान के एक किसान ने बताया, “केमिकल का अत्यधिक इस्तेमाल गांव की बर्बादी का सबसे बड़ा कारण है।” यूपी के किसानों ने बताया कि कैसे केमिकल के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी की उर्वरता और लोगों की सेहत प्रभावित हुई है। ओडिशा के किसानों ने कहा कि हानिकारक रसायन सभी जल स्रोतों को प्रदूषित कर रहे हैं। राजस्थान में यह चिंता जताई गई कि कैसे केमिकल के ज्यादा उपयोग से ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर और अन्य बीमारियां हो रही हैं। इस अहसास से किसानों में प्राकृतिक खेती और टिकाऊ कृषि के महत्व की समझ पैदा हुई है। अधिकांश किसानों का मानना था कि यह आगे बढ़ने का सही रास्ता। किसानों ने सरकारों से अपने गांवों में मासिक जागरूकता बैठकें आयोजित करने, प्रमाणन योजनाओं को सरल बनाने और रियायती कीमतों पर जैविक इनपुट की आपूर्ति करने का आह्वान किया।

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किसानों ने  मानव-पशु संघर्ष की चिंता को भी प्राथमिकता दी। यूपी में आवारा पशुओं के आतंक के कारण किसान कई तरह की फसल बोने से भी डरते हैं। यह मुद्दा मुजफ्फरनगर में हमारे प्रतिभागियों के बीच सबसे अधिक गूंजा। किसानों ने इसके लिए कई समाधान सुझाए। इनमें हर गांव में पशु आश्रय स्थल बनाने के लिए सरकारी धन का उपयोग करने से लेकर किसानों को बूढ़े मवेशियों की देखभाल के लिए मासिक भुगतान, पशु व्यापार को वैध बनाना शामिल हैं। ओडिशा, तमिलनाडु और मेघालय में आसपास के जंगलों से जंगली जानवर खेतों में घुस जाते हैं। तमिलनाडु में कोयंबटूर जिले के एक किसान ने बताया, “पश्चिमी घाट से सटे इलाके में तेनकासी से सत्यमंगलम वन प्रभाग तक हिरणों, सूअरों और मोरों के उपद्रव के कारण बाजरा की फसलें नहीं उगाई जा सकती हैं।” नीलगिरि के एक किसान अपने क्षेत्र में हुए नुकसान का एक फोटो एलबम भी लेकर आए थे। इससे एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकला- बढ़ते मानव-पशु संघर्ष को मवेशी और पशु संरक्षण पर सरकारी नीतियों के साथ-साथ शहरीकरण के कारण वन क्षेत्रों के विस्तार पर दबाव से जोड़ा जा सकता है। 

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सिंचाई के लिए पानी हर जगह चिंता का एक विषय था, विशेष रूप से ओडिशा और राजस्थान में जो विपरीत कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्र हैं। ओडिशा में बढ़ती अनियमित वर्षा का प्रभाव खराब सिंचाई सुविधाओं के कारण अधिक महसूस किया गया। राजस्थान में भूजल के घटते स्तर ने खेती के भविष्य के लिए अच्छी सिंचाई सुविधाओं को जरूरी बना दिया है। मेघालय में किसानों को सर्दियों के मौसम में पानी की कमी झेलनी पड़ती है। 

 (लेखिका सॉक्रेटस में पर कार्यरत हैं।)

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