यूपी चुनाव में क्यों इतने महत्वपूर्ण हो गये जाट

ऐसा क्या हो गया कि उत्तर प्रदेश में केवल चार फीसदी आबादी वाली जाट बिरादरी इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि राजनीतिक दलों के साथ मीडिया में भी वही फोकस में है। उनसे कहीं अधिक आबादी वाली जातियों पर इस तरह से फोकस नहीं है

यूपी चुनाव में क्यों इतने महत्वपूर्ण हो गये जाट

उत्तर प्रदेश में पहले चरण के मतदान के एक दिन पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के साथ संयुक्त प्रेस क्रांफ्रेंस में कई बार जाट बिरादरी की बात की। उनको निडर बताया और नारा भी दिया- अबकी बार जाट सरकार। इसके कुछ दिन पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में जाट बिरादरी के लोगों की एक बैठक सांसद प्रवेश वर्मा के घर पर बुलाई थी। उसमें उन्होंने कहा कि जाट बिरादरी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का हमेशा साथ दिया है, इसलिए उत्तर प्रदेश विधान सभा के मौजूदा चुनावों में भी वह मदद करें।

इन दोनों नेताओं का जाटों से दूर-दूर तक कोई सीधा नाता नहीं है। ऐसा क्या हो गया कि उत्तर प्रदेश में केवल चार फीसदी आबादी वाली जाट बिरादरी इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि राजनीतिक दलों के साथ मीडिया में भी वही फोकस में है। उनसे कहीं अधिक आबादी वाली जातियों पर इस तरह से फोकस नहीं है।

असल में जाट मतों का असली असर उनकी संख्या से कहीं अधिक है। जिसे कहते हैं ‘मोर दैन देयर वेट’ और इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जाटलैंड कहा जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि जाट बिरादरी के दो सबसे बड़े नेताओं, सर छोटू राम और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने खुद को कभी जाट के रूप में पहचान देने की कोशिश नहीं की। सर छोटू राम जमींदारा की बात करते थे और उनकी पार्टी का नाम यूनियनिस्ट पार्टी था। चौधरी चरण सिंह ने हमेशा खुद को किसान नेता के रूप में पेश किया और किसानों की हिमायत की। उन्होंने कभी जाटों की अलग से कोई बैठक भी नहीं की।

दिलचस्प बात यह है कि जाट बिरादरी के समर्थन से खड़ी पार्टी राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख जयंत चौधरी भी अक्सर यही कहते हैं कि हमारी पार्टी केवल जाटों की पार्टी नहीं है। यह किसानों की पार्टी है और इसमें सभी जाति धर्म के लोग हैं।

फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में जाटों को इतना महत्व दिया जा रहा है? जाट पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही अधिक हैं। यहां की सीटों पर उनकी आबादी पांच फीसदी से लेकर 25 फीसदी तक है। इसलिए यहां के करीब 15 जिलों की सीटों पर उनका वोट काफी महत्व रखता है। लेकिन यह भी सच है कि किसी सीट पर वह इतनी तादाद में नहीं हैं कि अकेले किसी पार्टी के सदस्य को जिता सकें। लेकिन यह बात भी सच है कि वह जिस पार्टी के साथ जुड़ते हैं, उसके लिए माहौल बनाने का काम जरूर करते हैं। पिछले कई चुनावों में बड़ी तादाद में भाजपा को वोट देने के बावजूद हिंदू मतों के रूप में उनकी पहचान नहीं बन सकी। इसलिए भाजपा नेता उनको अपने साथ जोड़ने के लिए अलग बैठक करने को मजबूर हैं। 2017 के चुनावों से पहले भी अमित शाह ने जाटों की एक बैठक दिल्ली में बुलाकर उनकी नाराजगी को दूर करने की कोशिश की थी। उस समय यह कोशिश काम भी कर गई और भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों का अच्छा खासा वोट मिला।

लेकिन इस बार स्थिति बदली हुई है। तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन की धुरी जाट किसान ही थे। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बिरादरी की जो कड़ी जुड़ी वह किसान आंदोलन को इतना प्रभावशाली बना गई कि सरकार ने आखिर में नवंबर, 2021 में तीनों कानूनों को वापस ले लिया। लेकिन इससे भाजपा को राजनीतिक नुकसान काफी ज्यादा हुआ है। पंजाब में जाट किसान उसके खिलाफ खड़े हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी वह भाजपा के खिलाफ हैं। इस लेखक ने चुनावों के पहले और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 58 सीटों पर पहले चरण के 10 फरवरी के मतदान के दौरान यह नाराजगी जमीन पर देखी। इसी नाराजगी को कम करने की कोशिश भाजपा के केंद्रीय नेता और स्थानीय नेता लगातार करते रहे।

जहां तक भाजपा के अंदर की बात है तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे बड़े जाट नेता के रूप में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री संजीव बालियान की उभरते दिख रहे हैं। मौजूदा विधान सभा चुनाव में जाटों के बीच उनकी ही सक्रियता भाजपा के बाकी नेताओं से अधिक रही है। बहुचर्चित सीट बागपत के सांसद सत्यपाल सिंह जाट नेता के रूप में पिछड़ रहे हैं और इन चुनावों में भाजपा की कोई मदद कर पायेंगे, इसकी संभावना बहुत कम है। लेकिन संजीव बालियान की भी अपनी सीमा है, क्योंकि किसान आंदोलन का केंद्र सिसौली उनके लोक सभा क्षेत्र में है। साथ ही उनके बालियान खाप के प्रमुख ही भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं। इसके साथ ही किसान आंदोलन ने भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की छवि देश में बड़े किसान नेता की बन गई है। राकेश टिकैत भी जाट हैं, ऐसे में जब वह भाजपा सरकार के खिलाफ बात करते हैं तो उसका संदेश भी जाट बिरादरी में जाता है।

अगर जाट भाजपा से दूर जाते हैं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय के साथ मिलकर वोट करें तो तमाम समीकरण बदल जाते हैं। मुस्लिम आबादी इन जिलों में 20 फीसदी से 50 फीसदी तक है। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के गठबंधन ने यह समीकरण बना दिया है। भाजपा का जाटों को इस गठबंधन से दूर रखने की कोशिश का कितना असर हुआ यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा, लेकिन यह बात साफ होती दिख रही है कि पश्चिम में जाटों ने भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने का काम किया है। इसका असर चुनाव में तटस्थ मतों पर पड़ा है। प्रभावी किसान बिरादरी होने के चलते जाट बिरादरी उनके साथ काम करने वाली दूसरी जातियों को भी प्रभावित करती है और इसी नुकसान से भाजपा बचने की कोशिश इन बैठकों में कर रही थी।

यह सवाल फिर भी वाजिब है कि जाट बिरादरी के बड़े राजनेताओं ने कभी खुद को जाट दिखाने की कोशिश कर उसका फायदा लेने पर जोर नहीं दिया। यह बात अलग है कि स्वाधीनता के पहले सर छोटू राम ने फजले हसन के साथ यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार में पंजाब में राजस्व मंत्री रहते हुए किसानों के फायदे के लिए एतिहासिक कानून बनवाये। वहीं चौधरी चरण सिंह ने उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार में मंत्री रहते हुए जमींदारा खात्मा जैसे कानून बनवाये, जिनका फायदा सभी जातियों के किसानों को मिला। लेकिन यह बात भी सच है कि जाट बिरादरी का ताना-बाना अब भी इतना मजबूत बना हुआ है कि बिरादरी के नाम पर या खाप व्यवस्था के जरिये पर यह कई बार अपने हितों के लिए एकजुट होती रही है। यह एकजुटता राजनीतिक नतीजे बदलने में भी कामयाब रही है। यही वजह है कि गैर-जाट राजनेता इस बिरादरी को अपने साथ जोड़ने की जुगत लगाते हैं। एक तथ्य यह भी है कि इस बिरादरी के नेता प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री, कृषि मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, लोक सभा अध्यक्ष समेत तमाम प्रमुख पदों पर रहे हैं। मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार आजाद भारत की पहली सरकार है जिसमें एक भी जाट कैबिनेट मंत्री तक नहीं है।

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