नई चुनौतियों के बीच कृषि क्षेत्र में बदलाव की धुरी बनता मशीनीकरण
यह लेख जलवायु परिवर्तन, श्रम की कमी और स्थिरता (सस्टेनेबिलिटी) जैसी भारतीय कृषि के सामने उभरती चुनौतियों के समाधान में कृषि यंत्रीकरण की भूमिका को रेखांकित करता है।

कृषि क्षेत्र आज पर्यावरण के क्षरण, जलवायु परिवर्तन, तेजी से बढ़ती युवा आबादी और बदलते उपभोग पैटर्न जैसी नई चुनौतियों का सामना कर रहा है। विशेष रूप से ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों के छोटे किसानों के लिए, जहां दुनिया के लगभग 55 करोड़ फैमिली फार्म का बड़ा हिस्सा है, शारीरिक श्रम की प्रधानता है। इससे थकावट, जलवायु परिवर्तन के जोखिम, कम फसल तीव्रता और उपज में बड़े अंतर जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। भारत ने कृषि मशीनीकरण में महत्वपूर्ण प्रगति की है, जहां औसत मशीनीकरण स्तर 47 प्रतिशत है, जो अनेक विकासशील देशों की तुलना में अधिक है।
हालांकि, विभिन्न फसलों (जैसे गेहूं में 69% और बाजरा में 33%) और राज्यों (हरियाणा और पंजाब में उच्चतम) में मशीनीकरण में बड़ा अंतर है। यह ब्राजील और चीन जैसे अन्य BRIC (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) देशों की तुलना में पीछे है। फार्म मशीनीकरण से कृषि कार्यों की समयबद्धता सुनिश्चित की जा सकती है, श्रम उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है और छोटे किसानों के लिए कृषि कार्यों में कठिनाई को कम किया जा सकता है। इससे खाद्य सुरक्षा और रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी, सामाजिक-आर्थिक विकास में योगदान मिलेगा, साथ ही पर्यावरणीय क्षरण को रोका जा सकेगा। इसलिए, मशीनीकरण विकासशील देशों के विकास एजेंडे में प्राथमिकता पर है।
गरीबी उन्मूलन, जलवायु शमन, भूमि क्षरण और कृषि में बदलाव के लिए उत्पादन को सतत रूप से बढ़ाना और कृषि-खाद्य प्रणाली मूल्य श्रृंखला को मजबूत करना आवश्यक है, ताकि तेजी से विकास हो सके। फार्म मशीनीकरण कृषि तीव्रता (इंटेंसिफिकेशन) का एक अनिवार्य हिस्सा है और कई सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कृषि मशीनीकरण में कृषि-खाद्य प्रणाली मूल्य श्रृंखला में यांत्रिक शक्ति का उपयोग शामिल है, जिसमें फार्म उत्पादन, फसल कटाई के बाद की हैंडलिंग, भंडारण और प्रसंस्करण शामिल हैं। फार्म मशीनीकरण छोटे किसानों को अनूठी क्षमता प्रदान करता है। यह एक आवश्यक कृषि इनपुट है जो लाखों ग्रामीण परिवारों के जीवन और अर्थव्यवस्थाओं को बदलने की क्षमता रखता है।
मशहूर कहावत है कि "कृषि के अलावा सब कुछ इंतजार कर सकता है।" यह कृषि कार्यों की समयबद्धता के महत्व को दर्शाता है, जिसे मशीनीकरण के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। हालांकि, किसान, शोधकर्ता, एक्सटेंशन एजेंट, योजनाकार या नीति निर्माता - सभी हितधारकों के लिए यह आवश्यक है कि वे पूरी कृषि प्रणाली में मूल्य श्रृंखला परिप्रेक्ष्य के साथ कृषि मशीनीकरण के प्रयासों को समझें और उसमें योगदान दें।
खेत स्तर पर और कृषि-खाद्य मूल्य श्रृंखला में आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक रूप से सतत कृषि मशीनीकरण में वृद्धि करना महत्वपूर्ण है। सस्टेनेबिलिटी के ढांचे के भीतर कृषि मशीनीकरण का उपयोग समय की दक्षता, कृषि-खाद्य प्रणाली मूल्य श्रृंखला में संचालन की गति, बढ़ी हुई उपज, उत्पादन लागत में कमी, फसल तीव्रता में वृद्धि, इनपुट की दक्षता में वृद्धि, जलवायु जोखिमों में कमी, फसल कटाई के बाद के नुकसान में कमी जैसे कई लाभ ला सकता है। हालांकि, खाद्य उत्पादन को सतत रूप से बढ़ाने के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जरूरत के मुताबिक मशीनीकरण की आवश्यकता है। इसलिए, व्यापक प्रभाव के लिए विविध फसल/कृषि प्रणालियों और मिट्टी के प्रकारों के लिए उपयुक्त मशीनीकरण का विकास, उनकी रिफाइनिंग, अनुकूलन और टारगेटिंग महत्वपूर्ण हैं।
कृषि मशीनीकरण: परिवर्तन के लिए उत्प्रेरक
भारत में कृषि क्षेत्र ने विशेष रूप से हरित क्रांति के आगमन के बाद महत्वपूर्ण परिवर्तन देखा है। तब भारत खाद्यान्न आयातक था और अब यह लगभग 55 बिलियन डॉलर का निर्यात करता है। 2030 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लक्ष्य में बड़ा योगदान देने की संभावना है, क्योंकि कृषि राष्ट्रीय जीडीपी का लगभग 17-18 प्रतिशत योगदान देती है। हालांकि, प्रारंभ में ध्यान राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने के लिए फसल उत्पादन बढ़ाने पर था, लेकिन भारतीय कृषि की समकालीन चुनौतियों के लिए कहीं अधिक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इन चुनौतियों में छोटी जोत और कृषि प्रणालियों की विविधता, मशीनीकरण में असंतुलन, उपकरण की ऊंची लागत और बिक्री के बाद खराब सेवा, फार्म उपकरणों का वित्तपोषण, खाद्य नुकसान कम करने के लिए फसल कटाई के बाद कुशल प्रबंधन, किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि उत्पादों में वैल्यू एडिशन और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना शामिल हैं।
वाणिज्यिक वित्तीय संस्थान मुख्य रूप से बड़ी मशीनरी पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और छोटी मशीनरी पर नहीं, जो भारत में मशीनीकरण स्तर में वृद्धि के लिए सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। फार्म उपकरणों के वित्तपोषण की जटिल प्रक्रिया और उच्च ब्याज दरें छोटे किसानों को मशीनीकरण में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करती हैं। कृषि मशीनीकरण इन बहुआयामी आवश्यकताओं को संबोधित करने में एक उत्प्रेरक के रूप में उभरी है।
मशीनीकरण से किसानों का सशक्तीकरण
कृषि अभियांत्रिकी का एक महत्वपूर्ण योगदान कृषि कार्यों का व्यापक मशीनीकरण रहा है। भारत ट्रैक्टर निर्माण में वैश्विक शक्ति के रूप में उभरा है, जो प्रति वर्ष लगभग 10 लाख यूनिट का उत्पादन करता है। यह वैश्विक ट्रैक्टर उत्पादन का आधा है। यह उल्लेखनीय उपलब्धि न केवल किसानों के शारीरिक श्रम और पशु शक्ति पर निर्भरता को कम करती है, बल्कि विभिन्न कृषि कार्यों में दक्षता भी बढ़ाती है। हल, हैरो और बीज ड्रिल जैसे उपकरणों के साथ ट्रैक्टरों ने जमीन को तैयार करने, बुवाई और कटाई कार्यों को सुव्यवस्थित किया है। इससे किसान कम समय में बड़े क्षेत्र में खेती कर सकते हैं।
एआई, रोबोटिक्स और नई प्रौद्योगिकी कृषि मशीनीकरण अनुसंधान और शिक्षा में क्रांति ला रही है, जिससे उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है। एआई-संचालित सिस्टम सेंसर और उपग्रह इमेजरी से विशाल डेटा सेट का विश्लेषण कर सकते हैं ताकि सिंचाई, उर्वरक और कीट नियंत्रण को अनुकूलित किया जा सके, संसाधन अपव्यय को न्यूनतम किया जा सके और उपज को अधिकतम किया जा सके। रोबोटिक्स श्रम-सघन कार्यों जैसे रोपाई, कटाई और निराई को स्वचालित कर रहे हैं, जिससे श्रमिकों की कमी को दूर किया जा रहा है और दक्षता में सुधार हो रहा है। इसके अलावा, प्रिसिजन रोपाई उपकरण और ऑटोनोमस ट्रैक्टर जैसी उन्नत यांत्रिक प्रौद्योगिकी खेत स्तर पर कार्यों को अधिक कुशल बनाते हैं। कृषि मशीनीकरण अनुसंधान के माध्यम से इन नवाचारों को विशिष्ट फसल और पर्यावरणीय परिस्थितियों के लिए लगातार अनुकूलित किया जा रहा है।
सस्टेनेबिलिटी और जलवायु सहनशीलता
संरक्षण कृषि, खेती की पद्धतियों में एक मौलिक बदलाव है। जीरो टिलेज और डायरेक्ट सीडिंग जैसी तकनीकों ने भूमि प्रबंधन में क्रांति ला दी है। इन विधियों के अनेक लाभ हैं - मिट्टी में नमी का संरक्षण, न्यूनतम जुताई के माध्यम से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और लाभदायक सूक्ष्मजीव गतिविधि को बढ़ावा देकर मृदा स्वास्थ्य में सुधार। सूखा प्रभावित क्षेत्र (लगभग 50%) के किसानों की आय बढ़ाना और लागत कम करना अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि हरित क्रांति ने इन क्षेत्रों को नजरअंदाज कर दिया था। इन्हें हरा-भरा बनाने के लिए उपयुक्त मशीनों के विकास की आवश्यकता है जो संरक्षण कृषि को अपनाने में सहायक हों। यह तकनीक पिछले दो दशकों में अर्जेंटीना, ब्राजील, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में काफी तेजी से विकसित हुई है। वैश्विक स्तर पर संरक्षण खेती को 20 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में अपनाया जाना इसकी प्रभावशीलता का प्रमाण है। भारत में भी इसका प्रयोग बढ़ रहा है, लेकिन इसके विस्तार की अभी काफी संभावना है। इंजीनियर भारत की विविध कृषि-जलवायु स्थितियों के अनुकूल तकनीक के विकास और अनुकूलन में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं, जिससे एक अधिक सतत और जलवायु-सहिष्णु कृषि प्रणाली का निर्माण संभव हो सकेगा।
माइक्रो-सिंचाई से पानी की बचत और उत्पादकता में वृद्धि
भारत के कई क्षेत्रों में जल संकट की समस्या बढ़ रही है। ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी माइक्रो-सिंचाई प्रणाली जल प्रबंधन के लिए एक क्रांतिकारी तरीका प्रदान करती हैं। पौधों की जड़ों तक सीधे जल पहुंचाकर वाष्पीकरण और बहाव के कारण होने वाले जल के नुकसान में कमी आती है। इन प्रणालियों के स्पष्ट लाभ के बावजूद, भारत में केवल 10% सिंचित भूमि ही इनके अंतर्गत है। कुल 14 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में से केवल 10 प्रतिशत क्षेत्र में माइक्रो-सिंचाई अपनाई गई है, जबकि यह 30 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। कृषि इंजीनियरिंग इस क्षेत्र में इन प्रणालियों की डिजाइनिंग, स्थापना और रख-रखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके अतिरिक्त, अनुसंधान और विकास का फोकस कम लागत वाली माइक्रो-सिंचाई तकनीक के विकास पर है जो छोटे किसानों के लिए उपयुक्त हों।
किसानों ने पारंपरिक कृषि पद्धतियों से परे ज्ञान की आवश्यकता जताई है, विशेष रूप से सेकेंडरी और स्पेशल्टी एग्रीकल्चर के संदर्भ में, और यह स्पष्ट किया है कि युवा अब खेती के सामान्य तरीकों में रुचि नहीं लेते। अतः हमें वर्टिकल फार्मिंग और संरक्षित खेती (protected cultivation) जैसी नई विधियों को बढ़ावा देना चाहिए। वर्तमान में संरक्षित खेती का क्षेत्र भारत में लगभग 70,000 हेक्टेयर है, जबकि चीन में यह 20 लाख हेक्टेयर तक पहुंच चुका है। यदि हमें 10 लाख हेक्टेयर तक पहुंचना है, तो इसके लिए एक आक्रामक और मिशन मोड में प्रयास करने की आवश्यकता है। इसमें कृषि इंजीनियरिंग की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।
युवाओं के लिए कौशल विकास
कृषि इंजीनियरिंग की पूर्ण क्षमता का लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि युवाओं को आधुनिक कृषि तकनीकों के संचालन और प्रबंधन के लिए आवश्यक ज्ञान और विशेषज्ञता प्रदान की जाए। ऐसे कौशल विकास कार्यक्रमों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, ड्रोन तकनीक और प्रिसिजन खेती के उपकरणों में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। इससे तकनीक में कुशल नई पीढ़ी के किसान और कृषि पेशेवर तैयार होंगे जो नवाचार को आगे बढ़ाएंगे और उत्पादकता में सुधार लाएंगे। ये कार्यक्रम स्थानीय समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुसार तैयार किए जाने चाहिए और इनमें व्यावहारिक अनुभव और प्रशिक्षण पर विशेष जोर होना चाहिए।
तकनीक की पहुंच सुनिश्चित करना जरूरी
आधुनिक कृषि उपकरणों की ऊंची लागत छोटे और सीमांत किसानों के लिए बड़ी बाधा है। कस्टम हायरिंग सेंटर की स्थापना से इस चुनौती का समाधान किया जा सकता है। ये सेंटर मशीनों की किराये पर उपलब्धता, मरम्मत, रखरखाव और उपकरणों के सही उपयोग का प्रशिक्षण जैसी सेवाएं प्रदान करते हैं। इससे आधुनिक तकनीक तक किसानों की पहुंच बढ़ेगी और वे अपनी उत्पादकता व लाभ में सुधार कर सकेंगे। एआई और रोबोटिक्स, विशेष रूप से ड्रोन के उपयोग से उर्वरक दक्षता में सुधार और नैनो टेक्नोलॉजी का प्रयोग प्रभावी रूप से किया जाना चाहिए। परंतु इन तकनीकों का पूर्ण लाभ उठाने के लिए युवाओं को प्रशिक्षित करना आवश्यक है।
हैप्पी सीडर जैसे उपकरण संरक्षण, मृदा स्वास्थ्य सुधार और बिना पराली जलाए गेहूं की बुवाई में सहायक हैं। लेकिन इनकी सीमित उपलब्धता एक बड़ी बाधा है। इसलिए, किसानों के सहकारी संगठनों, उत्पादक संगठनों, सरकारी एजेंसियों या उद्योगों द्वारा कस्टम हायरिंग केंद्र स्थापित करने की आवश्यकता है। ऐसे उपकरणों का उपयोग का सीमित समय (लगभग 20 दिन) के लिए होता है, इसलिए व्यक्तिगत निवेश व्यावहारिक नहीं है। कस्टम हायरिंग केंद्रों द्वारा सामुदायिक मॉडल को बढ़ावा देना आवश्यक है, जिनकी स्थापना कृषि विज्ञान केंद्र (KVKs) द्वारा भी की जा सकती है। साथ ही, युवाओं को निजी स्तर पर एक्सटेंशन सेवा प्रदाता के रूप में प्रशिक्षित करना भी लाभकारी होगा।
इसी प्रकार, संरक्षित खेती (जैसे ग्रीनहाउस) में निवेश की रुचि के बावजूद सफल संचालन के लिए फर्टिगेशन, वर्नलाइजेशन और सोलराइजेशन जैसी तकनीकों की आवश्यकता होती है। इन तकनीकों को अपनाने में इनोवेटिव एक्सटेंशन सेवाओं की अनुपलब्धता बाधक है। अतः, बड़ी कंपनियों को अपनी कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) पहल के अंतर्गत संस्थाओं का सहयोग करना चाहिए जिससे युवा सशक्त हों और सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा मिले।
सस्टेनेबिलिटी से जुड़ी चुनौतियों का समाधान
भारतीय कृषि संसाधनों की कमी, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षरण जैसी कई सस्टेनेबिलिटी संबंधी चुनौतियों का सामना कर रही है। कृषि इंजीनियरिंग इन चुनौतियों से निपटने और एक सतत कृषि प्रणाली को बढ़ावा देने में सहायक है।
(i) कार्बन फार्मिंग: संरक्षण कृषि की विधि, जिसमें मृदा स्वास्थ्य को बढ़ावा देने पर फोकस होता है, कार्बन का अवशोषण बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत यदि संरक्षण कृषि को अपनाए तो वह पेरिस समझौते के अंतर्गत 3 अरब टन कार्बन सिंक लक्ष्य प्राप्त करने में योगदान कर सकता है। कृषि इंजीनियरों को ऐसे इनोवेटिव उपकरणों के विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन को बढ़ाएं और मृदा स्वास्थ्य सुधारें।
(ii) कटाई के बाद नुकसान में कमी: भारत में कृषि उत्पादों का 6-7% हिस्सा कटाई के बाद खराब हो जाता है, जिसका कारण खराब भंडारण, प्रसंस्करण सुविधाओं की कमी और पैकेजिंग की अक्षमता है। यह न केवल आर्थिक नुकसान है, बल्कि खाद्य अपव्यय के रूप में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को भी बढ़ाता है। कृषि इंजीनियरिंग के जरिए बेहतर भंडारण, प्रसंस्करण और पैकेजिंग तकनीकों का विकास और कार्यान्वयन इस तरह के नुकसान को कम कर सकता है।
(iii) अक्षय ऊर्जा का इंटीग्रेशन: कृषि क्षेत्र में सिंचाई, कृषि कार्यों और प्रसंस्करण के लिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा की खपत होती है। सौर ऊर्जा और बायोगैस जैसी अक्षय ऊर्जा का उपयोग जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को कम कर सकता है। सौर ऊर्जा चालित सिंचाई पंप और कृषि अपशिष्ट से ऊर्जा उत्पन्न करने वाले बायोगैस संयंत्र इसके उदाहरण हैं। कृषि इंजीनियर ऐसे तकनीकी समाधान विकसित कर रहे हैं जो कम लागत में किसानों के अनुकूल हों।
आगे की राह
भारतीय कृषि में कृषि इंजीनियरिंग शिक्षा और अनुसंधान का प्रभाव बढ़ाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाने की आवश्यकता है:
(i) पाठ्यक्रम में बदलाव: कृषि इंजीनियरिंग शिक्षा में पारंपरिक डिग्री कार्यक्रमों के साथ-साथ व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम भी जोड़े जाने चाहिए ताकि छात्र व्यावहारिक कौशल और उद्यमशीलता की भावना से युक्त हों। इससे महिलाओं समेत युवाओं के लिए हम नए अवसर पैदा कर सकते हैं।
(ii) सेकंडरी कृषि पर फोकस: प्रसंस्कृत खाद्य जैसे मूल्य संवर्धित उत्पादों में विविधता से किसान की आय बढ़ाई जा सकती है और ग्रामीण क्षेत्रों में नए आर्थिक अवसर पैदा किए जा सकते हैं। कृषि इंजीनियरिंग प्रसंस्करण, पैकेजिंग और संरक्षण तकनीकों के विकास में अहम भूमिका निभा सकती है।
(iii) नवाचार का विस्तार: ऐसी सक्षम नीतियों के विकास की आवश्यकता है जो डिसरप्टिव तकनीक को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें, जिससे कृषि उत्पादकता और सस्टेनेबिलिटी में महत्वपूर्ण सुधार हो सके और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को रूपांतरित किया जा सके। इन तकनीकों में प्रिसिजन खेती (Precision Farming) के उपकरण, ड्रोन तकनीक और एआई आधारित कृषि समाधान शामिल हो सकते हैं। भारत में खेती के तरीके, मिट्टी, कृषि पारिस्थितिकी तंत्र और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां विविध हैं, इसलिए जरूरत आधारित मशीनीकरण आवश्यक है, ताकि भौगोलिक रूप से भिन्न उत्पादन प्रणालियों को लक्षित किया जा सके।
(iv) किसानों को ज्ञान से सशक्त बनाना: किसानों को नई तकनीक और आधुनिक कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिए आवश्यक जानकारी और तकनीकी सहायता सुनिश्चित करने के मकसद से कृषि एक्सटेंशन सेवाओं (Extension Services) को मजबूत बनाने में निवेश करना अत्यंत आवश्यक है। युवाओं को AI, रोबोटिक्स, ड्रोन तकनीक, संरक्षित खेती (Protected Cultivation) और फर्टिगेशन जैसी उन्नत तकनीक के लिए निजी एक्सटेंशन सेवाएं प्रदान करने हेतु प्रशिक्षित करना, न केवल नए रोजगार के अवसर पैदा करेगा बल्कि कृषि एक्सटेंशन सेवाओं की गुणवत्ता को भी बेहतर बनाएगा।
(v) नवाचार के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी: सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) अनुसंधान के परिणामों के व्यावसायीकरण को गति देने और उन्हें जमीनी स्तर तक अपनाए जाने का एक प्रभावशाली माध्यम है। सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की विशेषज्ञता और संसाधनों का लाभ उठाकर, ऐसी भागीदारी भारतीय कृषि के सामने मौजूद महत्वपूर्ण चुनौतियों से निपटने के लिए नवीन कृषि तकनीक के विकास और उनके कार्यान्वयन को सुगम कर सकते हैं। पीपीपी किसानों को नई तकनीक की जानकारी और तकनीकी सहायता प्रदान करने वाली एक्सटेंशन सेवाओं की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। शैक्षणिक संस्थानों, उद्योग और सरकार के बीच सहयोग को बढ़ावा देकर पीपीपी इनोवेशन को प्रोत्साहित कर सकते हैं और एक अधिक जीवंत, आधुनिक तथा टिकाऊ कृषि क्षेत्र का निर्माण कर सकते हैं।
निष्कर्ष
कृषि इंजीनियरिंग भारत की कृषि प्रगति का आधार बन चुकी है। यह उत्पादकता, सस्टेनेबिलिटी और ग्रामीण जीवनयापन की चुनौतियों से निपटने में अहम भूमिका निभा रही है। कृषि अब केवल उत्पादन तक सीमित नहीं है, यह मूल्य निर्माण का माध्यम बन चुकी है। नवाचार-आधारित विकास, शिक्षा और अनुसंधान के माध्यम से भारत न केवल सतत कृषि में वैश्विक नेतृत्व हासिल कर सकता है, बल्कि किसानों की समृद्धि भी सुनिश्चित कर सकता है। इसके लिए उद्योग, शिक्षा जगत और किसानों के संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है।
(लेखक ट्रस्ट फॉर एडवांसमेंट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (TAAS) के प्रेसिडेंट, DARE के पूर्व सचिव एवं ICAR के पूर्व महानिदेशक हैं)