महंगाई को नियंत्रित रखने में हम दूसरों से बेहतर कर सकते हैं

खुदरा महंगाई की 4% (इससे 2% कम या ज्यादा) की सीमा को हम सितंबर 2020 में ही पार कर चुके थे। थोक महंगाई भी 18 महीने से दोहरे अंकों में बनी हुई है। सितंबर 2022 में खुदरा महंगाई 7.41% और थोक महंगाई 10.7% दर्ज हुई है। इस साल जनवरी से रुपया 10% कमजोर हो चुका है। यह स्थिति तब है जब रिजर्व बैंक बीते एक साल में भारतीय करेंसी को संभालने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार से 90 अरब डॉलर खर्च कर चुका है

महंगाई को नियंत्रित रखने में हम दूसरों से बेहतर कर सकते हैं

दुनिया इन दिनों महंगाई के ऐसे दौर का सामना कर रही है जैसा कई दशकों में नहीं देखा गया था। हालांकि भारत की स्थिति उतनी बुरी नहीं जितनी अन्य देशों की है। भारत में भी लोग महंगाई का सामना कर रहे हैं लेकिन यह तथ्य उनके लिए एक राहत की बात है। स्थिति अवांछनीय है और सरकार तथा रिजर्व बैंक को उसे संभालने के लिए आगे आना पड़ेगा। यहां लोग दोहरे संकट का सामना कर रहे हैं। एक तो महंगाई अधिक है और दूसरे रुपया कमजोर हो रहा है।

खुदरा महंगाई की 4% (इससे 2% कम या ज्यादा) की सीमा को हम सितंबर 2020 में ही पार कर चुके थे। थोक महंगाई भी 18 महीने से दोहरे अंकों में बनी हुई है। सितंबर 2022 में खुदरा महंगाई 7.41% और थोक महंगाई 10.7% दर्ज हुई है। इस साल जनवरी से रुपया 10% कमजोर हो चुका है। यह स्थिति तब है जब रिजर्व बैंक बीते एक साल में भारतीय करेंसी को संभालने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार से 90 अरब डॉलर खर्च कर चुका है।

महंगाई पर अपने पिछले लेखों में मैंने बताया था कि महंगाई अलग-अलग स्तर पर लोगों को किस तरह प्रभावित कर रही है। निष्पक्षता के साथ कहा जाए तो अमेरिका, इंग्लैंड या अन्य कई विकसित देश जितनी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं वैसी स्थिति भारत की नहीं है। लेकिन हमें पाकिस्तान और श्रीलंका से भी अपनी तुलना नहीं करनी चाहिए क्योंकि उन्होंने भारत की तरह खुद को विकसित देशों में गिने जाने का लक्ष्य नहीं रखा है। लेकिन यह भी हकीकत है कि विकसित देशों की तुलना में भारतीय ज्यादा परेशानी में हैं।

ऐसा आखिर क्यों है। इसका जवाब आसान है- हमारी प्रति व्यक्ति आय विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है। वे बड़ा झटका सहने की स्थिति में हैं लेकिन हम नहीं। हमारी प्रति व्यक्ति सालाना आय 2,500 डॉलर से कुछ कम है जबकि अमेरिका में लोगों की प्रति व्यक्ति सालाना आय हमारी तुलना में कम से कम 20 गुना ज्यादा है। इस स्थिति को अमीर बनाम बहुत कम अमीर कह सकते हैं। ऐसी हालत में महंगाई से अधिक कौन प्रभावित होगा?

महंगाई को नियंत्रित रखने के उपाय के बारे में बात करें तो इसके दो पारंपरिक तरीके रहे हैं। एक है मांग कम करना, अमेरिका का फेडरल रिजर्व इस तरीके पर आगे बढ़ रहा है जिससे वहां मंदी की आशंका व्यक्त की जा रही है। दूसरा तरीका है सप्लाई बढ़ाने का, जिससे उत्पादन बढ़ेगा और ज्यादा संख्या में लोगों को नौकरियां भी मिलेंगी। भारत को इस दूसरे विकल्प पर ही विचार करते हुए सप्लाई बढ़ाने के साथ बेहतर सप्लाई मैनेजमेंट पर भी ध्यान देना चाहिए।

थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़ों पर नजर डालें तो आपको सप्लाई मैनेजमेंट की स्थिति का अंदाजा मिलेगा और यह भी कि उसमें अभी कितनी बेहतरी की गुंजाइश है। सितंबर में आलू के दाम सालाना आधार पर 50% बढ़ गए जबकि प्याज के दामों में 21% की गिरावट है। आलू और प्याज दोनों हमारी रसोई की आवश्यक वस्तुएं हैं और इन पर सूखा, अधिक बारिश या अन्य किसी बाधा का काफी असर होता है। हालांकि सामान्य परिस्थितियों में दोनों आवश्यक जिंसों का उत्पादन पर्याप्त होता है, इसके बावजूद सालों से हम इनके दाम में काफी उतार-चढ़ाव देखते आ रहे हैं। इससे उपभोक्ताओं और किसानों दोनों को नुकसान होता है। यह सप्लाई मैनेजमेंट में खामी का एक बेहतरीन उदाहरण है।

सरकार के थोक मूल्य सूचकांक चार्ट में आलू, प्याज और सब्जियों को अलग-अलग हेड के तहत रखा गया है। अप्रैल 2022 से 6 महीने के दौरान सब्जियों के दाम सालाना आधार पर 18% या उससे अधिक ही बढ़े हैं। सितंबर में मंडियों में सब्जियों की कीमत पिछले साल की तुलना में 40% अधिक थी। आलू में भी यही देखने को मिला। इसमें अप्रैल से सितंबर के बीच 19.84% से 50% तक वृद्धि हुई है।य़ लेकिन प्याज की कहानी कुछ अलग है जिसने इस बार किसानों को रुलाया है। अप्रैल से इसके दाम लगातार नीचे रहे हैं। सितंबर में इसकी कीमत में 21% की गिरावट रही।

जहां तक प्राथमिक खाद्य वस्तुओं की बात है तो हम सप्लाई में आने वाली विभिन्न समस्याओं की ओर उंगली उठा सकते हैं। हमारे कोल्ड स्टोरेज इंफ्रास्ट्रक्चर, सप्लाई चेन मैनेजमेंट, रेगुलेटरी मेकैनिज्म और व्यापारी समुदाय के मानक श्रेष्ठ नहीं कहे जा सकते। इसके लिए हम रूस-यूक्रेन युद्ध को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते।

क्रूड पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस को छोड़ दें तो बाकी वस्तुओं के लिए हर बार वैश्विक कारकों को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं है। हालांकि पेट्रोलियम महंगा होने का असर दूसरी वस्तुओं पर भी पड़ता है। सच्चाई तो यही है कि अनेक वस्तुओं, खास कर खाने-पीने की चीजों के स्टॉक और सप्लाई को स्मार्ट इन्वेंटरी और बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर से सुधारा जा सकता है।

(प्रकाश चावला सीनियर इकोनॉमिक जर्नलिस्ट है और आर्थिक नीतियों पर लिखते हैं)

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