खाद्य पदार्थों के नुकसान और इनकी बर्बादी से बढ़ती खाद्य असुरक्षा 

देश में आर्थिक सुधार लागू होने के बाद विकास की गति तो बढ़ी लेकिन बड़ी संख्या में भारतीय अब भी कुपोषित हैं। फसलों, मवेशियों और फिशरीज की उत्पादकता बढ़ाने कृषि तथा इससे संबंधित क्षेत्रों में जलवायु रोधी टेक्नोलॉजी का विकास करने के प्रयास जारी रहने चाहिए, लेकिन इसके साथ खाद्य पदार्थों के नुकसान और उनकी बर्बादी को भी केंद्र में लाने की महती आवश्यकता है। खाद्य पदार्थों के नुकसान में कमी तो सरकार की नीतियों और पहल से ही होगी, लेकिन इनकी बर्बादी कम करने की पहल बिजनेस और भारत के अमीर तथा मध्य वर्ग की तरफ से होनी चाहिए

खाद्य पदार्थों के नुकसान और इनकी बर्बादी से बढ़ती खाद्य असुरक्षा 

जैसे-जैसे हम उथल-पुथल भरे वर्ष 2022 को पार कर चुके हैं खाद्य सुरक्षा कई देशों में संकटपूर्ण स्थिति बनती जा रही है। कोविड-19 महामारी और उसके बाद उपजी परिस्थितियों के कारण बड़ी संख्या में लोग अल्पपोषित या कुपोषित हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने ऐसे लोगों के आंकड़ों का आकलन किया है जिनका रोज का भोजन उनकी सामान्य गतिविधियों और स्वस्थ जीवन के लिए अपर्याप्त है। यह आंकड़े काफी चिंतित करने वाले हैं। विश्व की कुल आबादी में ऐसे लोगों का अनुपात 2019 में 8% था जो 2020 में 9.3% हो गया। 2021 में इनका अनुपात बढ़कर 9.8% हो गया। इसका मतलब यह है कि 2021 में करीब 82.8 करोड़ लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिला और उन्हें भूखे रहना पड़ा।

अफ्रीका के अनेक देशों में एक तिहाई से अधिक आबादी कुपोषण का शिकार है। भारत में भी गरीबों को ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। हालांकि विपरीत वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद भारत में खाद्य महंगाई अपेक्षाकृत कम है। अक्टूबर 2022 में कोर खुदरा महंगाई दर (खाद्य और ईंधन को छोड़कर) 6% से अधिक थी। लेकिन विश्व स्तर पर खाद्य महंगाई के लिए जिम्मेदार कई कारकों का प्रभाव भारत में उतना अधिक नहीं था।

आईएमएफ के अक्टूबर में प्रकाशित एक ब्लॉग में बताया गया कि ज्यादातर देशों में खाद्य महंगाई ऊंची रहने के चार प्रमुख कारण थे। ग्लोबल स्तर पर 2022 में इन सभी कारणों का प्रभाव रहा, लेकिन भारत में कई कारणों से इनका असर विपरीत रहाः-

-ग्लोबल स्तर पर उपज एक प्रतिशत घटने से खाद्य कमोडिटी के दाम 8.5 प्रतिशत बढ़ जाते हैं। यह भारत में भी दिखा जब रबी 2021-22 के मौसम में मार्च-अप्रैल 2022 के दौरान तापमान अधिक होने से गेहूं का उत्पादन प्रभावित हुआ।

-अमेरिका का फेडरल रिजर्व ब्याज दर 1% बढ़ाता है तो खाद्य कमोडिटी के दाम एक तिमाही के बाद 13% कम हो जाते हैं।

रिजर्व बैंक अप्रैल 2022 से रेपो दर (जिस ब्याज दर पर आरबीआई बैंकों को कर्ज देता है) 225 आधार अंक बढ़ा चुका है। यह फेडरल रिजर्व द्वारा की गई बढ़ोतरी से कम है जिसने इसी अवधि में ब्याज दर में 350 आधार अंकों की बढ़ोतरी की है, लेकिन खाद्य पदार्थों के दाम इस दौरान 13% नहीं घटे।

-हाल में प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ने से उर्वरक भी महंगे हुए हैं। उर्वरकों की कीमतें 1% बढ़ने से खाद्य कमोडिटी की कीमत 0.45% बढ़ जाती है। हालांकि भारत में उर्वरक, खासकर यूरिया पर केंद्र सरकार काफी सब्सिडी देती है। वित्त वर्ष 2022-23 में कुल उर्वरक सब्सिडी 2.5 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की संभावना है जबकि पिछले साल यह 1.6 लाख करोड़ रुपए थी।

-कच्चा तेल 1% महंगा होने पर खाद्य कमोडिटी के दाम 0.2% बढ़ जाते हैं। पश्चिम की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और चीन में मंदी की आशंका के चलते कच्चा तेल हाल के दिनों में सस्ता हुआ है। 9 दिसंबर 2022 को ब्रेंट क्रूड की कीमत 76.10 डॉलर प्रति बैरल थी। यह इस साल इस के सबसे ऊंचे स्तर 123.70 डॉलर प्रति बैरल की तुलना में बहुत कम है।

खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। खासकर रूस के हमले और काला सागर के बंदरगाहों से निर्यात बाधित होने के चलते यूक्रेन से गेहूं, मक्का और सनफ्लावर ऑयल का निर्यात रुकने के बाद। लेकिन किसी भी देश में खाद्य पदार्थों के नुकसान और उनकी बर्बादी पर नीति निर्माता पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं। यहां खाद्य पदार्थों के नुकसान का मतलब फसल की कटाई से लेकर थोक विक्रेता, प्रोसेसर और रिटेलर तक पूरी चेन में होने वाला नुकसान है। इस सप्लाई चेन के हर स्टेज में मात्रा (और कुछ हद तक क्वालिटी) का नुकसान होता है।

उपभोक्ता जब खाद्य पदार्थों का नुकसान करता है तो उसे बर्बादी कहते हैं। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय ने वर्ष 2013-14 में आईसीएआर को खाद्य पदार्थों के नुकसान का आकलन करने का जिम्मा दिया था। सर्वे आधारित वह स्टडी सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (सीफेक्ट) और इंडियन एग्रीकल्चरल स्टैटिसटिक्स रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएएसआरआई) ने की थी। नुकसान की वास्तविक मात्रा पर आधारित वह स्टडी फसलों, फिशरीज, दूध, पोल्ट्री, मीट, फल और सब्जियों पर की गई। उस स्टडी में उत्पाद के सूखने/नमी कम होने, किचन और खाने की मेज पर होने वाले नुकसान को नहीं जोड़ा गया। क्वालिटी और मूल्य के नुकसान, नाम अथवा प्रतिष्ठा को नुकसान, बीज की क्वालिटी को नुकसान आदि को भी नहीं जोड़ा गया क्योंकि इस तरह के नुकसान का मात्रा में आकलन नहीं किया जा सकता था।

उस स्टडी में 92,651 करोड़ रुपए के खाद्य पदार्थों के नुकसान का आकलन किया गया। नीचे दिए गए टेबल में सप्लाई चेन में होने वाले नुकसान का ब्योरा दिया गया है। सप्लाई चेन में होने वाले नुकसान की जानकारी के बावजूद जन जागरूकता और सरकारी हस्तक्षेप जिस स्तर पर होना चाहिए वह नहीं दिखता है। बेहतर उत्पादकता वाले बीज, जलवायु के लिए प्रतिरोधी क्षमता वाले पौधों, पानी बचाने के लिए सिंचाई की बेहतर सुविधाएं और कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर पर सब्सिडी के लिए तो बड़े पैमाने पर काम हो रहा है, लेकिन खाद्य पदार्थों का नुकसान कम करने पर ज्यादा निवेश नहीं हो रहा है।

अनेक राज्यों में एपीएमसी मौजूद नहीं है या उसका इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत कमजोर है। जिन राज्यों में एपीएमसी अपेक्षाकृत मजबूत और बेहतर प्रबंधन वाला है वहां भी किसानों की उपज को नीलामी के फ्लोर पर पटक दिया जाता है। किसान अक्सर आपने भंडार से एपीएमसी तक उपज को बहुत ही खराब क्वालिटी के सेकंड हैंड गनी (टाट) बैग में लेकर जाते हैं। एपीएमसी में बिक्री के पहले बिंदु से आगे की जगह तक भी उन वस्तुओं को गनी बैग में ही ले जाया जाता है। बहुत कम एपीएमसी में उपज को सुखाने, उनकी छंटाई और ग्रेडिंग की सुविधा है। इस पूरी प्रक्रिया में न सिर्फ खाद्य पदार्थों का नुकसान होता है, बल्कि किसानों के साथ भी गलत हिसाब किया जाता है क्योंकि नीलामी से पहले उनकी उपज की टेस्टिंग का कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं होता। उदाहरण के लिए, राजस्थान के एपीएमसी में किसान जो सरसों लेकर आते हैं उन्हें सिर्फ देख कर ही तय कर दिया जाता है कि उसमें तेल की मात्रा कितनी होगी। किसान के पास कमीशन एजेंट द्वारा इस तरह से तय की गई दर को स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है।

ज्यादातर राज्यों में वेयरहाउसिंग की क्वालिटी भी बेहद खराब है। वेयरहाउसिंग (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 2007 लागू होने के बाद भी डब्लूडीआरए के पास इनका रजिस्ट्रेशन अभी तक आवश्यक नहीं किया गया है। बैंक भी रजिस्टर्ड वेयरहाउस में कमोडिटी रखने पर जोर नहीं देते हैं। बैंक उनके बदले जो कर्ज देते हैं, वह थर्ड पार्टी कोलेटरल के आधार पर होता है। इसका नतीजा यह है कि वेयरहाउसिंग के विकास के लिए एक दूरदर्शी रोड मैप का अभाव लगातार बना हुआ है। देश में अभी सिर्फ 3444 वेयरहाउस डब्लूडीआरए के पास रजिस्टर्ड हैं। भारत के सबसे एडवांस कृषि राज्य पंजाब में 27 रजिस्टर्ड वेयरहाउस हैं। इनमें से 24 सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन (सीडब्ल्यूसी) के हैं। निजी स्वामित्व वाले सिर्फ तीन वेयरहाउस रजिस्टर्ड हैं।

खाद्य पदार्थों के नुकसान का अनुमान

फसल /उत्पाद 

 नुकसान  (%)

 चावल

5.5%

 गेहूं

4.9%

 मक्का

4.7%

 आलू

7.3%

 टमाटर

12.4%

 फूलगोभी

9.6%

बंदगोभी

9.4%

प्याज

8.2%

सेब 

10.4%

 अंगूर

8.6%

 केला

7.8%

 अंडा

7.2%

 मछली (समुद्री)

10.5%

 दूध

0.9%

मीट (भेड व बकरी) 

2.7%

(स्रोतः सीफेट-आईएएसआरआई स्टडी, 2015)

जिन राज्यों में एपीएमसी कमजोर है, खासकर पूर्वी राज्यों में, किसान अपनी उपज लेकर गांव के हाट में आते हैं। 2018-19 के केंद्रीय बजट में जब किसानों की आय दोगुनी करना सरकार की प्राथमिकता में था, तब यह घोषणा की गई थी कि देशभर के 22000 ग्रामीण हॉट को अपग्रेड करके ग्रामीण कृषि बाजार (GrAM) बनाया जाएगा। अभी तक कितने हाट अपग्रेड किए गए हैं इसकी कोई जानकारी नहीं है। इन हाटों में खासकर छोटे और सीमांत किसान जो उपज लेकर आते हैं उनका नुकसान होता है।

सप्लाई चेन में होने वाले नुकसान को कम करने के लिए मार्केटिंग इंफ्रास्ट्रक्चर में और अधिक निवेश की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि 2023-24 के बजट में इसके लिए अधिक संसाधन का प्रावधान किया जाएगा। देश में खाद्य पदार्थों के नुकसान को लेकर जागरूकता तो है, उपभोक्ता के स्तर पर होने वाली बर्बादी को लेकर बहुत कम शोध किए गए हैं।

वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट और फूड एंड लैंड यूज (FOLU) कोलिशन ने एक वर्किंग पेपर (फूड लॉस एंड वेस्ट इन इंडियाः द नोन्स एंड द अननोन्स, 2021) में यह समझने का प्रयास किया है कि भारत में खाद्य पदार्थों की कितनी बर्बादी होती है। उस स्टडी में पता चला कि घरेलू स्तर पर इस तरह के नुकसान का कोई आंकड़ा ही नहीं है। इस नुकसान पर 22 अध्ययन हुए लेकिन सिर्फ 10 में प्राथमिक आंकड़े जुटाए गए।

रिपोर्ट में कहा गया है कि शादियों और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में काफी मात्रा में खाद्य पदार्थों की बर्बादी होती है। होटलों में खाना पकाने के तरीके में कमी और अधिक खाना बनाने के कारण भी काफी खाना नष्ट होता है।

खाद्य पदार्थों की बर्बादी पर पर्याप्त अध्ययन ना होने का एक कारण यह है कि सरकार के किसी भी मंत्रालय के पास इसे कम करने की जिम्मेदारी नहीं है। वर्ष 2011 में तत्कालीन केंद्रीय खाद्य मंत्री के. वी. थॉमस ने राज्यों के सामने यह मुद्दा उठाया था। उन्होंने आग्रह किया था कि माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर स्कूल पाठ्यक्रमों में खाद्य पदार्थों की बर्बादी को एक विषय के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने शादियों और अन्य मौकों पर बड़ी संख्या में खाने के आइटम तैयार करने के चलन का भी जिक्र किया जिनकी वजह से खाद्य पदार्थों की बर्बादी अधिक होती है।

इस बर्बादी को कम करने के महत्व को पहचानने के क्षेत्र में इंग्लैंड ने एक सफल उदाहरण पेश किया है। वहां 2000 में वेस्ट एंड रिसोर्सेज एक्शन प्रोग्राम (डब्ल्यूआरएपी) नाम से एक ब्रिटिश चैरिटी की स्थापना की गई। यह एक गैर सरकारी संगठन है। इसलिए खाद्य पदार्थों की बर्बादी कम करने के इसके लक्ष्य से बिजनेस, व्यक्ति और समुदाय के लिए जुड़ना आसान हो गया है। यह लोगों के बीच या जागरूकता फैलाने में कामयाब रहा है कि मानव जनित ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 8 से 10% योगदान खाद्य पदार्थों के नुकसान और बर्बादी का है। यानी चीन और अमेरिका के बाद सबसे अधिक उत्सर्जन खाद्य पदार्थों के नुकसान और बर्बादी से ही होता है। यह दावा किया जाता है कि विभिन्न पक्षों के हस्तक्षेप के कारण इंग्लैंड में रिटेल और मैन्युफैक्चरिंग की प्रक्रिया में 2007 से खाद्य पदार्थों की बर्बादी 18% कम हुई है।

1991 में आर्थिक सुधार लागू होने के बाद विकास की गति तो बढ़ी लेकिन बड़ी संख्या में भारतीय अब भी कुपोषित हैं। फसलों, मवेशियों और फिशरीज की उत्पादकता बढ़ाने कृषि तथा इससे संबंधित क्षेत्रों में जलवायु रोधी टेक्नोलॉजी का विकास करने के प्रयास जारी रहने चाहिए, लेकिन इसके साथ खाद्य पदार्थों के नुकसान और उनकी बर्बादी को भी केंद्र में लाने की महती आवश्यकता है। खाद्य पदार्थों के नुकसान में कमी तो सरकार की नीतियों और पहल से ही होगी, लेकिन इनकी बर्बादी कम करने की पहल बिजनेस और भारत के अमीर तथा मध्य वर्ग की तरफ से होनी चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2017 में अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में खाद्य पदार्थों की बर्बादी कम करने की जरूरत की बात कही थी। अगर सरकार इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करे तो आने वाले वर्षों में नुकसान और बर्बादी को निश्चित रूप से कम किया जा सकता है।

(लेखक भारत सरकार के कृषि मंत्रालय और खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं। अभी वह फिक्की में फूड प्रोसेसिंग विभाग के सलाहकार हैं) 

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