‘मुफ्त अनाज वितरित करने का फैसला सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य हासिल करने की दिशा में साहसिक कदम’

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (NFSA) को पूरी दुनिया में गरीबों की चिंता दूर करने का अनोखा कानून माना जाता है। इससे उन्हें कम कीमत में खाद्य और पोषण सुरक्षा मिलती है, आर्थिक स्थिरता आती है, साथ ही इसके दीर्घकालिक स्वास्थ्य फायदे हैं। यह महिला सशक्तीकरण और पर्यावरण सुरक्षा की दिशा में भी बड़ा कदम है

‘मुफ्त अनाज वितरित करने का फैसला सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य हासिल करने की दिशा में साहसिक कदम’

सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (SDG) को हासिल करने की संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता के तहत भारत को 2030 तक गरीबी खत्म करने (नो पॉवर्टी) और किसी को भूखा ना छोड़ने (जीरो हंगर) का लक्ष्य हासिल करना है। इस विशाल लक्ष्य को हासिल करने के लिए निश्चित रूप से सरकार की तरफ से प्रतिबद्धतापूर्ण कार्रवाई और नीतिगत समर्थन की जरूरत है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए 2013) के तहत हाल में कैबिनेट ने खाद्य सब्सिडी बढ़ाने का फैसला किया है। यह वास्तव में सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य (एसडीजी) को हासिल करने की दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक साहसिक कदम है।

आजादी के बाद हरित, श्वेत, नीली और रेनबो क्रांतियों के जरिए कृषि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियों के कारण भारत घरेलू खाद्य सुरक्षा और हासिल करने और गरीबी का स्तर 70% से घटाकर 16.4% कम करने में सफल रहा है। भूख की समस्या भी काफी हद तक खत्म हुई है। इसके बावजूद भारत में 5 साल से कम उम्र के 57 लाख बच्चे (लगभग 40%) कुपोषण के शिकार हैं (यूनिसेफ, मई 2022)। इस कुपोषण के प्रमुख कारणों में आर्थिक असमानता, गरीबी, लोगों के लिए खाद्य पदार्थों का महंगा होना, साफ-सफाई और स्वच्छ पेयजल की कमी शामिल हैं।

केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्री पीयूष गोयल ने लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) के माध्यम से 81.35 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज मुफ्त में वितरित करने की जो घोषणा की है, वह प्रशंसा के योग्य है। इसके अतिरिक्त अंत्योदय अन्न योजना (AAY) के तहत बेहद गरीब परिवारों को 35 किलो अनाज (21 किलो चावल और 14 किलो गेहूं) देने से राजस्व पर दो लाख करोड़ रुपए का सालाना बोझ आएगा। लेकिन इन पहलों से गरीबों को सस्ता भोजन उपलब्ध हो सकेगा।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (NFSA) को पूरी दुनिया में गरीबों की चिंता दूर करने का अनोखा कानून माना जाता है। इससे उन्हें कम कीमत में खाद्य और पोषण सुरक्षा मिलती है, आर्थिक स्थिरता आती है, साथ ही इसके दीर्घकालिक स्वास्थ्य फायदे हैं। यह महिला सशक्तीकरण और पर्यावरण सुरक्षा की दिशा में भी बड़ा कदम है। भारत इस लिहाज से भी सौभाग्यशाली है कि इसके पास एक दशक से पांच से सात करोड़ टन का बफर स्टॉक रहता है। दूसरी ओर, विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के अनुसार अनेक विकासशील देशों में खाद्य की उपलब्धता प्रमुख समस्या बनती जा रही है।

कोविड-19 महामारी के दौरान दुनियाभर में 15 करोड़ नए लोगों के सामने खाद्य सुरक्षा का संकट उत्पन्न हो गया। यह संख्या पहले से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 80 करोड़ लोगों के अतिरिक्त है। कोविड-19 से पहले दुनिया में 81.5 करोड़ लोगों के भूखे होने और हर तीसरे व्यक्ति के कुपोषित थे। यह खाद्य प्रणाली के असंतुलन को दर्शाता है।

माइग्रेशन का मौजूदा संकट भी बीते 70 वर्षों में सबसे ऊंचे स्तर पर है। जमीन और पानी जैसे संसाधनों के सीमित होने के चलते ग्रामीण लोगों के बीच सामाजिक सामंजस्य और सांस्कृतिक परंपराओं के लिए खतरा उत्पन्न होता जा रहा है। विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार युद्ध, जलवायु संकट और कोविड-19 महामारी के कारण पूरी दुनिया में खाद्य संकट बढ़ा है। यह संकट मूलतः यूक्रेन रूस युद्ध से शुरू हुआ जिसकी वजह से खाद्य पदार्थ, ईंधन और उर्वरकों के दाम बढ़ गए। अगर विकासशील देशों ने मिलकर और बड़े पैमाने पर प्राथमिकता के साथ कदम नहीं उठाए तो अनेक देशों में करोड़ों लोगों के सामने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।

सौभाग्यवश भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (NFSA) और अंत्योदय अन्न योजना (AAY) के अलावा राष्ट्रीय पोषण मिशन भी लागू है। इसे पोषण अभियान भी कहा जाता है। इसका उद्देश्य अविकसित बच्चों की संख्या घटाकर 25% करना है। मध्यान्ह भोजन योजना (1995) को प्रभावी रूप से लागू करके बच्चों में कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती है। इसके लिए दूध, दाल और सोयाबीन का इस्तेमाल बढ़ाने की रणनीति अपनाई जानी चाहिए। सोयाबीन में दालों की तुलना में दोगुना प्रोटीन (40%) होता है।

28 महीने पहले कोविड-19 महामारी के समय शुरू की गई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY) को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में विलय करना और 81.35 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज मुफ्त में देना दीर्घकालिक सस्टेनेबिलिटी की दिशा में एक और कदम है। खासकर यह मानते हुए कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल को हासिल करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2030 तक लागू रहेगा। इसके अतिरिक्त यह समीक्षा करने की भी जरूरत है कि सभी 81 करोड़ (लगभग 58%) लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मदद की आवश्यकता है या नहीं। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), जिसे 2006 में शुरू किया गया था और जिस पर अभी सालाना खर्च लगभग 98000 करोड़ रुपए है, ने गरीबी एक तिहाई 32% कम करने में मदद की है।

2015-16 की 10वीं कृषि जनगणना के अनुसार देश में 14.6 करोड़ किसान परिवार हैं। इनमें से 86.2 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ये कुल खेती योग्य जमीन के 45.6 प्रतिशत हिस्से पर खेती करते हैं। देश के कुल कृषि उत्पादन में इनकी हिस्सेदारी 50% से ज्यादा है। ये छोटे और सीमांत किसान भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

इस बात को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल एक बेहतर कल को हासिल करने में कृषि क्षेत्र को अनोखा अवसर प्रदान करता है, क्योंकि दुनिया में सबसे अधिक अल्प पोषित और गरीब भारत में ही हैं। अर्थात इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कृषि क्षेत्र के विकास की गति बढ़ानी पड़ेगी। यह भी स्पष्ट है कि इसमें आत्मसंतुष्टि की कोई जगह नहीं है। विकास के लिए कृषि अनुसंधान (AR4D) को उच्च प्राथमिकता देना जरूरी है। इसके लिए आईसीएआर का बजट आवंटन बढ़ाना पड़ेगा जो बीते एक दशक से स्थिर बना हुआ है। देखा जाए तो AR4D मैं निवेश पर मिलने वाला रिटर्न 10 से 15 गुना होता है। यह शिक्षा, ऊर्जा, सड़क परिवहन, इन्फ्राट्रक्चर जैसे अन्य सेक्टर में मिलने वाले रिटर्न की तुलना में काफी ज्यादा है।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल भारत के लिए अवसर के साथ भविष्य का विजन भी है। यह स्पष्ट है कि विश्व स्तर पर लक्षित समय (2030) के भीतर सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल को हासिल करने के लिए जरूरी है कि भारत केंद्रीय पटल पर उभरे। संभवतः इसके बिना संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकेगा। इस लिहाज से एक सुनियोजित रणनीति और उस पर अमल की योजना की जरूरत हैः-

1. कृषि विकास को मिशन मोड के तहत आगे बढ़ाना जिसमें यह बातें शामिल हों- i) पोषण से भरपूर और अधिक उत्पादकता वाली वैरायटी तथा हाइब्रिड फसलों को बढ़ावा, ii) सरसों, सोयाबीन, मक्का जैसी जीएम खाद्य फसलों को अपनाना, iii) फसलों का विविधीकरण और सस्टेनेबल गहनता के लिए कंजर्वेशन कृषि, iv) सेकेंडरी और विशिष्टता वाली खेती को बढ़ावा मजबूत बनाना, v) स्थानीय खाद्य प्रणाली को इको क्षेत्र के हिसाब से बढ़ावा देना, जिसमें फसलों, बागवानी, मवेशी, फिशरीज, एग्रोफोरेस्ट्री इत्यादि पर जोर हो।

2. जो क्षेत्र हरित क्रांति से अछूते रह गए वहां सस्टेनेबल डेवलपमेंट इंडेक्स (SDI) सुधारने के लिए नीतिगत वातावरण और संस्थानों को मजबूत बनाना, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां कृषि विकास की दर बढ़ाने के लिए जरूरी प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

3. ग्रामीण क्षेत्र को कर्ज, स्वास्थ्य बीमा, फसल बीमा, मवेशियों का बीमा, गरीबों को आवास, बेहतर और सक्षम सिंचाई प्रणाली, गांव में भंडारण, युवाओं में कौशल विकास और स्वरोजगार, मिट्टी का परीक्षण करके जरूरत के मुताबिक उर्वरकों का इस्तेमाल, किसानों को ई- नाम समेत बाजार से जोड़ने जैसे कदम उठाए जाने चाहिए।

निष्कर्ष यह है कि समय बहुत कम है और हमें सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल को हासिल करने के लिए तेजी से कार्य करने की जरूरत है, ताकि सबके लिए बेहतर खाद्य, पोषण और पर्यावरण सुरक्षा हासिल की जा सके।

(लेखक तास के चेयरमैन, आईसीएआर के पूर्व महानिदेशक, डीएआरई के पूर्व सचिव और इंडियन साइंस कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे पद्मभूषण से सम्मानित किए जा चुके हैं)

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