चौधरी चरण सिंह कैसे बने किसानों के मसीहा, जानिए उनके 10 बड़े काम

किसान-मजदूर और वंचित वर्ग की भलाई और गांवों की तरक्की के पैरोकार चौधरी चरण सिंह ने जब भी मौका मिला, तब ऐसे काम किए जो आज भी याद किए जाते हैं। आईये, जानते हैं ऐसे ही 10 बड़े काम जिनकी वजह से चौधरी चरण सिंह किसान मसीहा कहलाए

चौधरी चरण सिंह कैसे बने किसानों के मसीहा, जानिए उनके 10 बड़े काम

असली भारत गांवों में बसता है और देश की खुशहाली का रास्ता खेत- खलिहानों से होकर गुजरता है। इन बातों को देश की राजनीति में स्थापित करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत सरकार ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करने का ऐलान किया है। किसान-मजदूर और वंचित वर्ग की भलाई और गांवों की तरक्की के पैरोकार चौधरी चरण सिंह ने जब भी मौका मिला, तब ऐसे काम किए जो आज भी याद किए जाते हैं। वे लोकप्रिय जननेता ही नहीं, बल्कि गांधी जी के ग्राम स्वराज से प्रेरित प्रबुद्ध विचारक भी थे। आईये, जानते हैं ऐसे 10 बड़े काम जिनकी वजह से चौधरी चरण सिंह किसान मसीहा कहलाए: 

  1. चौधरी चरण सिंह ने जब कांग्रेस के जरिए राजनीति में कदम रखा तो काश्तकार जमींदारों के शोषण त्रस्त थे। इसलिए अपनी राजनीति को उन्होंने किसान-कमेरा वर्ग की भलाई का माध्यम बनाया। 1937 में जब चौधरी चरण सिंह पहली बार कांग्रेस के टिकट पर संयुक्त प्रांत के विधायक चुने गये थे, तभी से जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार के प्रयासों में जुट गये। किसानों को व्यापारियों व आढ़तियों के उत्पीड़न से बचानें के लिए संयुक्त प्रांत धारासभा में उन्होंने प्राइवेट मेंबर बिल के रूप में एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट बिल (कृषि उत्पादन विपणन बिल) प्रस्तुत किया। हालांकि, यह बिल पारित नहीं हो पाया। लेकिन यही से कृषि उपज मंडियों को संचालित करने वाले एपीएमसी एक्ट की नींव पड़ी जो तीन दशक बाद 1964 में चौधरी चरण सिंह यूपी में कृषि मंत्री रहने के दौरान पारित हुआ।
  2. किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले चौधरी चरण सिंह खेतिहर किसानों और काश्तकारों की मुश्किलों को समझते थे। सन 1939 में उन्होंने कांग्रेस विधान मंडल दल की कार्यसमिति के सामने किसान परिवारों की संतानों के लिए सरकारी नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण की मांग रखी थी। हालांकि, पार्टी द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया, लेकिन इससे उनकी किसान हितैषी सोच का पता चलता है।  
  3. उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधारों को श्रेय चौधरी चरण सिंह को जाता है। सन 1946 में मुख्यमंत्री गोविंदबल्लभ पंत ने चौधरी चरण सिंह को अपना संसदीय सचिव नियुक्त किया। उसी दौरान उन्होंने संयुक्त प्रांत जमींदारी उन्मूलन समिति की रिपोर्ट तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। यही रिपोर्ट उत्तर प्रदेश में भूमि सुधारों का आधार बनी। हालांकि कांग्रेस और राज्य की सरकार का एक वर्ग इन भूमि सुधारों का धुर विरोधी था। इसी दौरान जमींदारी उन्मूलन पर उन्होंने अपनी पहली पुस्तक "एबोलिशन ऑफ जमींदारी : टू अल्टेरनेटिव्स" लिखी। यहीं से चौधरी साहब ग्रामीण और कृषक वर्ग के पैरोकार के तौर पर स्थापित होते चले गये। 
  4. आजादी के बाद उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था विधेयक, 1950 को तैयार करने और इसे पारित कराने में चौधरी चरण सिंह ने गांव-किसान के प्रतिनिधि की भूमिका निभाई। इस कानून के जरिए लाखों काश्तकारों को जमीन का मालिकाना हक मिलने का रास्ता साफ हुआ। जमींदारों की ताकत और पार्टी के भीतर तमाम विरोध के बावजूद चौधरी चरण सिंह इस कानून में किसान और काश्तकार हित की बातों की शामिल करवाने में सफल रहे। इससे न सिर्फ जमींदारी प्रथा का अंत हुआ बल्कि काश्तकार जमीन के मालिक बन गये। 
  5. यूपी में राजस्व और कृषि मंत्री रहते हुए चौधरी चरण सिंह ने कृषि एवं ग्राम उद्योगों को कई तरह की रियायतें दिलाने में मदद की। जबकि उस समय विकास का नेहरूवादी मॉडल बड़े शहरों और बड़े उद्योंगों के विकास पर केंद्रित था। 1953 में राजस्व और कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश चकबंदी अधिनियम को पारित कराया। इसके बाद 1960 में उन्होंने  भू-जोतों पर हदबंदी अधिनियम] 1960 बनवाया। सीलिंग से प्राप्त भूमि को अनुसूचित जाति के लोगों को आवंटित करने की नीति बनाई गई। उन्होंने साढ़े तीन एकड़ भूमि वाले किसानों को लगान में छूट भी दिलवाई। उनकी किसान हितैषी नीतियों के कारण आजादी के बाद देश में खेती-किसानी को बढ़ावा मिला।   
  6. चौधरी चरण सिंह साफ-सुथरी छवि वाले, स्पष्टवादी, ईमानदार नेता और सख्त प्रशासक थे। 1953 में जब वे यूपी के राजस्व मंत्री थे तो प्रदेश में पटवारियों ने जमींदारों की शह पर हड़ताल कर दी। यह वो दौर था जब जमींदारी उन्मूलन कानून लागू हो रहा था। सरकार पर दबाव बनाने के लिए 27 हजार पटवारियों ने इस्तीफे दे दिए। लेकिन चौधरी चरण सिंह ने सख्त रुख अपनाते हुए अनुचित मांगों के आगे झुकने से इंकार कर दिया और सभी 27 हजार पटवारियों के इस्तीफे स्वीकार कर उनकी जगह लेखपाल का पद सृजित किया। 
  7.  1950 के दशक में देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सोवियत संघ की कॉआपरेटिव फार्मिंग के मॉडल से प्रभावित होकर इसे भारत में बढ़ावा देना चाहते थे। तब चौधरी चरण सिंह कांग्रेस की ही यूपी सरकार में मंत्री थे। लेकिन किसानों के हितों को लेकर वह तत्कालीन प्रधानमंत्री और अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता से भी भिड़ गए थे। सन 1959 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में चौधरी चरण सिंह ने सहकारी खेती के नेहरू मॉडल का पुरजोर तरीके से विरोध किया कर अपने राजनैतिक कॅरियर को दांव पर लगा दिया। इस कदम ने चौधरी साहब को किसानों के बीच बहुत लोकप्रिय बना दिया। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व से मतभेद के चलते उन्हें 19 महीने प्रदेश सरकार से बाहर रहना पड़ा। इस दौरान उन्होंने ज्वाइंट फार्मिंग एक्स-रेड: प्राब्लम एंड इट्स सॉल्यूशन किताब लिखकर सहकारी खेती के विरोध को वैचारिक और तार्किक आधार दिया। 
  8. 1967 में कांग्रेस से अलग होने से पहले ही चौधरी चरण सिंह सरकारी नीतियों और शासन पर शहरी, पूंजीपति वर्ग के वर्चस्व के मुखर विरोधी थे। 1967 में कांग्रेस से अलग होने के बाद उन्होंने गांव-किसान विरोधी नीतियों को पुरजोर विरोध किया और देश में किसान राजनीति को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। 1977 तक चौधरी चरण सिंह खुद को किसान-कमेरा वर्ग के प्रमुख प्रवक्ता के तौर पर खुद को स्थापित कर चुके थे। कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने भारतीय क्रांति दल और फिर भारतीय लोकदल पार्टी बनाई तो उसके चुनाव चिन्ह में किसान था। आगे चलकर हलधर किसान ही जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह बना, जिसने देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई।
  9. चौधरी चरण सिंह किसान, मजदूर, वंचित वर्ग और ग्रामीण भारत की समस्याओं को बखूबी समझते थे। वे शहरों और बड़े उद्योगों के विकास के साथ-साथ कृषि और गांवों की तरक्की पर जोर देते थे। कृषि के अलावा गांवों के परंपरागत और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की वकालत करते थे। उन्होंने अपने 76वें जन्म दिन पर 23 दिसंबर 1978 को दिल्ली में बोट क्लब पर ऐतिहासिक किसान रैली कर देश की राजनीति को किसानों की ताकत का अहसास कराया।
  10. 1979 में उपप्रधानमंत्री और वित्त मंत्री रहते हुए उन्होंने जो केंद्रीय बजट पेश किया, जो ग्रामीण बजट के नाम से चर्चित हुआ। इसमें उन्होंने किसानों, ग्राम विकास और लघु उद्योगों पर सर्वाधिक जोर दिया। कृषि और ग्रामीण विकास के संस्थागत ऋण की समीक्षा के लिए शिवरामन कमेटी का गठन किया, जिससे आगे चलकर नाबार्ड की नींव पड़ी। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने ही गांवों के लिए अलग से ग्रामीण पुनरुत्थान मंत्रालय बनवाया। जब भी वह सत्ता में कुछ करने की स्थिति में आए उन्होंने किसानों, भूमिहीनों, समाज के वंचित वर्ग और छोटे उद्योगों के हित में नीतिगत निर्णय लेने का प्रयास किया।

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