डब्ल्यूटीओ की 13वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में भी ‘पीस क्लॉज’ के स्थायी समाधान की उम्मीद नहीं

इस माह के अंत में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में विदेश व्यापार मंत्रियों का 13वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन होने वाला है। अबू धाबी में यह सम्मेलन 26 फरवरी से शुरू होना है। मंत्रियों की यह बैठक ऐसे समय हो रही है जब बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली अस्तित्व की लड़ाई में हारती दिख रही है। ‘नियम आधारित संगठन’ यानी डब्ल्यूटीओ को विश्व व्यापार में व्यवस्था सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाया गया था। लेकिन इसके नियम 1990 से पहले बने जब सदस्यों की संख्या 100 से भी कम थी।

डब्ल्यूटीओ की 13वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में भी ‘पीस क्लॉज’ के स्थायी समाधान की उम्मीद नहीं

इस माह के अंत में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में विदेश व्यापार मंत्रियों का 13वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन होने वाला है। अबू धाबी में यह सम्मेलन 26 फरवरी से शुरू होना है। मंत्रियों की यह बैठक ऐसे समय हो रही है जब बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली अस्तित्व की लड़ाई में हारती दिख रही है। ‘नियम आधारित संगठन’ यानी डब्ल्यूटीओ को विश्व व्यापार में व्यवस्था सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बनाया गया था। लेकिन इसके नियम 1990 से पहले बने जब सदस्यों की संख्या 100 से भी कम थी। साढ़े चार दशक में विश्व अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव होने के बाद व्यापार के मामले में सदस्य देशों की जरूरतें और आकांक्षाएं बदल गई हैं। इनमें अनेक बदलाव बिगड़ती आर्थिक परिस्थितियों के कारण हुए जिसने प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक दिशा बदल कर उसे अंतर्मुखी बना दिया। तेरहवीं मंत्रिस्तरीय बैठक (एमसी13) से पहले डब्ल्यूटीओ सदस्यों के सामने इस बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था को सामयिक जगत की जरूरतों के मुताबिक ढालने की अहम चुनौती है, खास कर विकासशील देशों की जरूरतों के मुताबिक।

बड़े खेद की बात है कि सदस्य देश सिस्टम की उन खामियों की बात नहीं कर रहे जो डब्ल्यूटीओ की राह में बड़ी बाधा हैं। फिलहाल सदस्य मुद्दा आधारित चर्चा में लगे हैं। इनमें कृषि से संबंधित विभिन्न विषयों की समीक्षा और फिशरीज सेक्टर के लिए सब्सिडी को अपनाना शामिल है। भारत के लिए ये दोनों मुद्दे महत्वपूर्ण हैं।

कृषि के अनसुलझे मुद्दे

कृषि संबंधी समझौते (एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर) में कृषि को घरेलू (सरकारी) मदद का जो विषय जोड़ा गया है, उसमें निर्यात सब्सिडी को छोड़कर बाकी हर तरह की सब्सिडी शामिल हैं। यह सबसे विवादास्पद मुद्दा है क्योंकि इसमें घरेलू कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए कई तरह के नीतिगत समर्थन को हटाने की बात है। घरेलू मदद विषय के निशाने पर दो पारंपरिक सब्सिडी हैं जो किसानों को मिलती रही हैं। ये हैं प्राइस सपोर्ट और इनपुट सब्सिडी। अमेरिका ने कृषि कानूनों के माध्यम से वर्ष 1933 में सब्सिडी देना शुरू किया था। उसके बाद तमाम देश अपनी घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए घरेलू कृषि को मदद करते आए हैं। भारत जैसे देशों में खाद्य सुरक्षा के अलावा सब्सिडी का एक और कारण है। वह है, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर बड़ी संख्या में लोगों के जीवन यापन की सुरक्षा सुनिश्चित करना।

अन्य तरह की सब्सिडी हटाने पर विशेष फोकस के कारण घरेलू मदद विषय में खाद्य सुरक्षा के महत्वपूर्ण लक्ष्य की अनदेखी की गई है, जिसका जिक्र कृषि संबंधी समझौते की प्रस्तावना में नॉन-ट्रेड समझौते के रूप में किया गया है। समझौते में ऐसा कोई प्रावधान नहीं जो नॉन-ट्रेड चिंताओं पर ध्यान देता हो। वर्ष 1995 में डब्ल्यूटीओ की स्थापना के बाद विकासशील देशों ने कृषि संबंधी समझौते में व्यापक बदलाव के पक्ष में तर्क दिए। दोहा मंत्रिस्तरीय बैठक के बाद जारी घोषणा पत्र कृषि समझौते की समीक्षा के लिए डब्ल्यूटीओ सदस्यों का अब तक का सबसे विस्तृत प्रस्ताव है। इसमें विकासशील देशों में कृषि की विशेष भूमिका को स्वीकार किया गया है। उस बैठक में इस बात पर सहमति हुई कि विकासशील देशों में कृषि को विशेष स्थान दिया जाना वार्ता के सभी तत्वों का अभिन्न अंग रहेगा, सभी तरह की छूटों और प्रतिबद्धताओं की अनुसूची में शामिल रहेगा और आगे जो भी नियम तथा विषय चर्चा में रहेंगे उनमें भी इसे स्थान मिलेगा। इसका मकसद यह था कि विकासशील देश खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण उत्थान समेत अपने विकास की जरूरतों के मुताबिक कदम उठा सकें।

लेकिन कृषि संबंधी समझौते की यह व्यापक समीक्षा वर्ष 2017 में एजेंडे से हटा दी गई। उसके बाद से विकसित देश कृषि समझौते की ऐसी समीक्षा के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं जिसमें घरेलू खाद्य सुरक्षा और आजीविका बढ़ाने में कृषि सब्सिडी के इस्तेमाल की संभावनाओं को सीमित किया जा सके। 13वीं मंत्रिस्तरीय बैठक से पहले भी इस तरह के प्रयास जारी है।

कृषि संबंधी समझौते की समीक्षा का एक भाग ऐसा है जो भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। पिछले दशक की शुरुआत से ही डब्ल्यूटीओ के सदस्य खाद्य सुरक्षा के उद्देश्य से सरकारी स्टॉक होल्डिंग के मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं। यह भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का आधार है। भारत के लिए इसका महत्व तब और बढ़ गया जब सरकार ने देश की दो-तिहाई आबादी को सब्सिडी वाली दरों पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) लागू करने का निर्णय लिया।

खाद्य सुरक्षा कानून का लागू किया जाना कृषि समझौते में सब्सिडी के विषय के तहत आता है। इसमें कहा गया है कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य फसलों और इनपुट के लिए जो सब्सिडी देंगे, वह कृषि उपज के मूल्य के अधिकतम 10% तक होगा। कृषि समझौते के अनुसार किसी भी कमोडिटी के लिए उसके मौजूदा प्रशासित मूल्य अथवा मार्केट प्राइस सपोर्ट और 1986-88 की अंतरराष्ट्रीय कीमत (जिसे तय बाह्य संदर्भ मूल्य कहा जाता है) का अंतर उसकी सब्सिडी होगी। इनपुट सब्सिडी को बजटीय खर्च माना जाता है। हालांकि यह फार्मूला किसी भी आर्थिक लॉजिक से परे है, फिर भी ज्यादातर फसलों के मामले में भारत में जो सब्सिडी दी जाती रही वह 10% की सीमा के भीतर थी।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद यह स्थिति बदल गई। कृषि समझौते के अनुसार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अनाज खरीद की कीमत और उसके बाह्य संदर्भ मूल्य के अंतर को सब्सिडी माना जाता है। इसका मतलब है कि भारत की कुल सब्सिडी 10% की सीमा से अधिक होगी। इस तरह यह व्यवस्था सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने से रोकती है। भारत का लगातार यह तर्क रहा है कि सब्सिडी के विषय में संशोधन किया जाए। इसके लिए या तो नया बाह्य संदर्भ मूल्य तय किया जाए और/अथवा विभिन्न देशों को अपनी सब्सिडी की गणना करने में महंगाई को भी शामिल करने की अनुमति दी जाए। भारत के इस तर्क को अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के भविष्य को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, क्योंकि डब्ल्यूटीओ का कोई भी सदस्य देश ‘पीस क्लॉज’ के कारण 10% की सीमा से अधिक सब्सिडी देने पर भारत को चुनौती नहीं दे सकता है। इस क्लॉज पर 2013 में सहमति बनी थी, लेकिन उसके साथ यह भी तय हुआ था कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य सरकारी स्टॉक होल्डिंग के लिए 2017 तक स्थायी समाधान निकालेंगे। इस समय सीमा के 6 साल बीत जाने के बाद भी 13वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में भी इसकी कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि अमेरिका ने अबू धाबी में इसका विरोध किया है। इस तरह भारत के सबसे बड़े कल्याणकारी कार्यक्रम पर तलवार लटक रही है, जिसे सरकार ने दिसंबर 2028 तक बढ़कर नया जीवन दिया है।

पीस क्लॉज में भारत के लिए एक बड़ी बाधा यह है कि सार्वजनिक स्टॉक से अनाज का निर्यात नहीं किया जा सकता है। कृषि समझौते पर नजर रखने वाली डब्ल्यूटीओ की कृषि समिति में अनेक देश भारत से इस विषय पर स्पष्टीकरण मांग रहे हैं। वे यह जानना चाहते हैं कि सरकार जो अनाज खरीदती है और जो उसके बफर स्टॉक में रहता है, वह आखिरकार अंतरराष्ट्रीय बाजार में तो नहीं पहुंच रहा है। इन देशों का आरोप है कि भारत वैश्विक बाजार में सब्सिडी वाला अनाज डंप कर रहा है।

यहां यह बात उल्लेखनीय है कि भारत के निर्यात के खिलाफ आवाज उठाने वाले ज्यादातर विकसित देश हैं। ये देश विश्व अनाज बाजार में अपने यहां की बड़ी कंपनियों की मदद करते हैं। कहने का मतलब यह है कि जब बड़ी सब्सिडी वालों ने विश्व अनाज बाजार पर प्रभुत्व बना रखा है तो भारत के लिए पीस क्लॉज में निर्यात पर रोक की शर्त हटाने के पक्ष में तर्क देने का यह मजबूत आधार बनता है। इसमें भी महत्वपूर्ण बात यह है कि खाद्य आयात करने वाले देश के हितों की रक्षा के लिए इस मुद्दे का समाधान किया जाना चाहिए क्योंकि अगर भारत को निर्यात करने से रोका जाता है तो वैश्विक खाद्य संकट और गहरा होगा।

फिशरीज सब्सिडी पर समस्याग्रस्त समझौता

फिशरीज सब्सिडी पर समझौते को वर्ष 2022 में 12वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में अंतिम रूप दिया गया था। यह समझौता तब अमल में आएगा जब डब्ल्यूटीओ के दो-तिहाई सदस्य देश, अर्थात कम से कम 110 सदस्य, फिशरीज सब्सिडी के समझौते के प्रोटोकॉल को औपचारिक रूप से स्वीकार करेंगे। अभी तक सिर्फ 30 देशों ने इस प्रोटोकॉल को स्वीकार किया है।

चित्र परिचयः 13वीं मंत्रिस्तरीय बैठक से पहले फिशरीज के मुद्दे पर अधिकारी स्तर की बैठकें हो रही हैं

फिशरीज सब्सिडी पर भारत का एक मजबूत आर्थिक और नैतिक पक्ष है। भारत लगातार यह कहता रहा है कि कॉमर्शियल हितों के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को खत्म करना जरूरी है, क्योंकि यह वैश्विक स्तर पर मछलियों के स्टॉक के लिए खतरा बन रहा है। लेकिन इसके साथ ही छोटे मछुआरों को सब्सिडी जारी रखने की व्यवस्था होनी चाहिए, जिन्होंने आमतौर पर पर्यावरण की दृष्टि से सस्टेनेबल तरीके अपनाए हैं। सब्सिडी को जारी रखना छोटे मछुआरों की आजीविका की सुरक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण है।

फिशरीज सब्सिडी पर समझौते में भारत की चिंताएं परिलक्षित नहीं होती हैं। यह समझौता विकासशील देशों को अपने एक्सक्लूसिव आर्थिक क्षेत्र में अवैध, बिना रिपोर्टिंग के और अनियमित तरीके (आईयूयू) से मछली पकड़ने वाले जहाज या ऑपरेटर अथवा जरूरत से ज्यादा मछली पकड़ने पर दो साल के लिए सब्सिडी की अनुमति देता है। दो साल बाद इन मछुआरों को दी जाने वाली सब्सिडी का क्या होगा, उसके बारे में इसमें कुछ नहीं कहा गया है। समझौते में ऐसा कोई और प्रावधान नहीं जो विकासशील देशों को विशेष और अलग ट्रीटमेंट का अधिकार देता हो तथा जिसके आधार पर भारत सब्सिडी दे सके।

यह मुद्दा फिशरीज सब्सिडी समझौते के एक प्रावधान के कारण महत्व रखता है। इस प्रावधान में कहा गया है कि सदस्य देश मछली पकड़ने अथवा इससे संबंधित गतिविधियों के लिए सब्सिडी देते वक्त उन स्टॉक का विशेष ध्यान रखेगा जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं होती है। इस तरीके से आईयूयू तथा जरूरत से ज्यादा मछली पकड़ने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को भी समझौते की परिधि में शामिल किया गया है।

भारत के छोटे मछुआरे ना तो आईयूयू जैसी गतिविधियों में शामिल होते हैं, न ही वे जरूरत से ज्यादा मछली पकड़ते हैं। ऐसे में फिशरीज सेक्टर को दी जाने वाली सब्सिडी जारी रखने में समझौते का यह प्रावधान बाधक बन सकता है। दरअसल डब्ल्यूटीओ में मूड यह है कि भारत और चीन को विशेष तथा अलग ट्रीटमेंट के फायदे से वंचित रखा जाए। इस विशेष वजह से आगे की बातचीत में विशेष तथा अलग ट्रीटमेंट के प्रावधान को शामिल किए जाने की संभावना कम लगती है। 13वीं मंत्रिस्तरीय बैठक की जो तैयारी चल रही है उसमें फिशिंग अथवा इससे जुड़ी गतिविधियों के बारे में अतिरिक्त प्रावधानों पर विचार किया जा रहा है। इनमें विशेष एवं अलग ट्रीटमेंट का प्रावधान सिर्फ उन देशों के लिए रखने का विचार है जो अल्प विकसित हैं अथवा वे ऐसे विकासशील देश हैं जो समुद्र में बहुत कम मछलियां पकड़ते हैं।

डब्ल्यूटीओ की पिछली मंत्रिस्तरीय बैठकों की तरह इस बार भी भारत का मुख्य लक्ष्य यह रहेगा कि अबू धाबी में होने वाले निर्णय से इसके छोटे किसानों तथा मछुआरा समुदाय को बड़ा नुकसान ना हो। हमें यह उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि बहुपक्षीय व्यापार के नियम देश के विकास के लिए मददगार होंगे।

(डॉ. बिस्वजीत धर जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट के वाइस प्रेसिडेंट हैं)

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