आजादी का अमृत महोत्सव तो ठीक, गांवों की दुर्दशा आखिर कब खत्म होगी

आजादी के बहुत पहले संभवत 1909 में महात्मा गांधी ने अपनी किताब "हिन्द स्वाराज" में "आदर्श ग्राम" की संकल्पना की थी। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गांधीजी के आदर्शों की बातें तो बहुत की गईं, आज भी रोज गांधी जी के आदर्शों की दुहाई दी जाती है, पर गांधी के सपनों के गांव हम आज तक नहीं बना सके

आजादी का अमृत महोत्सव तो ठीक, गांवों की दुर्दशा आखिर कब खत्म होगी

1 अक्टूबर 2014 को "सांसद आदर्श ग्राम योजना" की घोषणा भी अन्य बहुसंख्य सरकारी योजनाओं की भांति ही पूरे तामझाम ढोल नगाड़े के साथ की गई थी। इस योजना को "समावेशी विकास का ब्लूप्रिंट"  कहा गया। सरकारी वेबसाइट के अनुसार 'सांसद आदर्श ग्राम योजना'  (SAGY)  संसद के दोनों सदनों के सांसदों को प्रोत्साहित करती है कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र के कम से कम एक गांव की पहचान करें और 2016 तक एक आदर्श गांव का विकास करें। इस योजना के उद्देश्य हैं-

  • ग्राम पंचायतों के समग्र विकास के लिए नेतृत्व की प्रक्रियाओं को गति प्रदान करना।
  • सभी वर्गों के जीवन यापन और जीवन की गुणवत्ता व स्तर में पर्याप्त रूप से सुधार करना।
  • पंचायत तथा गांव का ऐसा समग्र विकास करना कि अन्य गांव तथा पंचायती प्रेरणा लें।
  • चुने गए आदर्श ग्रामों को स्थानीय विकास के ऐसे केंद्र के रुप में विकसित करना जो अन्य ग्राम पंचायतों को प्रशिक्षित कर सकें। 

इनके अलावा बुनियादी सुविधाओं में सुधार करना, उच्च उत्पादकता, मानव विकास, आजीविका के बेहतर अवसर,  असमानताओं को कम करना, अधिकारों और हक की प्राप्ति आदि भी उसके उद्देश्य हैं। यानी कि इतना सब कुछ कि विकसित से विकसित शहर भी इन गांवों से रश्क करें। लिखने पढ़ने सुनने में बड़ा अच्छा लगता है सब।

प्रधानमंत्री की इस मंशा तथा इस प्रेरणा का कितना असर हमारे माननीय सांसदों पर पड़ा? देश में यह योजना कितनी फलीभूत हुई? देश की ग्रामीण जनता तथा ग्राम्य भारत  इस समावेशी विकास के ब्लूप्रिंट से कितना लाभान्वित हुआ ? योजना के लागू होने के  8 आठ साल बीत जाने के बाद, आज इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ना, जांच पड़ताल करना और समुचित उत्तर नहीं मिलने पर सरकार से इन सवालों के जवाब लेना इस देश के हर मतदाता का, प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य और अधिकार है।

भारत को सदैव गांवों का, किसानों का देश कहा जाता है। नवीनतम उपलब्ध सरकारी जानकारी के अनुसार हमारे देश में 6 लाख, 49 हज़ार 481 गांव हैं। महाकवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा "ग्रामवासिनी" भारत माता का चित्रण इस कविता में जरा देखें:-

भारतमाता

ग्रामवासिनी।

खेतों में फैला है श्यामल

धूल भरा मैला सा आँचल,

गंगा यमुना में आँसू जल,

मिट्टी की प्रतिमा

उदासिनी।

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,

अधरों में चिर नीरव रोदन,

युग युग के तम से विषण्णा मन,

वह अपने घर में

प्रवासिनी।

इन लाइनों में गुलाम भारत में भारत-माता तथा भारत के गांवों की दुर्दशा का जो मार्मिक चित्रण हुआ है, आजादी के 75 साल बाद भी इस चित्र में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता। आजादी का अमृतोत्सव मना रहे इस अभागे देश का ये दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है?

2014 में जब प्रधानमंत्री जी ने इस नई योजना की घोषणा की, तो तमाम विज्ञापनों के जरिए यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि यह कोई विलक्षण क्रांतिकारी सोच है, पर दरअसल ऐसा नहीं है। आजादी के बहुत पहले संभवत 1909  में  महात्मा गांधी ने अपनी किताब "हिन्द स्वाराज" में "आदर्श ग्राम" की संकल्पना की थी। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गांधीजी के आदर्शों की बातें तो बहुत की गईं, आज भी रोज गांधी जी के आदर्शो की दुहाई दी जाती है, पर गांधी के सपनों के गांव हम आज तक नहीं बना सके।  

2009-10 में भी गांवों के समग्र विकास की एक योजना लाई गई थी "प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना" (PMAGY)। इस योजना  में ऐसे गांवों का चयन करना था जहां अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक हो। संविधान में देश के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता का अधिकार दिया गया है, इसलिए इन वर्गों को समाज में बराबरी के स्तर पर लाना इसका प्रमुख उद्देश्य था। 18 राज्यों के लगभग 16 हजार गांवों का चयन किया गया, हर गांव के लिए 21 लाख रुपए की राशि का भी प्रावधान किया गया। इस योजना में कुल 13 बिंदुओं में ग्रामीण विकास की इतनी अच्छी अच्छी योजनाओं का उल्लेख किया गया है, कि अगर सारी योजनाओं का शतप्रतिशत क्रियान्वयन हो जाता गांव स्वर्ग से भी बेहतर हो जाते और मनुष्य स्वर्ग जाने से भी इंकार कर भारत के गांवों में ही रहना श्रेयस्कर समझता।

समय-समय पर ऐसी कई मनमोहक योजनाएं बनाई गईं, जैसे कि लोहिया ग्राम योजना, अंबेडकर ग्राम योजना और गांधी ग्राम योजना, अटल आदर्श ग्राम योजना उत्तराखंड वगैरह वगैरह, जिन्होंने देश के गांवों को 'आदर्श ग्राम' बनाने का दावा किया, वादे किए, सपने दिखाए, वोट बटोरा, अपनी-अपनी सरकारें बनाईं, पर न तो  गांवों का भाग्य बदला और न ही उनकी तस्वीर। तत्कालीन सरकारों से आज यह सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या इस योजना के एक दशक बाद भी इन वर्गों को हम समानता के स्तर पर ला सके हैं, और अगर ऐसा नहीं कर पाए तो इसके लिए दोषी कौन है और उसके लिए कौन सी सजा का प्रावधान होना चाहिए?

ऐसा नहीं है कि गांवों में परिवर्तन नहीं आया है। गांवों में ढेरों परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। गांव में साइकिलों को विस्थापित कर मोटरसाइकिलें आ गई हैं। पंच सरपंचों पंचों के घर पक्के हो गए हैं, इनके घरों में चार पहिया वाहन भी देखे जा सकते हैं। और कुछ चाहे मिले या ना मिले किंतु मोबाइल और टीवी हर घर की अनिवार्य आवश्यकताओं में शुमार हैं। असीमित कमीशन खोरी के साथ ही साथ पंचायत अस्पताल, स्कूलों के पक्के भवन भी बनते जा रहे हैं, पर इन गुणवत्ताविहीन भवनों में न तो सुयोग्य शिक्षक हैं, ना ही नियमित डॉक्टर, ना पर्याप्त दवाइयां। 

जहां जहां सड़कें बनीं भी, उसे भी अनियंत्रित कमीशन खोरी के अजगर ने आधा पौना लील लिया है। कहीं-कहीं तो विकास के नाम पर गांवों के पहले से ही चल रहे अस्पतालों का ही नाम बदलकर उन्हें "वैलनेस सेंटर"  जैसा फैंसी नाम दे दिया गया, पर हमारे इन अस्पताल कम वैलनेस सेंटर्स की जमीनी हकीकत को कोरोना ने उधेड़कर दुनिया को दिखा दिया था।

बहुत कुछ ऐसा भी है जो आज भी नहीं बदला है, जैसे कि गांवों में अव्वल तो नालियां हैं ही नहीं, और जहां कच्ची पक्की कुछेक हैं भी, वहां आज भी पहले की तरह ही नालियां बदस्तूर बजबजा रही हैं। पहले की तरह गंदगी तथा मच्छरों, बीमारियों का साम्राज्य आज भी कायम है। इंच इंच जमीन के लिए लड़ाई -झगड़ों के मामले आज भी जारी हैं। आज भी गांव के समझदार चतुर सुजान लोग सुबह उठते ही तैयार होकर कोर्ट कचहरी, कार्यालयों का रुख करते हैं। अपवादों को छोड़कर ज्यादातर जींन्स पैंट पहनने वाली ग्रामीण युवा पीढ़ी को भी पढ़ें लिखे सभ्य लोगों की तरह ही मिट्टी कीचड़ गोबर, गाय गोरू, खेत खलिहान की जहमत से सख्त परहेज है। किसान का युवा बेटा बाप की 4 एकड़ जमीन पर खेती करने के बजाए उसकी 2 एकड़ जमीन बिकवा कर उस रकम की रिश्वत देकर शहर में चपरासी की नौकरी करने की जुगाड़ में लगा हुआ है। गांव अब बिना देर किए, किसी भी कीमत पर जल्द से जल्द शहर बनना चाहते हैं।

बड़े शहरों में रहने वाले कान्वेंट के बच्चे कभी कभार भूले-भटके अपने चाचा ताऊ के यहां गांवों में आने पर अक्सर यह सवाल पूछ ही लेते हैं कि जब अमूल और मदर डेयरी इतना अच्छा दूध दे रहे हैं, तो आप लोग गांवों में दूध के लिए गोबर गौमूत्र की गंदगी क्यों बना कर रखे हैं, और इस बदबू और मच्छरों के बीच आप लोग भला रह कैसे पाते हैं?

इसी योजना के तहत स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भी बनारस से 25 पच्चीस किलोमीटर दूर स्थित 2974 जनसंख्या वाले गांव जयापुर को गोद लिया गया था।  जयापुर बनारस से 25 किलोमीटर दूर स्थित है। इस ग्राम के चयन के भी कई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारण रहे होंगे। विजय को प्रेरित करता हुआ इसका  जयापुर नाम भी एक कारण हो सकता है। वैसे कहा जाता है कि यह गांव शुरू से ही संघ का गढ़ रहा है। इस पर अंतिम मोहर लगने का यह भी एक कारण हो सकता है। समाचारों में ही हमने सुना कि इस गांव के करीब 300 वर्ष पुराने महुआ के पेड़ को संरक्षित करने की कवायद हो रही है, दूसरी और देश के हजारों-हजार साल पुराने जैविक विविधता से भरपूर जंगलों के लाखों पेड़ों को पूरी निर्ममता के साथ केवल इसलिए काटा  जा रहा है ताकि इन राजनीतिक पार्टियों तथा नेताओं को मोटा चुनावी चंदा देने वाली बड़ी कंपनियों द्वारा लीज पर ली गई खदानों से अवैध रूप से अनमोल खनिज संपदा को जल्द से जल्द निकाल कर बेचा जा सके।

मोदी जी की प्रधानमंत्री सांसद आदर्श ग्राम योजना पार्ट वन- 2014 एवं पार्ट टू -2021 की अगर बात करें तो सांसद आदर्श ग्राम योजना 2021 की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक,इस योजना के तहत 2314 ग्राम पंचायतों का चयन किया गया है।  प्रधानमंत्री जी के गोद लिए गए गांव में भी इतने सालों बाद भी एक चौथाई परियोजनाओं पर काम ही शुरू नहीं हुआ (नौ अक्टूबर 2021 की स्थिति)। और अगर काम हो गया हो ,तो गांव वालों को बधाई।

झारखंड की बात करें तो  यहां सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत राज्य के सांसदों ने अब तक कुल 89 पंचायतों का चयन किया है। कुल 5230 स्कीमें स्वीकृत की गईं। जिनमें से 2065  योजनाएं लंबित बताई गई हैं। जिन योजनाओं पर काम हुआ बताया जाता है इनमें हर स्तर पर तरह तरह की कमियां-खामियां उजागर हो रही हैं। कमोबेश यही हाल पूरे 800 सांसदों के द्वारा चयनित 2314 ग्राम पंचायतों के गांवों का भी कहा जा सकता है।

ऐसा नहीं है कि इस योजना के पूर्ण न होने के पीछे फंड या पैसों की कमी है। देश में यही एक ऐसी योजना है, जिसे पूर्ण करने के लिए फंड की कोई समस्या ही नहीं है। आदर्श सांसद ग्राम योजना के तहत विकास कार्य पूरा करने के लिए कई तरह से फंड मिलते हैं। इनमें इंदिरा आवास,पीएम ग्रामीण सड़क योजना और मनरेगा भी शामिल है। इसके अलावा सांसदों को मिलने वाला स्थानीय क्षेत्र विकास फंड (एमपीलैड)  भी कार्यक्रम पूरा करने में मददगार है। 

सरकार ने संसद की एक समिति को यह जानकारी दी है कि माननीय पूर्व सांसदों द्वारा स्थानीय क्षेत्र विकास निधि की  1,723 करोड़ रुपये की राशि खर्च नहीं की जा सकी है। जरा सोचिए... जो माननीय सांसद महोदय  हाथ जोड़कर वोट मांगते वक्त आपकी सेवा करने का वादा करते हैं, जीतने के बाद, आपकी सेवा के लिए मिली हुई रकम को 5 वर्षों में भी समुचित तरीके से खर्च करने वक्त भी उनके पास नहीं है।

आज आठ साल  बीत जाने के बाद भी ऐसे कई गोद लिए गांवों में  "समग्र समावेशी विकास" की तो छोड़िए समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य, एवं रोजगार  तथा बुनियादी जरूरतों को तरसते इन गांवों में आज तक सामान्य योजनाएं तक भली भांति नहीं पहुंच पाई हैं। सोचने वाली बात यह है कि जब देश के माननीय प्रधानमंत्री तथा माननीय सांसदों द्वारा गोद लिए गए गांवों का यह हाल है, तो बाकी देश के गांवों के समावेशी समग्र विकास के बारे में बात करना,और सवाल पूछना ही बेमानी और फिजूल है।

कहने को हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर इन 75 वर्षों में "ग्राम-निवासिनी भारत माता"  का चेहरा चमकाने के नाम पर नाना नामधारी योजनाओं के जरिए जो सतही रंगरोगन की कवायद की गई उसने स्थिति को और बिगाड़ दिया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री जी की इस सांसद आदर्श ग्राम योजना  में ना तो माननीय सांसद पर्याप्त रुचि  ले रहे हैं, और ना ही इन योजनाओं में दूर दूर तक आदर्श नामक कोई चिड़िया दिखाई नहीं दे रही है। यही कारण है कि इससे ना तो भारत के गांवों की दशा बदल रही है,और ना ही पंत जी की उदासिनी भारत माता की तस्वीर।

(लेखक अखिल भारतीय किसान महासंघ, आईफा के राष्ट्रीय संयोजक हैं)

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