भारत को अपनी जरूरतों के मुताबिक खाद्य प्रणाली की जरूरत

खाद्य प्रणाली का पारंपरिक पश्चिमी मॉडल प्रोडक्शन प्रोसेसिंग वैल्यू चेन मार्केट लिंकेज पर निर्भर करता है। जब इसमें समावेशिता, स्वास्थ्य एवं पोषण और सस्टेनेबिलिटी को शामिल किया जाता है तो यह मॉडल दरकने लगता है। जाहिर है कि कोई एक वैश्विक प्रणाली पूरे विश्व में कारगर नहीं हो सकती। ठीक उसी तरह कोई एक प्रणाली समस्त भारत के लिए मुफीद नहीं हो सकती। भारतीय खाद्य प्रणाली इस मायने में औरों से अलग है कि इसमें काफी विविधता है। यह विविधता उत्पादन, खपत, व्यापार, सांस्कृतिक और पर्यावरण संबंधी चुनौतियों के मामले में है। इसलिए भारतीय खाद्य प्रणाली में दुनियाभर में प्रचलित श्रेष्ठ तौर-तरीकों को शामिल करने और फिर क्षेत्रीय विविधताओं तथा इनोवेशन के अनुरूप उन्हें नए सिरे से डिजाइन करने की जरूरत है

भारत को अपनी जरूरतों के मुताबिक खाद्य प्रणाली की जरूरत

पिछले साल आयोजित संयुक्त राष्ट्र का फूड सिस्टम समिट कोई खास चर्चा में नहीं रहा। कुछ आलोचकों ने तो यहां तक कह दिया कि यह समिट अब बेमतलब हो गया है। यह ऐसा वैश्विक इवेंट था जो सदस्य देशों को एक बड़े बदलाव वाली खाद्य प्रणाली का डिजाइन तैयार करने के लिए उत्साहित न कर सका। शायद इस कांसेप्ट को पूरी तरह न तो समझा गया और न ही ठीक तरीके से उसकी व्याख्या की गई।

मौजूदा खाद्य प्रणाली को बदलना एक बहते हुए जहाज की मरम्मत और उसकी रीमॉडलिंग करने के समान है। जहाज में जो छेद हैं, उन्हें बंद करने की आवश्यकता है, उसका इंटीरियर नया करना है और इंजन की क्षमता बढ़ानी है। दूसरी तरफ जहाज अपनी यात्रा पर आगे बढ़ रहा होता है। क्या मौजूदा प्रणाली ठीक है और कुछ बदलने की जरूरत नहीं है? ऐसा नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि नीति निर्माता इस चुनौती से भयभीत हैं कि बदलाव होगा कैसे। मेरे विचार से कुछ न करना आसान तो है, लेकिन बदलाव के प्रयास न करना कोई विकल्प नहीं है।

इसी पृष्ठभूमि में भारत कृषक समाज ने एक खाद्य प्रणाली परिचर्चा (फूड सिस्टम्स डायलॉग) का आयोजन किया। 15 और 16 नवंबर 2022 को आयोजित परिचर्चा 10 प्रमुख हिस्से में बंटी थी और हर एक की अगुवाई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित विशेषज्ञ संगठनों ने की।

यह आयोजन किसी सम्मेलन के तौर पर नहीं, बल्कि एक परिचर्चा के तौर पर हुआ था। इसका मकसद सुनना और सीखना था। इसका मकसद किसी भी बदलाव के विभिन्न आयामों को समझना, उसके कार्यकलापों में सामंजस्य बिठाना, संभावित असर का आकलन करना और एक प्रभावी तथा कम नुकसानदायक रास्ता तलाश करना था। यह लेख निश्चित रूप से उस परिचर्चा के बारे में नहीं बल्कि भारत के लिए एक अलहदा खाद्य प्रणाली की जरूरत के बारे में है।

खाद्य प्रणाली का पारंपरिक पश्चिमी मॉडल प्रोडक्शन प्रोसेसिंग वैल्यू चेन मार्केट लिंकेज पर निर्भर करता है। जब इसमें समावेशिता, स्वास्थ्य एवं पोषण और सस्टेनेबिलिटी को शामिल किया जाता है तो यह मॉडल दरकने लगता है।

जाहिर है कि कोई एक वैश्विक प्रणाली पूरे विश्व में कारगर नहीं हो सकती। ठीक उसी तरह कोई एक प्रणाली समस्त भारत के लिए मुफीद नहीं हो सकती। भारतीय खाद्य प्रणाली इस मायने में औरों से अलग है कि इसमें काफी विविधता है। यह विविधता उत्पादन, खपत, व्यापार, सांस्कृतिक और पर्यावरण संबंधी चुनौतियों के मामले में है।

इसलिए भारतीय खाद्य प्रणाली में दुनियाभर में प्रचलित श्रेष्ठ तौर-तरीकों को शामिल करने और फिर क्षेत्रीय विविधताओं तथा इनोवेशन के अनुरूप उन्हें नए सिरे से डिजाइन करने की जरूरत है। निस्संदेह यह एक दुष्कर कार्य है। इसलिए बदलाव की जरूरत को स्वीकार करने से भी लोग कतराते हैं। जलवायु परिवर्तन का जो परिदृश्य उभर रहा है, उसे देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि हरित क्रांति के मॉडल पर आधारित मौजूदा प्रणाली पर ही आगे बढ़ना आगे चलकर नाकाम होगा।

इसमें किसानों की आमदनी को लेकर चिंता, खत्म होते प्राकृतिक संसाधन और अल्प पोषण की चुनौतियों को भी जोड़िए। मौजूदा प्रणाली में बदलाव की आवश्यकता तो स्पष्ट है। ऐसे में वह कौन से प्रमुख स्तंभ हैं जिन्हें आधार बना कर इस तरह के बदलाव किए जा सकते हैं?

इसके लिए निम्नलिखित 7 बिंदुओं पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है:

1. खाद्य एवं पोषण, आजीविका और कृषि में लचीलेपन की चिंता का समाधानः भारत को अपने नागरिकों के लिए सेहतमंद और कम कीमत वाले भोजन की जरूरत है। अभी तक खाद्य सुरक्षा की जो पहल हुई है वह सघन उत्पादन, बड़े पैमाने पर खरीद और एक प्रभावी वितरण व्यवस्था पर आधारित रही है। इस मॉडल ने सुनिश्चित किया कि हमारे लोगों को पर्याप्त, बल्कि अधिक मात्रा में चावल और गेहूं मिलता रहे। गेहूं और चावल पर ज्यादा जोर देने वाले इस मॉडल पर लगातार बने रहने से बेहतर पोषण मिलने की संभावना कम है।

खेती लायक जमीन सीमित है और प्राकृतिक संसाधन कम होते जा रहे हैं। इन दोनों समस्याओं को देखते हुए पोषक अनाज, दालें, फल एवं सब्जियां, डेयरी, पोल्ट्री इत्यादि पर फोकस में बदलाव जरूरी है। यह पोषण के साथ-साथ आजीविका के नजरिए से भी महत्वपूर्ण है। व्यापक स्तर पर देखें तो प्राकृतिक आपदाओं के असर को झेलने में कृषि अभी तक सक्षम रही है। लेकिन जब भी मौसम से जुड़ी आपदा आती है तो आजीविका की सुरक्षा और वर्षा सिंचित खेती पर दबाव बढ़ जाता है। जलवायु में जिस तरह परिवर्तन बढ़ते जा रहे हैं उसे देखते हुए नीतियों में आवश्यक बदलाव के जरिए ज्यादा लचीला रुख अपनाने की जरूरत है।

2. जलवायु परिवर्तन को अपनाने के लिए सब-सिस्टम बनाना जरूरीः किसानों के लिए जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। हमारी नीतियां मुख्य रूप से खाद्य सुरक्षा की चिंता दूर करने पर केंद्रित रही है, लेकिन परेशानी वाले इलाकों में किसानों की आजीविका की सुरक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना देने की आवश्यकता है। असमानता कम करने के लिए नीतियों का फोकस राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के बजाय किसान केंद्रित आजीविका और माइक्रो स्तर पर खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने पर होना चाहिए, और उसके लिए बजट में उचित प्रावधान किया जाना चाहिए। यह खासतौर से वर्षा सिंचित क्षेत्र के किसानों के लिए प्रासंगिक है।

हमारी उप-प्रणालीः तकनीकी मदद और एक्सटेंशन सिस्टम, इनपुट प्लानिंग, मार्केट सपोर्ट और जोखिम कम करने के जो तौर-तरीके हैं वे मौसम के कारण पैदा होने वाली चुनौतियों से निपटने में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं हैं। इसके दो कारण हैं। एक है सेंट्रलाइज्ड प्लानिंग और दूसरा, रेस्पांस/समस्या कम करने की अपर्याप्त व्यवस्था। इन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।

3. प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और दशकों से चले आ रहे पारंपरिक तरीकों का पालन: देश की खाद्य सुरक्षा की जरूरतें पूरी करने में हरित क्रांति निश्चित रूप से सफल रही है, भले ही यह देश के कुछ हिस्सों तक सीमित रही हो। लेकिन लंबे समय तक प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक इस्तेमाल और चुनिंदा फसलों के लिए दी जाने वाली वित्तीय इंसेंटिव ने मिट्टी, पानी, एग्रो-इकोलॉजी जैसे हमारे मौजूदा प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव डाला है। इससे इन कदमों की सस्टेनेबिलिटी पर भी सवाल उठे हैं।

हरित क्रांति के लिए अपनाई गई नीतियां मुख्य तौर पर इस आशंका के चलते लंबे समय तक जारी रहीं कि इनमें बदलाव से देश की खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है, और इन नीतियों से जिन किसानों को फायदा हुआ है वे नाराज हो सकते हैं। लेकिन ऐसे अनेक गरीब किसान हैं जो प्राकृतिक खेती करते रहे (इसे चाहे जो नाम दिया जाए)। सरकार की इंसेंटिव व्यवस्था का उन्हें कोई फायदा नहीं मिला क्योंकि ग्रीन रिवॉल्यूशन मॉडल में बतौर इनपुट पानी, उर्वरक, हाइब्रिड बीज या कीटनाशकों में किसी का भी इस्तेमाल उन्होंने नहीं किया। इसलिए जो किसान प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हैं उन्हें किसी न किसी तरीके से इंसेंटिव देने की जरूरत है, चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो अथवा सामूहिक रूप से।

4. खाद्य पदार्थों के नुकसान और उनकी बर्बादी में कमीः खाद्य पदार्थ के नुकसान और उनकी बर्बादी पर अलग-अलग आंकड़े उपलब्ध हैं लेकिन सभी आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि नुकसान और बर्बादी की मात्रा बहुत ज्यादा है। मेरे विचार से टेक्नोलोजी, ट्रांसपोर्ट, स्टोरेज और मैनेजमेंट खाद्य पदार्थों को होने वाले नुकसान के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। इसे कम करने का तरीका फसल और भौगोलिक क्षेत्र पर आधारित होना चाहिए। यह सबके फायदे की बात होगी, खासकर किसानों के लिए। खाने-पीने की चीजों की बर्बादी रोकने के लिए व्यवहार में बदलाव की जरूरत है, और आवश्यक हो तो इसके लिए दंड प्रावधान भी लागू किए जा सकते हैं।

5. लीनियर यानी एक दिशा में चलने के बजाय सर्कुलर फूड चेन सिस्टम जरूरीः सर्कुलर खाद्य प्रणाली के बारे में अनेक सिद्धांत मौजूद हैं। यह सच है कि सर्कुलर प्रणाली में समय, ऊर्जा और पैसे की बचत होती है। इसकी शुरुआत किसानों को स्थानीय बाजारों से जोड़कर की जा सकती है। इससे स्थानीय उपज की मांग बढ़ाने में मदद मिलेगी और स्थानीय स्तर पर संपन्नता भी बढ़ेगी। मौजूदा नीतियों में ऐसे सिस्टम को बढ़ावा देने की कोई व्यवस्था नहीं है।

6. किसानों के लिए दीर्घकालिक आय सुनिश्चित करनाः सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खेती का आर्थिक महत्व कम होता जा रहा है, बावजूद इसके कि 50% आबादी इस पर निर्भर है। खेतों में काम करने वाले किसानों के लिए खेती गैर-मुनाफाकारी और अप्रत्याशित होती जा रही है। अनेक किसान सिर्फ इसलिए किसानी कर रहे हैं क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं है। अगर खेती करने वालों को इससे सम्मानजनक आजीविका नहीं मिलती है तो स्वास्थ्य और पोषण युक्त खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर पाना संभव नहीं हो सकेगा। किसानों की आय निरंतर बढ़ती रहे इसके लिए एक अच्छी नीति बनाने और संगठित प्रयास करने की दरकार है। यह नीति जितनी जल्दी संभव हो बनाई जानी चाहिए। इस तरह की योजना को उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने और शहरी उपभोक्ताओं की प्रतिक्रिया के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए।

7. गवर्नेंस पर फोकस नहींः नई खाद्य प्रणाली के लिए एक नए गवर्नेंस ढांचे की भी जरूरत है। खाद्य एवं कृषि पर होने वाली चर्चाओं में अक्सर गवर्नेंस के मुद्दे की अनदेखी कर दी जाती है। स्थानीय स्तर पर लोगों के पास जो ज्ञान होता है या उनकी जो दक्षता और क्षमता होती है, उनका इस्तेमाल स्थानीय स्तर पर प्रासंगिक इनोवेटिव सिस्टम बनाने में नहीं किया जाता है। स्थानीय स्तर के संस्थानों को शामिल करते हुए एक बदलावकारी व्यवस्था के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। खाद्य प्रणाली के ढांचे में गवर्नेंस के मुद्दे की अनदेखी करना बड़ी विफलता का कारण हो सकता है।

निस्संदेह भारत को खाद्य प्रणाली बदलने की जरूरत है। यह बदलाव किस दिशा में हो, उसी पर नई खाद्य प्रणाली की सफलता निर्भर करेगी।

(लेखक भारत सरकार के खाद्य और कृषि मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं)

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