आलू की 60% फसल बाजार में, न कोई दाम न खरीदार; भरपूर भंडारण सुविधा भी अच्छे दाम की गारंटी नहीं

अगर सरकार किसानों को उनकी फसल के लिए जरूरी वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराती है तो उन्हें फसल को कम दाम पर नहीं बेचना पड़ेगा और वह वित्तीय संकट से बचे रह सकते हैं। बेहतर होगा कि सरकार व्यावहारिक कदम उठाकर किसानों को संकट से उबारे। खानापूर्ति से आलू किसानों का संकट हल नहीं होगा।

आलू की 60% फसल बाजार में, न कोई दाम न खरीदार; भरपूर भंडारण सुविधा भी अच्छे दाम की गारंटी नहीं
कानपुर के खणैचा मकनपुर गांव के खेत में कोल्ड स्टोर भेजने के लिए तैयार आलू की बोरियां

खणैचा मकनपुर, कानपुर

इस साल कई फसलें नीति निर्धारकों और जनमानस के बीच चली आ रही धारणाओं को ध्वस्त कर रही हैं। मसलन अक्सर यह कहा जाता रहा है कि बेहतर भंडारण सुविधाओं की कमी किसानों को बेहतर दाम नहीं मिलने की एक बड़ी वजह है। जिन फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था नहीं है उनके लिए बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआईएस), प्राइस सपोर्ट स्कीम (पीएसएस) व टमैटो, अनियन, पोटैटो (टॉप) जैसी कई योजनाएं हैं जो किसानों को नुकसान से बचाती हैं। लेकिन प्याज की कीमतें धराशायी होने के बाद आलू की बंपर फसल बाजार में आई तो न तो उसे कोई खरीदार मिल रहा और न ही कोई दाम। जबकि इस फसल के लिए भंडारण सुविधाओं की भरपूर व्यवस्था तो है ही, उपर बताई गई योजनाएं भी हैं। 

जब आप देश के सबसे बड़े आलू उत्पादक क्षेत्र आगरा, मथुराकन्नौज, फरुर्खाबाद, फिरोजाबाद, एटा, हाथरस और कानपुर के बीच किसानों से मिलेंगे तो हकीकत सामने आएगी। इस क्षेत्र में 60 फीसदी आलू की फसल की खुदाई हो चुकी है लेकिन इसके स्टॉक करने पर कोई पैसा लगाने को तैयार नहीं है। बाजार में दाम पिछले साल से 20 फीसदी तक कम है, इसीलिए कानपुर के खणैचा मकनपुर गांव के किसान सुरेश चंद अपने खेत में आलू की किस्म हालैंड (स्थानीय स्तर पर इसे सिंदूरी भी कहते हैं) की खुदाई के बाद उसे बोरों में भरकर कोल्ड स्टोरेज में भेजने की तैयारी करते हुए कहते हैं, “कोई दाम ही नहीं है। लागत दस रुपये किलो है और दाम चार से छह रुपये किलो है।”

फोटोः खणैचा मकनपुर गांव के एक खेत में आलू की ग्रेडिंग कर उसे कोल्ड स्टोर में भेजने की तैयारी करते  मजदूर 

हाथरस जिले के खंडौली के बड़े आलू किसान डूंगर सिंह कहते हैं कि न खरीदार है और न इनवेस्टर, बाजार मंदा है। जो आलू है वह स्टोर में जा रहा है। खुदाई और मजदूरी के खर्च की भरपाई के लिए जो दाम मिल रहा है, किसान कुछ आलू उसी कीमत पर बेच रहा है। बाकी कोल्ड स्टोर में रखने को मजबूर है। इसमें भी बाकी वर्षों की तरह इनवेस्टर नहीं है। किसान को कोल्ड स्टोरेज के मालिक बारदाना और मजदूरी के खर्च के लिए पैसा दे रहे हैं। किसान की हालत खराब है क्योंकि पैसा लगाने वाले स्टॉकिस्ट गायब हैं।

शुरू में कम समय तक स्टोर होने वाली कई नई किस्मों की खुदाई हुई तो उत्पादन बंपर मिला। एक एकड़ में 250 से 300 पैकेट (50 से 55 किलो प्रति पैकेट) आलू निकला था, लेकिन अब 3797 किस्म की खुदाई हो रही है तो प्रति एकड़ उत्पादन करीब 20 पैकेट कम हो रहा है। भंडारण की जाने वाली मुख्य फसल यही है। डूंगर सिंह कहते हैं कि इस साल खुदाई और मजदूरों की ग्रेडिंग के लिए खर्च बढ़ गया है। जो खर्च पिछले साल 5000 रुपये एकड़ था वह दस हजार रुपये एकड़ पर पहुंच गया है। ग्रेडिंग की मजदूरी 30 रुपये से बढ़कर 50 रुपये प्रति क्विटंल हो गई है।

उत्पादन की तसवीर भी अब साफ हो रही है और भंडारण वाली किस्म का उत्पादन पिछले साल से कम है। जहां तक स्टोरेज क्षमता की बात है तो इसकी कोई दिक्कत नहीं है। डूंगर सिंह बताते हैं कि पिछले साल कुल भंडारण क्षमता का करीब 85 फीसदी भरा था। इस साल यह 85 से 90 फीसदी के बीच रहेगा।

यह तथ्य साबित करते हैं कि आलू के दाम बंपर उत्पादन और भंडारण क्षमता के चलते नहीं गिर रहे, बल्कि इसके भंडारण पर निवेश करने वालों और सरकार के गायब होने के कारण गिर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार के हार्टिकल्चर विभाग द्वारा 10 मार्च, 2023 को जारी एक आदेश में कोल्ड स्टोरेज में सामान्य आलू के भंडारण की दर 230 रुपये और शुगर फ्री आलू के लिए 260 रुपये प्रति क्विटंल तय करने का कदम उठाया गया। साथ ही 650 रुपये प्रति क्विटंल पर आलू की खऱीद करने की घोषणा करने की खबरें भी समाचार माध्यमों में आईं। यह दोनों कदम जमीन पर कितने कारगर हैं, इसको लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। 

एक कोल्ड स्टोरेज मालिक ने रूरल वॉयस को बताया कि 1976 के कोल्ड स्टोरेज एक्ट में राज्य में शीत गृहों के लिए भंडारण की दरें तय करने का प्रावधान किया गया था। उस समय स्टोर काफी कम थे। लेकिन बाद में जब कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने के पर सब्सिडी मिलने लगी तो इनकी तादाद तेजी से बढ़ी। उद्यमियों और किसानों ने बड़े पैमाने पर कोल्ड स्टोरेज क्षमता स्थापित की। इस समय उत्तर प्रदेश में देश की सबसे अधिक कोल्ड स्टोरेज क्षमता है और इनकी सबसे अधिक संख्या भी उत्तर प्रदेश में ही है। उक्त उद्यमी के मुताबिक 1997 में मायावती सरकार के दौरान हार्टिकल्चर एक्ट से शीत गृहों के लिए भंडारण की दरें तय करने वाले प्रावधान हो हटा दिया गया। इसलिए अब जो घोषणा की जा रही है वह बाध्यकारी नहीं है।

सरकार ने एमआईएस के तहत खरीदारी करने की बात कही है। उसके लिए 650 रुपये प्रति क्विटंल का जो दाम तय किया गया है आलू किसान उसे नाकाफी बता रहे हैं, क्योंकि यह लागत से कम है। उनका कहना है कि हमें इसमें पड़ता नहीं खाता है। साथ ही किसानों का कहना है कि सरकारी खरीद करने वाली एजेंसियां मध्यम साइज का आलू लेती हैं। वह न तो बड़ा आलू लेती हैं और न ही छोटा। आलू की छंटाई होने के बाद किसान के लिए जो आलू बचेगा उसका दाम बहुत मिलेगा। ऐसे में किसान इन एजेंसियों को आलू बेचेगा, यह अपने आप में एक सवाल है।

अब अगर स्टोरेज की बात करें तो नाबार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 350 लाख टन कोल्ड स्टोरेज क्षमता की जरूरत है। सरकार द्वारा 23 सितंबर 2020 को जारी एक सूचना के मुताबिक इस समय देश में 374.25 लाख टन की कोल्ड स्टोरेज क्षमता है। 31 अगस्त, 2020 तक की राज्यवार स्थिति के अनुसार सबसे अधिक 2406 कोल्ड स्टोर उत्तर प्रदेश में हैं जिनकी कुल क्षमता 147.14 लाख टन है। यानी देश की लगभग 40 फीसदी कोल्ड स्टोरेज क्षमता उत्तर प्रदेश में है। 

मौजूदा हालात में यह बात साफ हो जाती है कि अगर सरकार किसानों को उनकी फसल के लिए जरूरी वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराती है तो उन्हें फसल को कम दाम पर नहीं बेचना पड़ेगा और वह वित्तीय संकट से बचे रह सकते हैं। कोल्ड स्टोरेज उद्यमियों का कहना है कि पिछले साल 85 फीसदी क्षमता का उपयोग हुआ था और जिस तरह से अब फसल की उत्पादन की स्थिति साफ हो रही है तो इससे कोल्ड स्टोरेज की करीब 90 फीसदी क्षमता का ही उपयोग होगा। बेहतर होगा कि सरकार व्यावहारिक कदम उठाकर किसानों को संकट से उबारे। खानापूर्ति से आलू किसानों का संकट हल नहीं होगा। आलू किसानों की यह स्थिति केवल उत्तर प्रदेश में नहीं, बल्कि देश के सभी आलू उत्पादक राज्यों में किसान कीमतों में भारी गिरावट के संकट से जूझ रहे हैं।

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