रबी सीजन में डीएपी और कॉम्प्लेक्स उर्वरक कमी हुई तो जाने किसानों के पास क्या है विकल्प

फास्फोरस उर्वरक की कमी के कारण आने वाली समस्या का समाधान देश में मौजूद संसाधन और तकनीक के जरिए निकाला जा सकता है । पीएसबी कल्चर के जरिये जमीन में अनुपयोगी पड़े फॉस्फोरस को बॉयो फर्टिलाइजर के जरिये फसलों के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस तरह के उत्पाद इफको और नेशनल फर्टिलाइर लिमटेड सहित देश की कई कंपनियों बनाती हैं। साथ ही कई कृषि संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय इस पर काम कर रहे है । दूसरी तरफ प्रोमो खाद भी इसका एक विकल्प है। इन उपायों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी योजनाओं में शामिल कर किसानों को कल्चर और प्रोमो तकनीक किसानों उपलब्ध कराना फायदेमंद हो सकता है

रबी सीजन में डीएपी और कॉम्प्लेक्स उर्वरक कमी हुई तो जाने किसानों के पास क्या है विकल्प

अंतरराष्ट्रीय बाजार में रासायनिक उर्वरको की कीमतो में तेजी का दौर चल रहा है क्योकि चीन ने घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए यूरिया और डीएपी के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है । इसके अलावा, बेलारूस पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध की वजह से निर्यात करने में असमर्थ है जिसके कारण ,ग्लोबल मार्केट में  डीएपी के लिए जरुरी कच्चे माल जैसे फास्फोरिक एसिड और अमोनिया के वैश्विक दामो में हाल के समय में 60 से 70 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है । अगर यह दौर इसी  तरह चलता रहा तो आने वाले रबी सीजन में देश में डीएपी की कमी हो सकती क्योकि घरेलू कंपनियां  आय़ात से बच रही है और आने वाले रबी सीजन में किसानों के डीएपी खाद की कमी का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन इस संकट के बीच भी ऐसे उपाय हैं जिनके जरिये देश में फॉस्फोरस की खपत को कम किया जा सकता है और फसलों की उत्पादकता को बरकरार रखा जा सकता है।

डीएपी में फास्फोरस 46 फीसदी होती है जो फसलों के विकास और उत्पादकता बढ़ाने के लिए  काम करते  है, अगर यह तत्व पौधों को न मिले  फल व फूल बनने की प्रक्रिया कम होती है जिससे फसल उत्पादन काफी कम हो जाता है।  अब प्रश्न उठता है कि अगर रबी सीजन में फास्फोरस उर्वरक की कमी हो जाय तो किसान क्या करे  और उसके पास क्या विकल्प हैं  जिससे फास्फोरस की पौधों की पूर्ति की जा सके और उपज ली जा सके ?  

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की शाखा सेंट्रल स्वॉयल सेलिनिटी रिसर्च सेंटर ( सीएसएसआर) लखनऊ के मृदा विज्ञान के  वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ संजय अरोरा ने इस संबंध में एक बातचीत के  तहत रूरल वॉइस को बताया  कि फास्फोरस उर्वरक की  खेतो में अपने यहां के उपलब्ध संसाधन से पूर्ति की जा सकती है  जिसके लिए किसानों को जागरुक होना पड़ेगा । उन्होंने बताया की अपने देश में फॉस्फोरस रिच आर्गेनिक मैन्योर  जिसे प्रोम कहते है  ,उसे किसान घर में ही तैयार कर  सकते है । इसके लिए फॉस्फोरस युक्त कार्बनिक पदार्थों जैसे- गोबर खाद, फसल अपशिष्ट, चीनी मिल का प्रेस मड, जूस उद्योग के अपशिष्ट पदार्थ, विभिन्न प्रकार की खली  आदि को रॉक फॉस्फेट के साथ कम्पोस्टिंग करके बनाया जाता है। जीवाणु रॉक फास्फोरस खाकर  कम्पोस्ट बना देते है । कम अवशोषित होने वाले  रॉक फास्फेट में  फास्फोरस के कण को पौधो को अवशोषण करने के लायक बना देते है  जिससे पौधे असानी रुप  फास्फोरस अवशोषण कर लेते है । कृषि विशेषज्ञ बताते है कि रॉक फॉस्फेट एक तरह का पत्थर है जिसके अंदर 22 फीसदी फॉस्फोरस मौजूद है इस प्रोम के जरिये  हम 10 फीसदी फास्फोरस को उपल्बध करा सकते है । अगर प्रोम  बनाने के लिए 1:1  अनुपात 500 किलो गोबर 500 किलो रॉक फॉस्फेट का पाउडर फोम में मिलाकर बनाते है तो इसके  ऊपर से सूखी पत्तियां डाल देनी चाहिए और  वेस्ट डी कंपोजर का छिड़काव करें और इसे कम से कम 30 से 35 दिनों तक ढ़ककर रखें, जिसके प्रोम खाद तैयार हो जाएगी। डॉ अरोरा के अनुसार इसके माध्यम से 100 किलो फास्फोसरस मिल जाएगा । किसान डीएपी  और एसएसपी खरीदने पर जितने पैसा खर्च करता है उससे कम पैसे में प्रोम तकनीक से फास्फोरस को  बनाकर भरपूर फसल पैदा कर सकता है। प्रोम पोषक तत्वों की उपलब्धता लंबे समय तक बनाये रखता है। प्रोम लवणीय व क्षारिय भूमि में भी प्रभावी रूप से काम करता है जबकि डीएपी ऐसी भूमि मे काम नहीं करता है।

डॉ अरोरा ने दूसरा सुझाव दिया  है  कि ,पौधे के लिए जो फास्फोरस उर्वरक डालते है इस खाद को पूरी तरह अवशोषित नहीं कर पाते हैं। फास्फोरस उर्वरक का 20 प्रतिशत ही भाग पौधे अपने उपयोग में ला पाते है बाकी बची 80 प्रतिशत मात्रा अघुलनशील अवस्था (नान साल्यूबल स्टेज)  में ही जमीन में पड़ी रह जाती है,और मिट्टी में फिक्स हो जाती है। इससे यह फिर किसी फसल के लिए उपयोगी नहीं रह जाता है। सुडोमोनास बैसिलस बैक्टिरिया  औऱ एस्परजिलस कवक इन दोनो समूहो के जीव अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में बदल कर पौधो को उपलब्ध कराने की क्षमता रखते है ऐसी सूक्ष्म जीवो का कल्चर अपने देश में उपयोग कई वर्षो  से हो रहा है। इसे  फास्फोबैक्टिरिया  कल्चर  यानि पीएसबी कल्चर कहा जाता है  इसके जीवाणु  फास्फोरस घोलक होते है  जो जमीन पड़े अघुलनशील फास्फेट तत्व के कणो को घुलनशील तत्व में बदल कर पौधो को पोषक तत्व में उपलब्ध कराते है।  500 ग्राम का पीएसबी कल्चर  एक एकड़ खेत के लिए प्रर्याप्त होता है जो करोड़ों की सख्या में जीवाणु को बढ़ाकर जमीन में पड़े फास्फोरक उर्वरक को घुलनशील बनाकर  पौधों को 15 दिन के उपलब्ध करा देते है।  इसका प्रयोग बीज उपचार जड़ उपचार या कम्पोस्ट में मिला कर किया जाता है। डॉ अरोरा ने बताया इस्तेमाल से लगभग प्रति एकड़ 15 से 20 किलो फास्फोरस की बचत होगी यानि किसान को लगभग प्रति एकड़ 35 से 40 किलों डीएपी की बचत की जा सकती है

डॉ. संजय अरोसा ने  जानकारी दी कि हमारे संस्थान  सेंट्रल स्वॉयल सेलिनिटी रिसर्च सेंटर ( सीएसएसआर) ने इस प्रकार का कल्चर हैलो फास्फो विकसित किया है । इस तरह के पीएसबी कल्चर का उत्पादन इफको ,नेशनल फर्टिलाइर लिमटेड सहित देश के कई कृषि संस्थान और कृषि विश्वविद्यालय  कर रहे हैं । लेकिन इसके प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकार के कृषि विभाग को लेनी पड़ेगी या इसको अपनी योजनाओं में शामिल कर इस कल्चर और तकनीक को किसानों को उपलब्ध कराया जाय। इस तरह के उपाय के जरिये फॉस्फोरस की खपत कम करने की दिशा में कदम बढ़ाया जा सकता है।

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